Tuesday, May 7, 2013

hindi writers on books



रामकुमार [ पेंटर]
मुझे एपिक नॉवेल पढ़ने में विशेष रुचि रही है. 'वार एंड पीस' इसीलिए मेरी सबसे प्रिय पुस्तक है. इसे तीन दफ़ा पढ़ जाने के बावजूद दो-एक बार और पढ़ने की ख्वाहिश मेरे मन में अब भी है. इस क्रम में मैं टॉमस मान की औपन्यासिक कृति 'मैजिक माउंटेन' का भी ज़िक्र करना चाहूँगा. बहुत अरसा पहले पढ़ा था इसे और इसके प्रभाव में वर्षों तक रहा. मुझे एपिक नॉवेलों में भरे-पूरे जीवन का अद्भुत विस्तार भाता है. तथाकथित छोटे नॉवेलों में मैंने अक्सर जीवन कम, दर्शन ज़्यादा पाया है, जो मेरे मुताबिक फिक्शन का एक कमज़ोर पहलू है.
कुंवर नारायण [कवि]
कुछ किताबों के साथ हम बड़े होते हैं और कुछ किताबें हमारी उम्र के साथ बड़ी होती हैं. 'महाभारत' दूसरी तरह की किताबों में से है और इसीलिए मुझे अत्यंत प्रिय है. उम्र के इस मोड़ पर भी मेरा-उसका साथ छूटा नहीं है. आज भी उसके प्रसंगों से मुझे नए अर्थ और अभिप्राय मिलते हैं. उसके चरित्र, घटनाएँ और उसमें गीता जैसी अनेकानेक पुस्तकों का समायोजन बड़े महत्व के हैं. लोग इस प्रक्षेप को दोष मानते हैं लेकिन मुझे यह महाभारत का सबसे बड़ा गुण मालूम पड़ता है. समूची भारतीय मानसिकता की झलक हमें महाभारत में ही मिलती है.
                              ए. रामचंद्रन [पेंटर]
बहुत सारा रूसी साहित्य और उसमें भी विशेष रूप से दोस्तोवस्की, क्योंकि उनसे मुझे पेंटिंग के लिए ढेरों प्रेरणाएं मिलती रहीं, लेकिन सबसे ज़्यादा पसंद मुझे अपनी ही भाषा मलयालम के वैकम मोहम्मद बशीर प्रिय हैं. बशीर का लगभग सम्पूर्ण लेखन आत्मकथात्मक है. लेकिन उनकी आपबीती में जगबीती गुंथी हुई है. इतना सादा और आमफहम शब्दों में रचा-बसा यह जटिल जीवन मुझे दूसरों में नहीं मिलता.
चंद्रकांत देवताले [कवि ]
मुक्तिबोध की कविता पुस्तक 'चाँद का मुह टेढ़ा है' और डायरी ( एक साहित्यिक की). कवि मुक्तिबोध से मैंने बहुत-कुछ सीखा है, इस नाते स्वाभाविक ही उनकी कविताओं से मेरा मर लम्बा और सघन जुड़ाव है. पर गद्य में भी जिस जीवन-विवेक को उन्होंने काव्य-विवेक में बदलने की बात की और साहित्य से अधिक उम्मीद बाँधने को मूर्खतापूर्ण कहा --यह सब मुझे बहुत प्रेरक और लिखे जाने के इतने बरस बाद भी प्रासंगिक लगता है.
एम. के. रैना [रंगकर्मी ]
किसी एक किताब की सिफारिश मुझसे न की जाएगी. अपने शुरू के पढ़ाकू दिनों में कल्चरल कोलोनियलिज्म के बारे में पढ़ने का बड़ा चाव रहा. असल में मैं उस मानस को खारोलना-परोलना चाहता था जो दुनिया भर में अपना सांस्कृतिक उपनिवेश स्थापित करना चाहता था और ऐसा बहुत हद तक कर पाने में सफल भी रहा. मुझे यह दूसरे देश और उनके निवासियों के मानस पर गहरा आघात करने जैसा प्रतीत हुआ, जिसका पता ऊपरी तौर कई दशकों तक नहीं लगता. बाद में थियेटर करने के दरम्यान जिन लेखकों को मन से पढ़ा उनमें प्रेमचंद, मुक्तिबोध और रेणु का नाम लेना चाहूँगा.
उदय प्रकाश [कवि-कथाकार]
मुझे ज़्यादातर आत्मकथाएं और जीवनियाँ पसंद हैं. मुझे फिल्मकार लुई बुनुएल की आत्मकथा 'मई लास्ट ब्रेथ' सबसे ज़्यादा पसंद है. बुनुएल अपने काम में बहुत प्रोफेशनल नहीं थे. बहुत ठहरकर और इत्मिनान से काम किया करते थे. 'आराम हराम है' की बड़ी खिल्ली उड़ाया करते थे और 'कर्मठता' को अमानवीयता के नजदीक लाकर सोचते थे. उनकी दृढ मान्यता थी कि मनुष्य स्वप्न देखने के लिए पैदा हुआ है, काम करते हुए मर-खप जाने के लिए नहीं. अपनी आत्मकथा में उन्होंने ऐसी अनेक रोचक और बहसतलब बातों का ज़िक्र किया है.
                              रघु राय [फोटोग्राफर ]
इमानदारी से कहूँ तो मैं ज़्यादा पढ़ता नहीं हूँ. इतने बरस कैमरे की आंख से ज़िन्दगी की किताब के अलावा कुछ और दिलचस्पी से पढ़ नहीं पाया. लेकिन दलाईलामा पर पुस्तक तैयार करते हुए जब मैं उनकी किताब 'माई लैंड माई पीपल' पढ़ी तो गहरे उद्वेलित हुआ. इसमें उन्होंने बहुत सादगी और लगाव से तिब्बती लोगों का दुःख-दर्द बयाँ किया है. इसके ज़रिये मैं उनके संघर्ष को समग्रता में समझ सका.
राजी सेठ [कथाकार ]
यूँ तो अपने पसंदीदा रिल्के को मैं बहुत अर्से से पढ़ रही थी, लेकिन जब मुझे उलरिच बेयर द्वारा रिल्के के साहित्य से विषयवार चुने हुए अंशों की सुसंपादित पुस्तक ' ए पोएट'स गाइड टू लाइफ : विजडम ऑफ़ रिल्के' पढ़ने का मौका मिला तो मुझे लगा मैं उस जैसे महान कवि-लेखक की दुनिया को नए सिरे से जान रही हूँ. यह किताब रिल्के को लेकर मेरी समझ बढ़ाने में बहुत मददगार रही. रिल्के जैसी प्रज्ञा का समय-समय पर साथ आपकी रचनात्मकता को स्फूर्ति प्रदान करता है.
मुशीरुल हसन [ इतिहासकार]
निश्चय ही जवाहरलाल नेहरू की 'ऑटोबायोग्रफी' मुझे सबसे ज़्यादा पसंद है. कई वजह है इसकी. पहली तो यही कि मेरी एक इतिहासपुरुष के रूप में नेहरू में गहरी दिलचस्पी है. दूसरी यह कि नेहरू ने इसे जिस दौर में लिखा था वह हिंदुस्तान की आज़ादी की लड़ाई के बेहद अहम् साल थे. इस कारण इस किताब में दर्ज घटनाओं और ब्योरों का भी बहुत महत्व है. फिर नेहरू के नेहरू बनने की कथा तो यह है ही. उनके जितने जटिल 'इंटर पर्सनल रिलेशंस' रहे, वे चाहे गाँधी के साथ हों या पिता मोतीलाल और पत्नी कमला नेहरू के साथ, सबके सब इस ऑटोबायोग्रफी में बहुत संवेदनशीलता के साथ दर्ज किए गए हैं. मेरे ख़याल से इस पुस्तक महत्व इसीलिए साहित्य, इतिहास और राजनीति के लोगों के लिए एक सामान है.

अर्पिता सिंह [ पेंटर ]
ओरहन पमुक का उपन्यास 'माई नेम इज रेड'. एक रोचक और अत्यंत पठनीय उपन्यास होने के अलावा यह मुझे चित्र-कला के नज़रिए से भी बहुत पसंद आया. जैसा नाम से पता चलता है, इसमें रंगों की भी एक सामानांतर कथा है. पमुक स्वयं एक विफल पेंटर रहे हैं. पर रंगों के साथ अपने अपनापे, उसके व्यवहार और भिन्न-भिन्न सन्दर्भों में उसके मायनों को उन्होंने कथा में इस खूबी के साथ गूंथ दिया है कि यह पठन अपूर्व बन जाता है.
विश्वनाथ त्रिपाठी [ आलोचक ]
तुलसीदास की रामचरितमानस. कवि तो बहुत हुए पर गोस्वामी जी जैसा जीवन और उसके सौंदर्य का नानाविध चितेरा कोई और नहीं हुआ. यही वजह है कि वर्णाश्रम आदि विचारों से असहमति के बावजूद उनका काव्य मुझे खींचता है. तुलसी को लोक की बहुत गहरी समझ थी. अपनी कविता में उन्होंने इसे प्रतिष्ठित भी बहुत लगाव से किया है. उनकी तारीफ में चंद शब्द कम पड़ेंगे. फिराक के हवाले से कहूँ तो कविता का उत्तमांश तुलसी के पास है.
के. बिक्रम सिंह [ फिल्म मेकर + लेखक ]
करीब सत्तर के दशक में पढ़ी हुई अरुण जोशी की किताब 'द स्ट्रेंज कॉल ऑफ़ विली विश्वास' मुझे नहीं भूलती. इसे दसियों दफ़ा पढ़ चुका हूँ और आज भी जब इच्छा होती है, शेल्फ से निकालकर इसके कुछ हिस्से पढ़ता हूँ. जिन कारणों से मुझे यह किताब अत्यंत प्रिय है उसमें एक तो यही है कि इसके माध्यम से मैं एक भिन्न अनुभव-क्षेत्र से, जिसे मैं मनुष्यों का आदि-अनुभव कहना चाहूँगा, अपना तादात्म्य स्थापित कर सका. संक्षेप में इस उपन्यास की कथा तो मुझसे कही नहीं जाएगी, क्योंकि ऐसा करना उसके जादू को, उसकी कलात्मकता को, नष्ट करना होगा. इसने मुझे अद्वितीय अनुभव, असीम कल्पना और कला के एक अत्यंत उर्वर प्रदेश की सैर कराई.
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