कल प्रगति मैदान में चल रहे विश्व पुस्तक मेले में जाने का सुयोग मिला। हिंदी के एक बड़े प्रकाशक के स्टाल पर बैठकी में एक किताब के विमोचन का गवाह बना, जिसमें दिल्ली के हिंदी समाज के पत्रकार, प्रोफेसर, महिला अधिकारो के पैरोकार सभी मौजूद थे।
ऐसे में किताब के लेख़क, जिसकी अंग्रेजी की किताब का हिंदी में संस्करण आया था, का कहना था कि हिटलर भी लोकतान्त्रिक तरीके से चुन कर सत्ता में आया था, इसलिए मैं भी नरेंद्र मोदी का विरोधी हूँ। वही दूसरी तरफ अपनी किताब के आवरण पृष्ठ पर उसका कहना था, रंग तो मुझे भगवा ही पसंद है, जिस पर एक प्रगतिशील का कहना था कि इसका रंग तो हरा नहीं तो हरे का समावेश होना चाहिए था, बैलेंस के लिए। अंतर्विरोध भी कितने छिछले है मानो जानकर भी ऊबकाई आती है।
वैसे पिछली सरकारों में ये भी जैकारे की कतार में थे, यानि सत्ता-सुख की मलाई उठाने में कोई पीछे नहीं था और अब जब सत्ता की रतौंधी के शिकार टीवी चैनलो के 'जनता' पत्रकार भी 'भविष्य के नेता' के 'चीयर बॉयज' बन रहे है तो फिर क्या माना जाये?
कल आईआईऍमसी के ही एक साथी, जो एक बड़े पद पर है. का कहना था कि जैसे सत्ता की लड़ाई अब शैडो वॉर हो गयी है जैसे अगर खुद न लड़ सको तो 'सुपारी पार्टी' को आगे कर दो, महिलाओं का भला करना हो तो ऐसी महिलायों को कलम से लेकर सत्ता पर काबिज कर दो, जिनके खुद के घर न बसे हो, घर बस भी गए हो तो बिखर गए हो तो फिर वे समूचे समाज को भी बिखरा देंगीं।
सो राजनीति से लेकर घर की देहरी तक 'बिखराव' की हवा है, संसद के झंडे से लेकर घर-गुवाड़ी के तुलसी के आँगन को बचाने का प्रयास ही समय की जरुरत है।
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