Friday, February 14, 2014

Mirza Ghalib and Delhi (गालिब-दिल्ली)


तारीख सिर्फ हुकमरानों और उनकी हार-जीत का जमाजोड़ नहीं होती, वह तो उन छोटे-बड़े वाकयों से भी बनती है जो अपने दौर से जुड़ी होती हैं और वक्त गुजर जाने के बाद खुद एक मिसाल बन जाती है।
उर्दू और फारसी के आला दर्जे के शायर का बसेरा रही आम सी नजर आने वाली गली कासिम जान की हवेली में आज एक स्मारक संग्रहालय है, जहां उर्दू के अजीम शायर ने अपना एक लंबा वक्त बतौर किराएदार बिताया और जिंदगी की आखिरी सांस ली। कई मर्तबा, ये बजाहिर मामूली चीजें बहुत गैरमामूली होती हैं।
गालिब का पूरा नाम असदुल्लाह था और उनका तखल्लुस पहले ‘असद‘ था बाद में ‘गालिब‘ रखा।
वह बात अलग है कि आज की तारीख में गालिब महानगर की भीड़भाड़ और आधुनिकता की चकाचौंध  में गुम से हो गए हैं। इस स्मारक को बनवाने में आला फिल्मकार गुलजार की महत्वपूर्ण भूमिका रही। बकौल गुलजार, उनका घर एक कोयला गोदाम में तब्दील हो गया था बाद में अटल बिहारी वाजपेयी ने इस स्मारक को सहेजने के लिए कदम उठाए।
गालिब ने अपनी जिंदगी के करीब पचास-पचपन साल दिल्ली में गुजारें। उनका ज्यादातर दौर इसी गली में गुजरा। यह गली चाँदनी चौक से मुड़कर बल्लीमारान के अन्दर जाने पर शम्शी दवाखाना और हकीम शरीफखाँ की मस्जिद के बीच पड़ती है।
बल्ली मारां की वो पेचीदा दलीलों की-सी गलियाँ
एक कुरआने सुखन का सफ्हा खुलता है
असद उल्लाह खाँ गालिब का पता मिलता है
एक जमाने में बल्लीमारान को बेहतरीन नाविकों के लिए जाना जाता था इसीलिए इसका नाम बल्लीमारान पड़ा यानी बल्ली मारने वाले। इसी गली में, गालिब के चाचा का ब्याह कासिमजान (जिनके नाम पर यह गली है) के भाई आरिफजान की बेटी से हुआ था और बाद में गालिब खुद दूल्हा बने आरिफजान की पोती और लोहारू के नवाब की भतीजी, उमराव बेगम को ब्याहने इसी गली में आये । साठ साल बाद जब बूढ़े शायर का जनाजा निकला तो इसी गली से गुजरा ।
यह गालिब के जीने की नहीं मरने की हवेली है।
गली कासिम जान में गालिब के अलावा कई और नवाबों की हवेलियाँ भी थी। दिल्ली पर किताब लिखने वाले विलियम डेलरिम्पल ने मुताबिक यह नवाबों का रसूख था कि १८५७ की क्रांति के बाद बल्लीमारान अंग्रेजों के कोप से बच गया था और यहाँ कत्लेआम नहीं हुआ था। कथित गदर पर गालिब कहते है कि अंग्रेज की कौम से जो इन रूसियाह कालों के हाथ से कत्ल हुए, उसमें कोई मेरा उम्मीदगाह था और कोई मेरा शागिर्द। हाय, इतने यार मरे कि जो अब मैं मरूँगा तो मेरा कोई रोने वाला भी न होगा।
अगर सीधी जुबान में कहूँ तो क्या गालिब दिल्ली के अवाम की सोच का हिस्सा हैं? ‘अगर हाँ तब कैसे और न तो कैसे नहीं। कैसे आज की दिल्ली में गालिब का होना ऐतिहासिक तथ्य तो है तो उनकी मौत भी क्योंकि आखिर गालिब का मकबरा भी यही है।
दिल्ली के रहने वालो असद को सताओ मत।
बेचारा चंद रोज का यां मेहमान है।
आज की पीढ़ी को गालिब के बारे में शायद ही इस हकीकत का पता हो कि शायरी के बेताज बादशाह दिल्ली में ही दफन है। शायद कम लोग ही इस हकीकत से वाकिफ होंगे कि राजधनी में गालिब की मजार फिल्मकार सोहराब मोदी के कारण सलामत है । उन्होंने ही हजरत निजामुद्दीन औलिया की खानकाह के पास गालिब की कब्र पर संगमरमर पत्थर चिनवा कर महफूज कर दिया वरना खुदा ही जाने क्या होता।
पूछते हैं वो के गालिब कौन है?
कोई बतलाओ के हम बतलाएं क्या?
मोहम्मद अल्ताफ हुसैन ‘हाली’ ने गालिब के इंतकाल के बाद ‘यादगारे-गालिब’ किताब लिखी, यह पहली किताब है जो गालिब के फसाने और हकीकत को सामने लाती है। गौरतलब है कि आजाद मुल्क में गालिब की शताब्दी समारोह के समय ही गालिब की हवेली से कोयले की टाल हटाई गई थी। 
गालिब जिसे कहते हैं कि उर्दू का ही शायर था
उर्दू पे सितम ढा के गालिब पे करम क्यों है
गालिब की निजामुद्दीन में वीरान-ए-हाल की मजार और हवेली की रौनक साल में सिर्फ एक बार ही लौटती है, एक रस्म अदायगी के तौर पर। गालिब की शायरी दिल्ली और देश की धरोहर है और उनके स्मृति-चिन्ह थाती। लेकिन अवाम हैं कि अपनी अजीम शायर को भुलाए हुए हैं। गालिब ने उर्दू जुबान को जो उम्दा हो सकता था वह दिया, लेकिन बेवफाई के सिवाय अवाम ने क्या दिया। इसके बावजूद गालिब को यह यकीन था कि -
हमने माना के तगाफुल न करोगे लेकिन,
खाक हो जायेंगे हम तुमको खबर होने तक।
उर्दू-साहित्य को मीर और गालिब से क्या हासिल हुआ, इस बारे में अपनी पुस्तक गालिब में रामनाथ सुमन कहते हैं कि मीर ने उर्दू को घुलावट, मृदुता, सरलता, प्रेम की तल्लीनता और अनुभूति दी तो गालिब ने उसे गहराई, बात को रहस्य बनाकर कहने का ढंग, खमोपेच, नवीनता और अलंकरण दिये। 


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