मुसलमान जब भारतवर्ष में आये, और उन्होंने जब दिल्ली एवं आगरे को अपनी राजधानी बनाई तो अनेक कार्य सूत्रा से उनको अपने आसपास की देशी भाषा का नामकरण करना पड़ा। क्योंकि फारसी, अरबी, अथवा संस्कृत तो देशभाषा को कह नहीं सकते थे और वह वास्तव में फारसी, अरबी अथवा संस्कृत थी भी नहीं, इसलिए उन्होंने देशभाषा का नाम 'हिन्दी' रखा। यह नाम रखने का हेतु यह भी हुआ कि वे भारतवर्ष को 'हिन्द' कहते थे, इसलिए इस देश की भाषा को उन्होंने 'हिन्दी कहना ही उचित समझा। कुछ लोग कहते हैं कि हिन्दू शब्द ही से हिन्दी शब्द बना, किन्तु यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि हिन्दू शब्द भी हिन्द शब्द से ही बना है।
यद्यपि कुछ लोग यह बात नहीं मानते, और अन्य प्रकार से हिन्दू शब्द की व्युत्पत्ति करते हैं परन्तु बहुमान्य सिध्दान्त यही है कि 'हिन्द' शब्द से ही हिन्दू शब्द बना है क्यों यह सिध्दान्त बहुमान्य है, इस विषय में अपने एक व्याख्यान का कुछ अंश यहाँ उठाता हूँ-''हिन्दी शब्द उच्चारण करते ही, हृदय उत्फुल्ल हो जाता है, और नस-नस में आनन्द की धारा बहने लगती है। यह बड़ा प्यारा नाम है, कहा जाता है, इस नाम में घृणा और अपमान का भाव भरा हुआ है, परन्तु जी इसको स्वीकार नहीं करता।
हिन्दू शब्द से ही हिन्दी का सम्बन्ध नहीं है-वरन् हिन्द शब्द उसका जनक है-हिन्द शब्द देशपरक है, और भारतवर्ष का पर्यायवाची शब्द है। यदि हिन्दू शब्द से ही उसका सम्बन्ध माना जावे तो भी अप्रियता की कोई बात नहीं। आज दिन हिन्दू शब्द ही इक्कीस करोड़ संख्या का सम्मिलन सूत्र है, यह नाम ही ब्राह्मण से लेकर अस्पृश्य जाति के पुरुष तक को एक बन्धन में बाँधता है।
आर्य नाम उतना व्यापक नहीं है, जितना हिन्दूनाम, यह कभी विष रहा हो, पर अब अमृत है। वह पुण्य-सलिला-सुरसरी जल-विधौत, सप्तपुरी-पावन-रजकणपूत और पुनीत वेद मंत्रों द्वारा अभिमंत्रित है, क्या अब भी उसमें अपावनता मौजूद है। इतना निराकरण के लिए कहा गया, इस विषय में मेरा दूसरा सिध्दान्त है। यह सत्य है कि हमारे प्राचीन ग्रन्थों अथवा पुराणों में हिन्दू शब्द का प्रयोग नहीं है, यह सत्य है कि मेरुतन्त्र का ''हीनश्च दूषयत्येव हिन्दुरित्युच्यते प्रिय''और शिव रहस्य का ''हिन्दू धार्म प्रलोप्तारोभविष्यन्ति कलौयुगे'' आधुनिक श्लोक खंड हैं।
किन्तु यह भी सत्य है कि विजेता मुसलमानों ने बलपूर्वक हिन्दुओं से हिन्दू नाम नहीं स्वीकार कराया। यदि बलात् यह नाम स्वीकार कराया गया होता, तो चन्दवरदाई ऐसा स्वधार्माभिमानी अब से सात सौ बरस पहले, अपने निम्नलिखित पद्य में हिन्दुवान, शब्द का प्रयोग न करता। वह लिखता है-
''हिन्दुवान रान भय भान मुख गहिय तेग चहुँआन अब''
वास्तव बात यह है कि फारस-निवासी चिरकाल से भारत को हिन्द कहते आये हैं अब से लगभग पाँच सहस्त्र वर्ष की पुरानी पुस्तक जिन्दावस्ता में इस शब्द का प्रयोग पाया जाता है, उसकी 163वीं आयत यह है-
''चूं व्यास 'हिन्दी, बलख़ आमद'
गुस्तास्पजरतुश्तरा बख्वाँद''
यह हिन्द नाम सिन्धु के सम्बन्ध से पड़ा है, क्योंकि फारसी में हमारा 'स' 'ह' हो जाता है, जैसे सप्त से हफ्त, असुर से अहुर, सोम से होम बना वैसे ही सिंध से हिंध अथवा हिन्द बन गया और इसी हिन्द से ही हिन्दू शब्द की वैसे ही उत्पत्ति है, जैसे इण्डस से इण्डिया और इण्डियन की।
जब मुसलमान जाति विजेता बनकर भारत में आई, तो वह यहाँ के निवासियों को इसी प्राचीन नाम से पुकारती रही, अतएव उसके संसर्ग और प्रभाव से यह शब्द सर्वसाधारण में गृहीत हो गया। इस सीधी और वास्तविक बात को स्वीकार न करके यह कहना कि हिन्दू माने काफ़िर के हैं, अतएव बलात् यह नाम हिन्दुओं से स्वीकार कराया गया, अनुचित और असंगत है।''
डॉक्टर जी. ए. ग्रियर्सन क्या कहते हैं, उसे भी सुनिए-
''यूरोपियन लेखकों ने 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग बड़ी लापरवाही के साथ किया है। यह फारसी शब्द है, और इसका अर्थ है,भारत का अथवा भारत से सम्बन्ध रखने वाला। परन्तु लोग इसका सम्बन्ध हिन्दू शब्द से बतलाते हैं, जो ठीक नहीं। पुराने समय में भी मध्य भारत की भाषा, भारत में सबसे महत्तव की होती थी। यह स्थानीय भाषा नहीं है, वरन् एक प्रकार से 'हिन्दुस्तानी' है-जो कि उत्तरी और पश्चिमी भारत के बोल-चाल की भाषा है''।
मुसलमान लोग हमारी देश भाषा को बहुत पहले से हिन्दी कहते आये हैं, इसका प्रमाण खुसरो की रचनाओं में मौजूद है। खुसरो ईस्वी तेरहवें शतक में हुए हैं-उन्होंने हिन्दी भाषा में भी रचना की है। हिन्दुओं को फारसी सिखलाने के लिए उन्होंने खालिकवारी नाम की एक पुस्तक लिखी है, उसमें वे कहते हैं-
मुश्क काफ़ूरस्त कस्तूरी कपूर।
'हिन्दवी, आनन्द शादी औसरूर।
सोजनो रिश्ता व हिंदी सूई ताग।'
इसका अर्थ हुआ मुश्क को कस्तूरी, काफ़ूर को कपूर, शादी और सरूर को आनन्द, एवं सोजन और रिश्ता को हिन्दी में सूई तागा कहते हैं।
अपनी हिन्दी रचना में एक जगह वे यह कहते हैं-
फारसी बोली आईना। तुर्की ढूँढी पाईना।
'हिन्दी, बोली आरसी आए। खुसरो कहे कोई न बताये।'
इसका अर्थ हुआ फारसी में जिसे आईना कहते हैं, हिन्दी में उसको आरसी। मलिक मुहम्मद जायसी भी हिन्दी को हिन्दवी ही कहते हैं-
तुरकी अरबी हिन्दवी भाषा जेती आहि।
जामें मारग प्रेम का सबै सराहै ताहि।
इन पद्यों से यह स्पष्ट हो गया कि अब से छ:-सात सौ बरस पहले से हमारे मध्यवर्ती देश की भाषा हिन्दी कहलाती है। परन्तु यह अवश्य है कि हिन्दुओं में यह नाम बहुत पीछे गृहीत हुआ है, जैसा मैं ऊपर लिख आया हूँ। पहले हिन्दवी अथवा हिन्दुई को अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता था। हिन्दुई शब्द गँवारी बोलचाल अथवा साधारण कोटि की भाषा के लिए प्रयुक्त होता था। इसीलिए उच्च हिन्दी अथवा उसकी साहित्यिक रचनाओं का नाम भाषा था। परन्तु जब यह भाषा बहुत व्यापक हुई, और उसमें अनेक अच्छे-अच्छे ग्रन्थ निर्मित हुए, सुदूर प्रान्तों से सुन्दर-सुन्दर समाचार-पत्र निकले, तब विचार बदला और उस समय से हिन्दी भाषा कहकर ही उसका परिचय दिया जाने लगा। आज दिन तो हिन्दी अपने नाम के अर्थानुसार वास्तव में हिन्द की भाषा बन रही है।
(अन्य प्राकृतिक भाषाएँ और हिन्दी-अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध')
http://www.hindisamay.com/hariodh%20Samagra/hariod-smagra-kund6.htm
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