Thursday, May 30, 2013

Patriotism: Nirmal Verma



अतीत में देश के प्रति यह भावना अन्य देशों में भी देखी जा सकती थी, जहाँ देश-प्रेम का गहरा सम्बन्ध संस्कृति और परम्परा की स्मृति से जुड़ा था। मुझे तारकोवस्की की फिल्म ‘मिरर’ की याद आती है, जिसमें एक पत्र पुश्किन का पत्र अपने मित्र को पढ़कर सुनाता है, और उस पत्र में पुश्किन रूस के बारे में जो कुछ अपने उदगार प्रकट करते हैं, वे एक अजीब तरह का आध्यात्मिक उन्मेष के लिए हुए हैं, वे लिखते हैं, ‘‘एक लेखक होने के नाते मुझे कभी-कभी अपने देश के प्रति गहरी झुँझलाहट और कटुता महसूस होती है लेकिन मैं सौगन्ध खाकर कहता हूँ कि मैं किसी भी कीमत पर अपना देश किसी और देश से नहीं बदलना चाहूँगा। न ही अपने देश के इतिहास को किसी दूसरे इतिहास में परिणत करना चाहूँगा, जो ईश्वर ने मेरे पूर्वजों के हाथों में दिया था।’’
शब्द पुश्किन के हैं, देश ‘मदर रशिया’ के बारे में, लेकिन उनमें देशभक्ति का एक ऐसा धार्मिक आयाम दिखाई देता है, जिससे हमें विवेकानन्द, श्री अरविन्द और गाँधी की भावनाएँ प्रतिध्वनित होती सुनाई देती हैं, जो उन्होंने समय-समय पर गहरे भावोन्मेष के साथ भारत-भूमि के प्रति प्रकट की थीं। आज के आधुनिक भारतीय धर्मनिरपेक्षीय बुद्धिजीवियों को भारत के सन्दर्भ में ईश्वर और पूर्वजों की स्मृति का उल्लेख करना कितना अजीब जान पड़ता होगा,. इसका अनुमान करना कठिन नहीं है। वे लोग तो वन्दे मातरम्’ जैसे गीत में भी साम्प्रदायिकता सूँघ लेते हैं। सच बात तो यह है कि देशप्रेम की भावना को देश से जुड़ी स्मृतियों और उसके इतिहास की धूल में सनी पीड़ाओं को अलग करते ही इस भावना की गरिमा और पवित्रता नष्ट हो जाती है। वह या तो राष्ट्रवाद के संकीर्ण और कुत्सित पूर्वाग्रह में बदल जाती है। अथवा आत्म घृणा में....दोनों ही एक तस्वीर के दो पहलू हैं।

-निर्मल वर्मा ( आदि, अन्त और आरम्भ )

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