Saturday, December 29, 2018

Hazrat Nizamuddin Aulia_दोस्त-दुश्मन के हमसाया, हजरत निजामुद्दीन औलिया





हर साल नवंबर महीने में देश भर के विभिन्न स्थानों से बड़ी संख्या में श्रद्धालु दिल्ली आते हैं। इन सभी का उद्देश्य 14 वीं सदी के चिश्ती हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करना होता है। उनके नाम से ही दिल्ली का एक इलाका निजामुद्दीन के नाम से जाना जाता हैं। वे इस मकबरे में सालाना उर्स मनाने के लिए जमा होते हैं। 

पिछली सदियों में हुए अनेक परिवर्तनों के बावजूद निजामुद्दीन दरगाह आज भी दिल्ली की वास्तुकला शिल्प के हिसाब से बेहद उम्दा इमारतों में से एक है। संसद भवन से करीब पांच मील दक्षिण की ओर दिल्ली-मथुरा रोड पर हजरत के नाम से पुकारे जाने वाले इलाके में अनेक ऐतिहासिक इमारतों के बीच यह दरगाह मौजूद है। 

मशहूर चिश्ती पीरों की परंपरा में शेख निजामुद्दीन चौथे थे। पहले मुईनुद्दीन चिश्ती, दूसरे कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी, तीसरे शेख फरीदुद्दीन मसूद शकरगंज थे। शेख निजामुद्दीन, मसूदगंज के चेले थे। शेख निजामुद्दीन के पूर्वज मध्य एशियाई शहर बुखारा से भारत आए थे। उनके पिता का नाम ख्वाजा अहमद और मां का नाम बीबी जुलैखा था। कम उम्र में पिता के देहांत के कारण उनका लालन-पालन उनकी मां ने ही किया। 

उन्होंने जवान होने के बाद दिल्ली के ख्वाजा शम्सुद्दीन, जो कि बाद में गुलाम वंश के बादशाह बलबन के वजीर भी बने, मौलाना अमीनुद्दीन और कमालुद्दीन की देखरेख में हुई। लगभग बीस वर्ष की उम्र में शेख निजामुद्दीन पाकपटन गए और शेख फरीदुद्दीन मसूद शकरगंज के शिष्य बन गए। पाकपटन में कुछ समय रहने के बाद वे वापस दिल्ली लौट आए और इबादत में अपना सरल जीवन बिताने लगे। कुछ समय बाद उनकी शोहरत फैलने लगी और उनके श्रद्धालु प्रशंसक बड़ी संख्या में आने लगे। कई बादशाह, दरबारी, और शाही खानदान के सदस्य उनके अनुयायी थे। यह इस बात से साफ होता है कि दिल्ली के शाही खानदान के कई सदस्य उनकी दरगाह के अहाते में दफनाए गए। 

89 वर्ष की उम्र में वे बीमार पड़े और वर्ष 1325 को उनका इंतकाल हुआ। उनके प्रमुख शिष्य अमीर खुसरो ने शेख निजामुद्दीन औलिया को दिलों का हकीम कहा है। जबकि इकबाल ने उनके बारे में लिखा है कि 
तेरे लहद की जियारत है जिंदगी दिल की, 
मसीह व खिज्र से ऊंचा मकाम है तेरा।

उनकी लोकप्रियता का अनुमान समकालीन इतिहासकार जियाउद्दीन बर्नी के "तारीख फीरोजशाही" में इस कथन से लगाया जा सकता है कि उस युग में (यानी अलाउद्दीन खिलजी के युग में) शेखुल-इस्लाम निजामुद्दीन ने दीक्षा के द्वार जनसाधारण के लिए खोल दिए थे-पापों से तौबा, प्रायश्चित कराते और उनको कंधा, गुदड़ी देते थे और अपना शिष्य बनाते थे। श्रद्वालुओं ने नगर से ग्यासपुर तक विभिन्न गांवों के चबूतरे बनवाकर उन पर छप्पर डाल दिए थे और कुएं खुदवाकर वहां मटके, कटोरे, और मिट्टी के लोटे रख दिए थे। शेख निजामुद्दीन औलिया उस युग में जुनैद व शेख बायजीद के समान थे।

अमीर खुसरो ने उनके संबंध में यह लिखकर सब कुछ कह दिया-
मिसाले आस्मां बर दुश्मन व दोस्त
कि शेख मन मुबारक नुस्ख-ए ओस्त
(आकाश की भांति मेरे शेख का साया मित्र और शत्रु दोनों पर है)



Sunday, December 23, 2018

Saint James Church_Delhi_दिल्ली का सेंट जेम्स चर्च

22122018_Dainik Jagran




1826 में किराए पर लड़ने वाले एक अंग्रेज सैनिक जेम्स स्किनर ने प्रोटेस्टेंट मत को मानने वाले ईसाइयों के लिए पहली बार पुरानी दिल्ली के कश्मीरी गेट के पास सेंट जेम्स गिरजाघर बनवाया था। स्किनर पहले ग्वालियर महाराजा की चाकरी में था। जब महाराजा ग्वालियर अंग्रेजों से लड़ने के लिए तैयार हुए तो इसने उनकी नौकरी छोड़ दी और ईस्ट इंडिया कंपनी की मुलाजमत कर ली।


सेंट जेम्स चर्च के निर्माण के लिए नवाब अली मर्दन खान की 17 वीं शताब्दी की हवेली की जद वाली जमीन तय हुई। यह गिरजाघर 1826 से 1836 तक दस वर्ष नब्बे हजार की लागत में बन कर तैयार हुआ। यह इमारत बहुत सुंदर बनी हुई है। गुम्बद कमरखी है। उस पर सुनहरी सलीब लगी हुई है। कमरों में संगमरमर का फर्श है।

1857 की आजादी की पहली लड़ाई में यह जंग का मैदान भी रहा। तब हुई लड़ाई में गोलाबारी से गिरजाघर के गुम्बद को नुकसान पहुंचा था और वह गिर गया था। 1865 में उसे ठीक करवाया गया। तब गिरजा पर एक तांबे का गोला लगा हुआ था, जो 1883 में उतारकर नीचे रख दिया गया। यह एक चबूतरे पर रखा हुआ है।

यह गिरजाघर लाल किले के उत्तर और कश्मीरी गेट के दक्षिण के मध्य में अंग्रेजों की बसावट वाले गलियारे के ठीक बीच में बना था। महत्वपूर्ण बात यह है कि 1911 में जब अंग्रेज भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली घोषित हुई तब यह भारत में अंग्रेज सरकार का आधिकारिक गिरजाघर था। जबकि नई दिल्ली के निर्माण के बाद 1931 में चर्च ऑफ रिडेमशन को यह दर्जा मिला। यह स्थान लालकिले के उत्तर वाले क्षेत्र का हिस्सा था जिसे अंग्रेजों ने अपने उपयोग के लिए चिन्हित किया था। तब यह स्थान अंग्रेजों के गलियारे के केन्द्र में स्थित था, जिसके पास सड़क का एक घेरा था। उसके पड़ोस में महत्वपूर्ण अंग्रेज प्रतिष्ठान थे, जैसे पश्चिम दिशा में स्किनर की जागीर-उत्तर दिशा में कर्नल फॉस्टर का घर और दक्षिण में अंग्रेज रेसिडेंसी बनी हुई थी।

यह गिरजाघर दिल्ली में अंग्रेज आबादी की धार्मिक आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ सांकेतिक रूप से दिल्ली के शहरी भूदृश्य में अंग्रेजों की पहचान का भी प्रतीक था। एक तरह से मस्जिदों के गुंबदों और मीनारों की बहुलता वाले शहरी परिदृश्य में सेंट जेम्स गिरजाघर का गुंबद एक प्रमुख तत्व के रूप में उभरकर सामने आया।

एक तरह से, यह गिरजाघर न केवल भारतीयों बल्कि यूरोपीय नागरिकों के लिए भी एक सहज जिज्ञासा का केन्द्र था। इसका कारण यह था कि यह गिरजाघर भारतीय उपमहाद्वीप में बने अधिकतर जेम्स गिब्ब के सेंट मार्टिन-इन-द-फील्ड्स के डिजाइन पर आधारित नहीं था। यह गिरजाघर एक व्यक्ति की पहल का परिणाम था। कुछ लोग इसके डिजाइन का श्रेय स्किनर को तो कुछ कर्नल रॉबर्ट स्मिथ और बंगाल इंजीनियर के कैप्टन डी बुडे को देते हैं।

इस स्थान पर गिरजाघर परिसर के साथ एक दीवार का परकोटा भी था। एक बगीचे के रूप में विकसित इस स्थान में एक कब्रिस्तान भी था। जहां विलियम फ्रेजर की कब्र है, जो 1835 में कत्ल हुआ था। गिरजे के उत्तर-पूर्वी कोने में थॉमस मेटकॉफ की कब्र है। वह आजादी की पहली लड़ाई के समय में मजिस्ट्रेट था। इसी ने मेटकॉफ हॉउस बनवाया था। इसके अलावा स्किनर खानदान वालों की कई कब्रें इस गिरजे के चारदीवारी में बनी हुई है।

Wednesday, December 19, 2018

Rahi Masoom Raza_Katra bi arjoo_राही मासूम रजा_कटरा बी आर्जू



रोशनाई के लिए अपने को बेचा किये हम,ताकि सिर्फ इसलिए कुछ लिखने से बाकी न रहे,कि कलम खुश्क थे और लिखने से मजबूर थे हम,

-राही मासूम रजा
(कटरा बी आर्जू: आपातकाल की पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास )

Saturday, December 15, 2018

Cinematic voyage of Old Delhi Theaters_जगत से मोती तक का सिनेमाई सफर

15122018_दैनिक जागरण 





राजधानी के सिनेमाई इतिहास में झांकने पर पता चलता है कि चांदनी चौक में दिल्ली के सबसे पुराने सिनेमा हॉल हैं। इनमें से अधिकतर 1930 के आरंभिक दशक में अस्तित्व में आए तो कुछ-एक उससे भी पुराने हैं। उस दौर में हर सिनेमाघर के अपने वफादार दर्शक थे जैसे मुसलमानों का पसंदीदा जामा मस्जिद के करीब “जगत” था तो हिंदू चांदनी चौक की तंग गलियों में बने “मोती” को पसंद करते थे। उस जमाने में विक्टोरियाई और मुगल वास्तुकला के मिश्रण में बना अर्धगुम्बज मोती की पहचान था।


मोती को थिएटर से सिनेमा बनाने का श्रेय फिल्म वितरक सी. बी. देसाई को जाता है। जिन्होंने 1938 में इसे खरीदकर नया स्वरूप देते हुए जर्मनी से आयातित प्रोजेक्शन यंत्र लगवाया। साथ ही चार से सात आने में मिलने वाले टिकट का दाम एक रूपए कर दिया। तब मोती को पत्थरवालों का टाकीज भी कहा जाता था। ऐसा इसलिए था क्योंकि मोती लालकिले के सामने बने पत्थर तराशों का बाजार के करीब था।


यह जानकर किसी को भी आश्चर्य होगा कि आजादी से पहले मोती में हॉलीवुड की फिल्में प्रदर्शित होती थी। यह सिलसिला 50 के शुरूआती वर्षों तक बना रहा जब रविवार को दोपहर में हॉलीवुड फिल्में दिखाई जाती थी। मोती में आरके बैनर की सभी फिल्में-"आवारा", "जागते रहो", "बरसात", "जिस देश में गंगा बहती है", "संगम" और "मेरा नाम जोकर"-नियमित रूप से प्रदर्शित हुई। यह राजकपूर का पसंदीदा सिनेमाघर था, जहां वे हमेशा अपनी फिल्मों के प्रीमियर पर उपस्थित होते थे।

ऐेसे ही सोहराब मोदी-मेहताब की "झांसी की रानी" (1956) के प्रदर्शन के समय फिल्म के प्रचार के लिए नायाब तरीका अपनाया गया था। तब हर रोज चांदनी चौक में चूड़ीदार पाजामा पहने और हाथ में तलवार लिए सिपाहियों का एक जुलूस निकलता था जो कि भारतीय वीरांगना के जीवन पर आधारित फिल्म के महत्व को दर्शाता था। बाद में 70 और 80 के दशकों में यह मनमोहन देसाई की बड़ी बजट की फिल्मों का केन्द्र बना। अमिताभ बच्चन अभितीत "देश प्रेमी" (1982) "कुली" (1983) और "मर्द" (1985) ऐसी ही फिल्में थीं, जिन्हें देखने के लिए भारी संख्या में दर्शक जुटे।

जामा मस्जिद इलाके में मछली बाजार के नजदीक होने के कारण जगत सिनेमा मछलीवालों का टॉकीज कहलाता था। तीस के आरंभिक दशक में मूक फिल्मों की समाप्ति के साथ जगत ने भी थिएटर से सिनेमा होने का सफर तय किया। पहले इसका नाम “निशत” था जो कि 1938 में बदलकर जगत हो गया।

जगत में अधिकतर मुस्लिम समाज के कथानक पर आधारित फिल्में प्रदर्शित होती थीं। जामा मस्जिद से नजदीकी के कारण यहां फिल्मों के चयन-प्रदर्शन पर खास ध्यान रखा जाता था। देह प्रदर्शन वाली फिल्मों का तो सवाल ही नहीं था।  

आजादी से पहले यहां पर "आलमआरा" (1931) "तानसेन" (1943) "जीनत" (1945) और बाद में "अनारकली" (1953) और "नागिन" (1954) जैसी फिल्में प्रदर्शित हुई। यहां तक कि "नागिन" फिल्म में लता मंगेशकर के गाए और वैजयंती माला पर फिल्माए मन डोले मेरा तन डोले पर दर्शकों ने पर्दे पर सिक्के फेंके। इस फिल्म की यहां पर सिल्वर जुबली होने पर वैजयंती माला को छोड़कर पूरे फिल्मी कलाकार यहां आए थे।

1966 में यहां पर प्रदर्शित "फूल और पत्थर" की सिल्वर जुबली के मौके पर मीना कुमारी और धर्मेंद्र एक समारोह में यहां आए थे। इस फिल्मी जोड़ी के स्वागत के लिए दर्शकों की भारी भीड़ उमड़ी थी। हालत यह हुई कि उन्हें अपनी कार को दरियागंज ही छोड़कर पैदल जगत तक आना पड़ा था। इसी तरह, 1976 में लैला मजनूं के प्रदर्शन के समय ऋशि कपूर-रंजीता की जोड़ी का खास स्वागत हुआ था। इस प्रेम कहानी वाली फिल्म ने भी जगत में गोल्डन जुबली मनाई थी। 


जगत में 1975 में प्रदर्शित “दयार ए मदीना” बेहद सफल रही थी। इस फिल्म को देखने के लिए दाढ़ी वाले मौलनाओं और बुर्काधारी औरतों की भीड़ उमड़ पड़ी थी। यहां तक कि जगत सिनेमा के प्रबंधन ने स्थानीय मौलवियों के अनुरोध पर फिल्म के प्रदर्शन की अवधि को दो सप्ताह के लिए बढ़ा दिया था। 1981 में प्रदर्शित “शमां” नामक फिल्म के पहले सप्ताह में उसके निर्माता कादर खान यहां पहुंचे थे, जिनका दर्शकों खासकर महिलाओं ने जोरदार स्वागत किया था।   

फिल्म देखने के लिए सिनेमा आने वाले दर्शक बाहर रखे एक दराज में अपने जूतों उतारने के बाद ही फिल्म देखते थे। यहां तक कि कुछ तो अपने साथ अगरबत्ती भी लाते थे। तब यहां पर सामने वाली सीट का दाम एक कोला से भी कम होता था। तब कोला एक रूपए में आता था जबकि टिकट 75 पैसे में।


Saturday, December 8, 2018

Dhaka village of British Raj_दिल्ली में अंग्रेजी राज का गवाह ढका गांव

08122018_दैनिक जागरण 

दिल्ली विधानसभा से किंग्सवे कैंप चौराहे से दाई तरफ मुड़ने पर रास्ता, वर्ष 1911 में अंग्रेज भारत में हुए तीसरे दिल्ली दरबार के स्मारक की तरफ जाता है। उल्लेखनीय है कि 12 दिसंबर 1911 को दिल्ली में हुए दरबार में अंग्रेज सम्राट जार्ज पंचम ने घोषणा की कि देश की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली हो गई है। शहर के उत्तर में पुरानी सिविल लाइन में अस्थायी भवनों का निर्माण किया गया और वाइसराय को रिज के दूसरी ओर के भवन में ठहराया गया, जहां 1857 में घेरा डालने वाली अंग्रेज सेना ने एक बार शिविर लगाया था। आज यहां परमानंद कॉलोनी के रूप में एक भरी-पूरी आबादी बस गई है, जहां मकान-दुकान से लेकर सदाबहार बाजार हैं। यह बानगी सरसरी तौर पर देखने में बेहद अच्छी लगती है पर इसके मूल में कम व्यक्तियों की ही दृष्टि जाती है। और वह है एक छोटा-सा गांव जो कि आज भी अपने मूल नाम ढका के साथ महानगरीय चकाचौंध में अपना अस्तित्व बनाए हुए है।


1920 के दशक में ढका गांव भी, देश के दूसरे हजारों गांवों की तरह एक गांव था। जो कि इम्पीरियल सेक्रेटेरियट के कनिष्ठ कर्मचारियों, छोटा साहब लोग, के टेंट वाली बसावट के नजदीक होने के बावजूद अपने स्वरूप को बनाए हुए था। उल्लेखनीय है कि नई दिल्ली के बनने से पहले अंग्रेज कर्मचारी इसी क्षेत्र में रहे थे। तब यहां के खुले खेतों में बबूल के पेड़ और कांटेदारें नागकनी की मेडे होती थीं।

“दिल्ली तेरा इतिहास निराला” पुस्तक में वेद प्रकाश गुप्ता ने दिल्ली सर्कल के ढका गांव के विषय में विस्तार से लिखा है। पुस्तक के अनुसार, “अरसा तखमीनन 70 साल हुआ कि पहले रकबा देह हजा वीरान पड़ा था और मालकान मौजा वजीराबाद उसमें मवेशी चराते थे। जनबा मिस्टर वजीर साहब बहादुर ने मससियान ठाकर दास व धनी व छज्जन व किशना हर चार मारूसियान हम मालकान को खेरखवाही व खिदमतगुजारी (सेवकाई) कि वो हमेश साहब के साथ रहते थे, हक बिसवेदारी बीस बिसवा रकबा हजा बसीसनाथ 287 बीघे 11 बिस्बे हकीयत सरकार मवाफ हस्व तफसील जेल, ठाकुर दास को साढ़े 7 बिस्वे धन्नी को ढाई बीसवा छज्जन को पांच बिस्बे, किशना को पांच बिस्वे देकर अमल करा दिया। जनाब मिस्टर वजीर साहब बहादुर ने हर चार मारूसियान मजकूर को रकबा देह हजा का दिया था, को उस वक्त एक टीला बन्द रकबा देह हजा में बाका था और नीज उस पर दरखत ढाक कसरत से थे वो दरखत मारूसियान ने काट कर उस पर बसर्फ लागत खुद आबादी तैयार करी। बासवव maujudमौजुदगी दरखतान ढाक के नाम से ढाका आबाद मौसूम हुआ। मगर बबायस कसरत गलत इस्तेमाली ढका मारूफ (मशहूर) हो गया जब से आबादी कभी वीरान नहीं हुई और सिवाए आबादी देह और कोई खेड़ा कुनाह के रकबा देह हजा में नहीं है।”

अंग्रेजी पत्रकार राज चटर्जी अपनी पुस्तक “द बॉक्सवाला एंड द मिडलमैन” में संकलित “द इबोनी बॉक्स” नामक लेख (1965 में स्टेटसमैन में प्रकाशित) में लिखते हैं कि यह (ढका गांव) करीब 300 निवासियों, जिसमें जाट, गुर्जर और जाटव थे, का एक गांव था। यहां पर केवल एक मुस्लिम जलालुद्दीन का परिवार था जो कि पेशे से बुनकर था। तब गांववालों की निगाह में पटवारी या लंबरदार से अधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति 70 साल का जाट किसान प्रताप सिंह था। वह सबसे ज्यादा जोत वाली जमीन के साथ पूरे गांव में एकलौते पक्के मकान का मालिक था। 

प्रताप सिंह के पास एक दस्तावेज था, जिसमें लिखा था कि यह बताया जाता है कि ढका गांव के जमीदार शमशेर सिंह ने मुझे और मेरे दो बच्चों को रिज पर अंग्रेज छावनी में पहुंचने तक शरण देने के साथ भोजन दिया। एजिलाबेथ कोर्टनी, 89 वीं नेटिव इन्फैन्ट्री के कैप्टन जॉन कोर्टनी की पत्नी, जून 1857। उल्लेखनीय है कि शमशेर सिंह, प्रताप सिंह के पिता थे और यह चिट्ठी परिवार की सबसे मूल्यवान थाती थी।

Saturday, December 1, 2018

Britishers in 18 century Daryaganj_अंग्रेजों के जमाने का दरियागंज

दैनिक जागरण, 01122018



यह एक कम जानी सच्चाई है कि 1857 से पहले की दिल्ली में अंग्रेज न केवल भारतीय क्षेत्र में रहे और निर्माण भी किया। जबकि भारत के दूसरे अंग्रेज प्रेसीडेंसी वाले कस्बों में इसके विपरीत नस्लीय अलगाव था, जहां अंग्रेज-भारतीय बसावटें अलग अलग थी। जबकि दिल्ली में अंग्रेज अधिकारी दरियागंज और कश्मीरी गेट के भीतर के क्षेत्र में किराए के घरों में रहते थे।

1844 के साल में कलकत्ता से सफर करते हुए दिल्ली आने वाले एक यूरोपीय सैनिक ने दिल्ली को देखने के बाद उसे भारत का सबसे बड़ा शहर बताया था। तब दरियागंज में महलों की इमारतों और राजाओं के घरों में अतिरिक्त मंजिले नहीं होती थी।

यमुना नदी के रास्ते या नाव के पुल के पार से आने वाले यात्री को आकाश चूमते गुम्बद और मीनारों के साथ पूरी दीवार के साथ लगे खजूर और बबूल के पेड़ दिखाई देते थे। जबकि 1845 में एक यात्री जे. एच. स्टोक्क्लर ने भारत की एक पुस्तिका में टिप्पणी करते हुए कहा दिल्ली में यूरोपीय व्यक्तियों के कार्य एक शानदार नहर, एक शस्त्रागार, एक चर्च, एक कॉलेज और एक प्रिंटिंग प्रेस तक सीमित है।

नारायणी गुप्ता ने अपनी पुस्तक "दिल्ली बिटविन द एंपायर्स" में लिखा है कि 1857 में पहली आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों की जीत के बाद (1858-1859) की अवधि में यह निश्चित नहीं था कि दिल्ली के मुसलमानों को जामा मस्जिद में दोबारा नमाज पढ़ने की इजाजत दी जाएगी या नहीं। तत्कालीन अंग्रेज चीफ कमिश्नर जॉन लॉरेंस का मानना था कि दिल्ली की किलेबंदी को कायम रखते हुए यहां के निवासियों को अब दंडित नहीं किया जाना चाहिए। लॉरेंस ने पंजाब इन्फैंट्री की सुविधा के लिए जामा मस्जिद को विखंडित करने के प्रस्ताव को खारिज करते हुए इन्फैंट्री को जामा मस्जिद से दरियागंज में मवेशी के तबलों में स्थानांतरित करने का आदेश दिया।

इतना ही नहीं, यह भी तय किया गया कि यूरोपीय सैनिक शहर के परकोटे के भीतर दरियागंज और महल (इसके बाद ही उसे किला कहा जाने लगा) और परकोटे की दीवार से बाहर हिंदूराव के घर में रहेंगे। इस तरह, 1857 से पहले की नागरिक और सैन्य स्थितियों को पूरी तरह उलट दिया गया।

अंग्रेज सेना के दरियागंज और किले को कब्जे में लेने से अचानक तो बदलाव आया पर यह बदलाव मोटे तौर पर राजनीतिक था। जामा मस्जिद, महल और दरियागंज में अंग्रेज सैनिकों के कब्जे, पुरानी दिल्ली में घरों के विध्वंस और अचानक ही रेलवे पुल के निर्माण ने पूरे शहर को मनमाने ढंग से दो फांक में बांट दिया। 1857 के बाद, दिल्ली में अंग्रेजों की जीत और भारतीयों की हार का नतीजा गरीबी और सामाजिक नैतिकता में गिरावट के रूप में सामने आया।

अंग्रेज सेना ने दरियागंज में रहने के साथ यमुना नदी की तरफ की परकोटे की दीवार का एक बड़ा हिस्सा ध्वस्त कर दिया। अंग्रेज सरकार ने भी इस कदम पर कोई आपत्ति नहीं जताई। जबकि दरियागंज में इमारतों और सड़कों का पुराने स्वरूप कायम रहा। सिविल लाइंस वाले अंग्रेजों की बसावट वाले इलाके से अलग भारतीयों की बसावट वाले शहर के हिस्से सहित दरियागंज में इन्फैंट्री (पैदल सेना) के बैरकों, जहां अधिक जनसंख्या रहती थी, की पेयजल व्यवस्था के लिए दिल्ली गेट से एक अलग पानी के नाले की व्यवस्था की गई।

1908 में दरियागंज से छावनी से रिज ले जाने का निर्णय लिया गया। इस योजना के तहत सैनिक छावनी को दरियागंज से रिज के उत्तर में एक स्थान (राजपुर, तिमारपुर और हिंदूराव एस्टेट) में स्थानांतरित करने की बात तय हुई।


Monday, November 26, 2018

Life of 18 century Delhi _१८ वी सदी की दिल्ली का जनजीवन

२४/११/२०१८, दैनिक जागरण 



दिल्ली एक समृद्ध ऐतिहासिक पंरपरा के साथ सघन आबादी वाला शहर था जहां महजब, जाति और मोहल्ले का जुड़ाव जगजाहिर था। "कटरा" एक तरह से बाजार का वह केंद्र था, जहां थोक का कारोबार होता था। आज की पुरानी दिल्ली, मुगलों की शाहजहांनाबाद, में अलग-अलग कटरे ऐसे केन्द्रों के आस-पास विकसित हुए, जिनके नाम किसी सूबे के रहने वाले समूहों या वस्तुओं (कश्मीरी कटरा, कटरा नील, कटरा गोकुलशाह) पर आधारित थे। जबकि कूचों के नाम, वहां बिकने वाली वस्तुओं अथवा वहां रहने वाले किन्हीं प्रसिद्ध व्यक्तियों के नाम (मोहल्ला इमली, कूचा नवाब वजीर, कूचा घासीराम) पर रखे गए थे।


जबकि अंग्रेजों से पहले दिल्ली पर मराठा आधिपत्य के समय में मालीवाड़ा, चिप्पीवाड़ा और तेलीवाड़ा जैसे मोहल्ले अस्तित्व में आएं। यह बात मराठी प्रत्यय "वाडा" से इंगित होती है। मराठी में वाडा का अर्थ रहने की जगह होता है।  


उल्लेखनीय है कि अपनी राजधानी में स्वयं प्रवेश करने में असमर्थ निर्वासित मुगल बादशाह शाह आलम II को वर्ष 1772 में मराठा सेनापति महादजी सिंधिया के नेतृत्व में मराठा सेनाएं अपने संगीनों के साये में, इलाहाबाद से दिल्ली लाईं और उसे दिल्ली की गद्दी पर फिर से बिठाया। तब लगभग सभी अधिकार मराठों के पास आ गए थे। गौरतलब है कि अंग्रेजों ने पटपटगंज की लड़ाई (वर्ष 1803) में मराठाओं को हराकर दिल्ली पर कब्जा किया था। मुगल बादशाह तो बस नाम का ही शाह था, जिसके लिए "शाह आलम, दिल्ली से पालम" की कहावत मशहूर थी।


जबकि एक संप्रभु विदेशी ताकत के रूप में अंग्रेजों के सामने दिल्ली में अनेक समस्याएं थी। फिर भी अपने शासन को अलग दिखाने की गरज से वर्ष 1815 के गजट में दावा किया गया कि "अंग्रेजों के शांतिकाल" के पहले दस साल में शहर में जमीन का भाव दोगुना हो गया था।


तब दिल्ली को खाद्द्यान्नों की आपूर्ति दोआब क्षेत्र से होती थी। दोआब यानी दो नदियों- गंगा और यमुना-के बीच का इलाका। यह "दो" और "आब" (यानि पानी) शब्दों के जोड़ से बना है। जिसमें करीब आज के उत्तर प्रदेश के पांच जिले पूरे और करीब नौ जिले आंशिक रूप से आते हैं।

यमुना नदी के पूरब यानि शाहदरा, गाजियाबाद और पटपटगंज में अनाज मंडियां थी। ये मंडियां पुरानी दिल्ली के परकोटे भीतर बनी फतेहपुरी मस्जिद के नजदीक बाजार से जुड़ी हुई थी। दिल्ली के उत्तर-पश्चिम से सब्जियों और फलों की आपूर्ति होती थी, जो कि शहर के परकोटे से बाहर लाहौर जाने वाली जीटी रोड पर स्थित मुगलपुरा की सब्जी मंडी वाले थोक बाजार में बिकते थे। गौरतलब है कि वर्ष 1780 के दशक के अंत में ही दिल्ली शहर में साठ बाजार थे और अनाज की भरपूर मात्रा में आपूर्ति होती थी। 


वर्ष 1850 के बाद शहर में नागरिक आबादी के दबाव के कारण, चांदनी चौक और फैज बाजार की दो मुख्य सड़कों, जिसके बीच म शहर की दो प्रमुख नहरें बहती थी, की लंबाई के साथ-साथ घरों का निर्माण हुआ। एक मुगल माफीदार की संपत्ति मुगलपुरा स्थित सब्जी मंडी में ऊंची दीवारों, बगीचों वाले घर बने थे।

नारायणी गुप्ता की पुस्तक "दिल्ली बिटवीन टू एंपायर्स" के अनुसार, इन घरों के दक्षिण दिशा में दरगाह नबी करीम (कदम शरीफ के करीब), तेलीवाड़ा और सिदीपुरा (जिसे वर्ष 1773 में मेहर अली सिदी को दिया गया था) थे। ये सभी जहांनुमा गांव की राजस्व संपत्ति का हिस्सा थे।


जबकि राष्ट्रीय अभिलेखागार का वर्ष 1872 के "दिल्ली क्षेत्र में जागीर और छोटे देसी प्रमुखों की संपत्ति" शीर्षक वाला मानचित्र, दिल्ली के आसपास विशाल भूसम्पतियों को दर्शाता है। किसी नाम से पहले नवाब या राजा का उपयोग एक शासक के सम्मान में लिए जाने वाली उपाधि थी। यह बात समझने वाली है कि मुगल बादशाह जमीन के अलावा व्यक्तियों को उनकी सेवाओं और उपलब्धियों के लिए खिताब भी देते थे।

दिल्ली की संस्कृति उसकी परकोटे की दीवारों के भीतर निहित थी। प्रकृति के नजदीक होने की इच्छा एक व्यक्ति को शहर के बाहर नहीं देती थी क्योंकि ऐसा माना जाता था कि प्रकृति खुद बागों और शहर की आबोहवा में मौजूद थी। "अकबर-ए-रंगीन" किताब में सैयद मोइनुल हक ने लिखा है कि दिल्ली खास तौर अपनी आदमियत और नफासत भरे शहरी जीवन के लिए तारीफ-ए-काबिल जगह है।

Saturday, November 17, 2018

Begum Samru Kothi_बेगम समरू की कोठी




पुरानी दिल्ली के चांदनी चौक  में एक इलाका आज भी कोठी बेगम समरू के नाम से प्रसिद्ध है। स्टेट बैंक आॅफ इंडिया के पीछे एक विशाल भवन बना हुआ है, जिसे 19वीं शताब्दी की शुरुआत में बेगम समरू (1750-1836)  ने अपने रहने के लिए बनवाया था।

एक साधारण सी नाचने वाली के घर में जन्मी यह बेहद खूबसूरत मुसलमान लड़की फरजाना कैर्से इंसाई बनी, कैसे एक रियासत की बेगम बनी, यह भारत के इतिहास की एक दिलचस्प कहानी है। 1765 में फरजाना की दिल्ली में वॉल्टर रेनहार्ड सौम्ब्रे से आंखे चार हुई और वह उसकी हो गई। सौम्ब्रे भाड़े पर लड़ने वाला यूरोपीय सैनिक था। जिसने अंग्रेजों के खिलाफ होने के कारण जाट और बाद में मुगलों की ओर से अनेक लड़ाईयां लड़ी।

1776 में मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय  ने सौम्ब्रे को शाही सनद देते हुए सरधना की जागीर दी। सौम्ब्रे के साथ रहने के कारण फरजाना को लोग सौम्ब्रे के अपभ्रंश "सुमरू" से बुलाने लगे। बेगम तो उसके नाम के साथ था ही।

1778 में वाॅल्टर रिन्हाॅर्ड की मौत के बाद फरजाना ने बेगम समरू के रूप में सौम्ब्रे की सम्पन्न जागीर सरधना का 58 साल तक इंतजाम अपने हाथ में रखा। इस तरह बेगम समरू ने सरधना में एक लंबा और रंगभरा जीवन व्यतीत किया। सरधना में उसका बनवाया वास्तुकला की दृष्टि से बना एक बेजोड़ गिरजाघर उसकी याद दिलाता है। उल्लेखनीय है कि सरधना की जागीरदार बनने के बाद बेगम समरू ने कैथोलिक ईसाई मत अपनाते हुए अपना नाम जोआना (योहाना) रख लिया था।

मुगल बादशाह शाह आलम II ने 1806 में पुरानी दिल्ली में जहांआरा के बेगम का बाग के पूर्वी छोर का हिस्सा बेगम समरु को कोठी (हवेली) बनवाने के लिए दिया था। एक मोहल्ला इस स्थान को शेष बाग से अलग करता था। तब यह कोठी बाग के ठीक बीच में स्थित थी, जहां पर फूल और फलों के पेड़ लगे हुए थे। थॉमस मेटकाफ की "शाही दिल्ली के संस्मरण" नामक पुस्तक में कोठी के चित्रों को देखने से पता चलता है कि कोठी के साथ बनी इमारतों में बेगम के नौकरों के लिए घर, सैनिकों के लिए बैरकों के साथ एक अहाता, एक बड़ा कुआं और एक हम्माम बना हुआ था। अंग्रेजों की दिल्ली में बेगम समरू की कोठी अपने भव्य आयोजनों के लिए प्रसिद्ध थी। यही कारण है कि तब के ईस्ट इंडिया कंपनी के बड़े से बड़े पदाधिकारी बेगम का आतिथ्य स्वीकार करने में अपार आनन्द की अनुभूति अनुभव करते थे। 


बेगम समरू की मौत के बाद कोठी का मालिक उनका गोद लिया बेटा डाइस सौम्ब्रे बना। वह यहां कुछ समय रहने के बाद स्थायी रूप से इंगलैंड चला गया।

1847 में कोतवाली के करीब होने के कारण इस खाली कोठी का प्रशासनिक सुविधा के लिए बतौर कचहरी उपयोग होने लगा। उसके बाद तब के दिल्ली बैंक के मालिक और धनी हिंदू बैंकर लाला चूनामल ने इस कोठी को खरीदा। इस तरह यह आवासीय कोठी से एक बैंक में तब्दील हो गई। तब इसके अंग्रेज बैंक मैनेजर बेर्सफोर्ड इसके परिसर में ही अपने परिवार के साथ रहते थे।
1857 में देश की पहली आजादी की लड़ाई में बैंक होने के कारण यह कोठी स्वतंत्रता सेनानियों के निशाने पर थी। इसी कारण यह कोठी लूट-आगजनी का शिकार हुई। जब अंग्रेज सेना ने सिंतबर 1857 में दिल्ली पर दोबारा कब्जा किया तो मुगल बादशाह को लालकिले में ले जाने से पहले कुछ समय यहां कैद रखा गया। 1859 के बाद इस कोठी में दोबारा बैकिंग का कामकाज शुरू हुआ पर इस बार लाॅयड बैंक के नाम से। साथ ही बैंक तक पहुंचने के लिए एक गली का रास्ता बनाया गया और दुकानें खुलीं, जहां कोठी के सामने बाग हुआ करता था। इतना ही नहीं, 1883-84 के दिल्ली के गजट में यहां के बाग को देखने लायक स्थानों में से एक बताया गया। 1922 में लॅायड बैंक ने यह संपत्ति तब की दिल्ली के नामी वकील मुंशी शिवनारायण को बेच दी। 1940 में मुंशी ने इसे एक व्यापारी लाला भगीरथ को बेच दिया। आज का भागीरथ प्लेस इन्हीं लाला भगीरथ के नाम पर है जहां दिल्ली का सबसे बड़ा बिजली उपकरणों का बाजार है।


Thursday, November 15, 2018

Mahtama Gandhi_Young India



"To be true to my faith, I may not write in anger or malice. I may not write idly. I may not write merely to excite passion. The reader can have no idea of the restraint I have to exercise from week to week in the choice of topics and my vocabulary. It is training for me. It enables me to peek into myself and to make discoveries of my weaknesses. Often my vanity dictates a smart expression or my anger a harsh adjective. It is a terrible ordeal but a fine exercise to remove these weeds."

-Mahtama Gandhi, in Young India

Sunday, November 11, 2018

Meer_Delhi_मीर_दिल्ली

मीर





बात की तर्ज़ को देखो, तो कोई जादू था. पर मिली ख़ाक़ में क्या सहर बयानी उसकी.. मर्सिये दिल के, कई कह के दिये लोगों को. शहरे-दिल्ली में है, सब पास निशानी उसकी.
-‘मीर’


Saturday, November 10, 2018

Delhi Famine in Tuglagh Era_तुगलककालीन दिल्ली का अकाल

10/11/2018, दैनिक जागरण 








दिल्ली का मध्यकालीन बादशाह मुहम्मद बिन तुगलक (1324-51) अपने अनेक प्रयोगधर्मी निर्णयों के कारण चर्चित रहा। उसके व्यक्तित्व की जल्दबाजी और बेसब्री की प्रवृति के कारण उसे "बुद्धिमान मूर्ख राजा" कहा जाता था। अंग्रेज इतिहासकार एम. एम्फिस्टन के अनुसार मुहम्म्द बिन तुगलक में पागलपन का कुछ अंश था जबकि आशीर्वाद लाल श्रीवास्तव के अनुसार उसमें "विरोधी तत्वों का मिश्रण" था।

उल्लेखनीय है कि मुहम्मद तुगलक के समय दिल्ली में (सन् 1344) भयंकर अकाल पड़ा था। 1912 के "दिल्ली डिस्ट्रिक्ट गजेटियर" के अनुसार, दिल्ली में अकाल का इतिहास मुहम्मद तुगलक के समय तक पहुंचता है जिसकी फिजूलखर्ची के कारण 1344 ईस्वी का अकाल पड़ा, जिसमें, कहा जाता है कि मनुष्यों ने एक दूसरे को खाया। 

इब्नबतूता की भारत यात्रा या चौहदवीं शताब्दी का भारत पुस्तक के अनुसार, भारत वर्ष और सिंधु प्रांत में दुर्भिश पड़ने के कारण जब एक मन गेहूं छह दीनार में बिकने लगे। फ़रिश्ता तथा बदाऊंनी के अनुसार हिजरी सन् 742 में सैयद अहमदशाह गवर्नर (माअवर-कनार्टक) का विद्रोह शांत करने के लिए, बादशाह के दक्षिण ओर कुछ एक पड़ाव पर पहुँचते ही यह  दुर्भिश प्रारंभ हो गया था। बादशाह के दक्षिण से लौटते समय तक जनता इस कराल-अकाल के चंगुल में जकड़ी हुई थी। उल्लेखनीय है कि उत्तरी अफ्रीका का निवासी इब्न-बतूता चौहदवीं सदी में भारत आया और आठ वर्षों तक मुहम्मद तुगलक के दरबार में रहा। तुगलक ने उसे दिल्ली का काजी नियुक्त किया और अपना दूत बनाकर चीन भेजा।

तुगलक के शासनकाल के आरंभ में ही गंगा के दोआब में एक गंभीर किसान विद्रोह हो चुका था। किसान गांवों से भाग खड़े हुए थे तथा तुगलक ने उनको पकड़कर सजा देने के लिए कठोर कदम उठाए थे। गौरतलब है कि दिल्ली के तख्त पर बैठने के कुछ दिन बाद तुगलक ने दोआब क्षेत्र में भू राजस्व कर में वृद्वि की। इतिहासकार बरनी के अनुसार बढ़ा हुआ कर, प्रचलित करों का दस तथा बीस गुना था। किसानों की भूमि कर के अतिरिक्त घरी, अर्थात गृहकर तथा चरही अर्थात चरागाह कर भी लगाया गया। प्रजा को इन करों से बड़ा कष्ट हुआ। 

दुर्भाग्य से इन्हीं दिनों अकाल पड़ा और चारों ओर विद्रोह की अग्नि भड़क उठी। शाही सेनाओं ने विद्रोहियों को कठोर दंड दिए। इस पर लोग खेती छोड़कर जंगलों में भाग गए। खेत वीरान हो गए और गांवों में सन्नाटा छा गया। शाही सेना ने लोगों को जंगलों से पकड़कर उन्हें कठोर यातनाएं दीं। इन यातनाओं से बहुत से लोग मर गए। यह मुहम्मद की अंतिम असफल योजना थी। तुगलक के बारे में इब्नेबतूता ने लिखा कि उसके दो प्रिय शौक थे, खुशफहमी में उपहार देना और क्रोध में खून बहाना। 

जाॅन डाउसन की पुस्तक "हिस्ट्री आॅफ इंडिया बाॅएं इट्स ओन हिस्टोरियंस" के अनुसार, माना जाता है कि कम या अधिक समूचा हिंदुस्तान (1344-45 का भारत) अकाल की चपेट में था, खासकर दक्कन में उसकी मार ज्यादा तकलीफदेह थी। 

"मध्यकालीन भारत" पुस्तक के लेखक-इतिहासकार सतीशचन्द्र के अनुसार, एक भयानक अकाल ने, जिसने इस क्षेत्र को छह वर्षों तक तबाह रखा, स्थिति को और बिगाड़ा। दिल्ली में इतने लोग मरे कि हवा भी महामारक हो उठी। यहां तक कि सुल्तान दिल्ली छोड़कर करीब 1337-40 तक स्वर्गद्वारी नामक शिविर में रहा जो दिल्ली से 100 मील दूर कन्नौज के पास गंगा के किनारे स्थित था।


Thursday, November 8, 2018

White Lightning_Famine_सफेद बिजली_दुर्भिक्ष




संस्कृत की एक स्मृति में लिखा है कि 

यदि सफेद बिजली चमके तो दुर्भिक्ष आता हैः 


वाताय कपिला विद्युत्, आतपायतिलोहिनी, पीता वर्षाय विज्ञेया, दुर्भिक्षाय सिता भवेत।


Saturday, November 3, 2018

Reality of Lakshmi gold coin of muhammad ghori_मोहम्मद गोरी के लक्ष्मी के सिक्के का सच

दैनिक जागरण, ३ नवम्बर २०१८



भारतीय साहित्य के इतिहास में सिक्कों का एक विशेष स्थान है। इनके द्वारा ही भारतीय इतिहास की अनेकों कड़ियों को जोड़ने में पुरातत्ववेता सफल हुए हैं। यह सिक्के अन्य प्रयोजनों के अतिरिक्त, प्राचीन भारतीयों की उपासना की परम्परा को भी समुचित रूप में दर्शाते हैं।


दिल्ली में विदेशी मुस्लिम शासनकाल तराइन की दूसरी लड़ाई (1192) में अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान की हार और अफगान हमलावर मोहम्मद गोरी की जीत के साथ शुरू हुआ। गोरी के निसंतान होने के कारण दिल्ली में राज की जिम्मेदारी गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक ने संभाली।


उल्लेखनीय है कि सिक्का, फरमान और खुतबा (सिक्के, आदेश और प्रार्थना घोषणा) मध्ययुगीन मुस्लिम काल के ऐतिहासिक शोध की दृष्टि से साक्ष्य के आरंभिक बिंदु हैं। अगर इस हिसाब से देखें तो बात ध्यान आती है कि दिल्ली में गोरी काल के सिक्कों पर पृथ्वीराज के शासन वाले हिंदू देवी-देवताओं के प्रतीक चिन्हों और देवनागरी को यथावत रखा। गोरी ने दिल्ली में पाँव जमने तक पृथ्वीराज चौहान के समय में प्रचलित प्रशासकीय मान्यताओं में विशेष परिवर्तन नहीं किया। यही कारण है कि हिंदू सिक्कों में प्रचलित चित्र अंकन परंपरा के अनुरूप, इन सिक्कों में लक्ष्मी और वृषभ-घुड़सवार अंकित थे।

उदाहरण के लिए कुछ सिक्कों के चित में वृषभ और पट में घुड़सवार का अंकन है और पृथ्वी देव के स्थान पर मोहम्मद बिन साम का नाम उकेर दिया गया है। कुछ अन्य सिक्कों पर चित देवनागरी लिपि में चारों ओर ‘श्री हम्मीर’, ‘श्री महमूद साम’ तथा पट पर नन्दी की मूर्ति अंकित है। हम्मीर शब्द का अर्थ 'अमीर' है।

गौरतलब है कि शुरुआत में, अफगान विजेता ने एक तरफ लक्ष्मी और दूसरी तरफ नागरी लिपि में अपने नाम के साथ सोने के सिक्के जारी किए। गोरी का एक सिक्का ऐसा ही सिक्का, जिसके चित में बैठी हुई लक्ष्मी का अंकन है तो पट में देवनागरी में मुहम्मद बिन साम उत्कीर्ण है, दिल्ली में भारतीय पुरातत्व विभाग के संग्रहालय में सुरक्षित है। इस सिक्के का वजन 4.2 ग्राम है।
गोरी ने हिन्दू जनता को नई मुद्रा के चलन को स्वीकार न करने के “रणनीतिक उपाय” के रूप में हिन्दू शासकों,चौहान और तोमर वंशों, के सिक्कों के प्रचलन को जारी रखा। उस समय भी हिन्दी भाषा, जनता की भाषा थी और गोरी अपने शासन की सफलता के लिये भाषा का आश्रय लेना चाहता था। वह हिन्दू जनता को यह भरोसा दिलाना चाहता था कि यह केवल व्यवस्था का स्थानान्तरण मात्र है।

गोरी ने दूसरे चरण में, थोड़े समय के लिए एक तरफ अरबी अक्षर और दूसरी पर नागरी लिपि वाले सिक्के और अंत में दोनों तरफ अरबी अक्षरों वाले सिक्के जारी किए। इस तरह, दिल्ली में विदेशी मुस्लिम शासन की जड़े मजबूत होने के साथ ही सुलेख वाली कुफिक शैली में अरबी भाषा वाले सिक्कों से हिंदू जनता को बता दिया गया कि मोहम्मद गोरी नया हुक्मरान है, जिसका महजब इस्लाम है।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने दिल्ली की महरौली में लाल कोट (या किला राय पिथौरा) के खंडहरों की दो बार खुदाई की थी। पहली बार, 1991-92 में और दूसरी बार 1994-95 में। यहां मिले 287 मध्यकालीन सिक्कों के ऐतिहासिक महत्व के अध्ययन की रिपोर्ट के अनुसार, इस खुदाई के दौरान जमीन की विभिन्न परतों में चौहान और तोमर शासकों, मामलुक (13 वीं शताब्दी), और खिलजी (1290-1320) और तुगलक (14 वीं शताब्दी) सुल्तानों के समय के सिक्के पाए गए। यह अध्ययन भी इस बात को स्वीकारता है कि नए (विदेशी मुस्लिम) शासकों ने पूर्व प्रचलित सिक्कों का चलन बनाए रखा।







Saturday, October 27, 2018

City of Gates_Delhi_दरवाजों वाला शहर दिल्ली



मशहूर है, दिल्ली 17 बार बसी है। हिंदू काल की तीन दिल्ली, मुस्लिम काल की बारह दिल्ली और ब्रिटिशकाल की दो दिल्ली। जितनी बार दिल्ली बसाई गई उतनी ही बार-केवल ब्रिटिशकाल को छोड़कर-इसमें परकोटे या फसीलें बनाई गई।


इन फसीलों में बनाए गए दरवाजों की भी संख्या कम नहीं रही।

प्राचीनकाल में राजधानी की सुरक्षा के लिए सामरिक दृष्टि से फसील के भीतर मजबूत दरवाजे बनाए जाते थे, जिनका प्रवेश  मार्ग प्रायः अंग्रेजी के 'एस' अक्षर की तरह घुमावदार होता था। दिल्ली के बहुत से दरवाजे, जो ऐतिहासिक दृष्टि से प्रसिद्ध थे, पुनर्निर्माण और विकास की योजनाओं के तहत तोड़े जा चुके हैं।

जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व में उनकी पहल पर ही आसफअली रोड के किनारे-किनारे बनी फसील का कुछ हिस्सा तोड़ने से बच गया। इसी तरह, तुर्कमान दरवाजा न केवल ध्वस्त होने से रह गया, वरन उसका जीर्णाेद्वार भी कर दिया गया।

दिल्ली के सबसे पुराने दरवाजों में, शहर के बाहर 1193 पूर्व के काल में बनाया गया निगमबोध दरवाजा है। इस दरवाजे को दिल्ली विकास प्राधिकरण ने यमुना तट को सुन्दर बनाने की योजना के अन्तर्गत जीर्णाेद्वार कर पत्थरों से बनवाया। इस पर गीता के द्वितीय श्लोक भी उत्कीर्ण किए गए जो आत्मा की अमरता को सिद्व करते हैं।

दिल्ली का अंतिम हिंदू राज-परिवार रायपिथौरा का था। इसे ही पृथ्वीराज कहते थे। पृथ्वीराज चैहान ने 1180 से 1186 के बीच रायपिथौरा का किला बनवाया। रायपिथौरा की दिल्ली के बारह दरवाजे थे, लेकिन तैमूरलंग ने अपनी आत्मकथा में इनकी संख्या दस बताई है। इनमें से कुछ बाहर की तरफ खुलते थे और कुछ भीतर की तरफ। इन दरवाजों को अब समय की लहर ने छिन्न-भिन्न कर दिया है।

यजदी के "जफरनामे" में 18 दरवाजों का जिक्र है। इनमें से कुछ दरवाजों के नाम इस प्रकार थे-दरवाजा हौजरानी, बुरका दरवाजा, गजनी दरवाजा (इसका नाम राय पिथौरा के समय में रंजीत दरवाजा था), मौअज्जी दरवाजा,  मंडारकुल दरवाजा, बदायूं दरवाजा, दरवाजा हौजखास, दरवाजा बगदादी, बाकी दो दरवाजों के नाम प्रायः नहीं मिलते। ये सभी दरवाजे वर्तमान महरौली क्षेत्र में थे।

महरौली से तुगलकाबाद की ओर जाने वाले मार्ग पर लाडो सराय से दक्षिण हुमायूं दरवाजा था।

गजनी दरवाजा या रंजीत दरवाजा 17 फुट चौड़ा था। इसमें दरवाजा उठाने या गिराने के लिए सात फुट ऊंचा पत्थर का खम्भा था, जो आज भी मौजूद है।

रायपिथौरा के किले की फसील का जो हिस्सा फतेहबुर्ज पर खत्म होता था, उसी से यह दरवाजा है। फतेहबुर्ज और सोहनबुर्ज के बीच में एक दरवाजा था जिसका अब कोई चिन्ह नहीं है। इसी क्षेत्र में अनंगपाल (हिंदूकाल की दूसरी दिल्ली बसाने वाला राजा) ताल के पास ही भिंड दरवाजा था और यहीं से थोड़े फासले पर फसील उधम खां के मकबरे पर समाप्त होती थी।

मुस्लिम और पठान काल की दिल्ली के जो दरवाजे मशहूर रहे, उनमें अलाई दरवाजा (1310), हुमायूँ दरवाजा, गजनी दरवाजा, बगदाद दरवाजा (सीरी महल और हौजखास के बीच), जेल दरवाजा, दिल्ली दरवाजा (षाहजहां-काल 1636-48 के बीच निर्मित), अजमेरी दरवाजा, लाहौरी दरवाजा, काबुली दरवाजा (जो वर्तमान नया बाजार के छोर पर तीस हजारी की तरफ था), सलीम दरवाजा (1622), खिजरी दरवाजा (कुतुब के पास अलाउदीन खिलजी द्वारा निर्मित), तुर्कमान दरवाजा, मोरी दरवाजा (डफरिन पुल के आगे जहां आज निकोलसन रोड के पास फसील टूट हुई है) मशहूर है।


चांदनी चौक में वर्तमान दरीबा कलां बाजार का प्रवेश द्वार किसी समय में खूनी दरवाजा नाम से मशहूर था। यहीं तैमूरलंग के समय में और बाद में ब्रिटिश शासन के आंरभिक काल में कई देश भक्तों का कत्ल हुआ।

इसी तरह दिल्ली दरवाजे से बाहर बने जेल दरवाजे (खूनी दरवाजे) पर भी अब्दुल रहीम खान खाना के बेटों के सिर काटकर लटकाए गए थे। एक दिल्ली दरवाजा, शेरशाही का दरवाजा भी कहलाता था। इसका निर्माण 1541 के आसपास हुआ था।

लालकिले से जामा मस्जिद की ओर खुलने वाले दरवाजे का नाम भी शाहजहां ने दिल्ली दरवाजा रखा था। चांदनी चौक की तरफ खुलने वाले दरवाजे का नाम था-लाहौरी दरवाजा। ये दोनों नाम अभी तक प्रचलित हैं।

कश्मीरी दरवाजे से शुरू करें तो इन दरवाजों की स्थिति इस प्रकार थी मोरी दरवाजा (1867 में तोड़ दिया गया), काबुली दरवाजा (तोड़ दिया गया), लाहौरी दरवाजा, अजमेरी दरवाजा, तुर्कमान दरवाजा, दिल्ली दरवाजा, खैराती दरवाजा (वर्तमान अंसरी रोड पर घटा मस्जिद के साथ था), राजघाट दरवाजा (वर्तमान नई कोतवाली के समीप था), कलकत्ती दरवाजा (जहां आज किले के पूर्वी छोर की तरफ रेलवे लाइन के नीचे दो सुरंग मार्ग जैसे रह गए हैं), केलाघाट दरवाजा  (उत्तर पश्चिम में यमुना के पास था-तोड़ दिया गया), निगमबोध दरवाजा, पत्थर घाटी दरवाजा (तोड़ दिया गया) और बदर रौ दरवाजा।

आज की बदली हुई परिस्थितियों और सुरक्षा व्यवस्था में न तो परकोटा-फसीलों का स्थान रह गया है, न ही दरवाजों का। बहरहाल, दिल्ली के पुराने इतिहास को इन दरवाजों की सहायता से मुखर अवश्य किया जा सकता है।



Friday, October 26, 2018

In a free state_v s naipual_वी. एस. नायपॉल_इन ए फ्री स्टेट




दरअसल हम जिंदगी में खुद से ही कहे झूठ का दंड भुगतते हैं!

-वी. एस. नायपॉल (इन ए फ्री स्टेट में)


Monday, October 22, 2018

British Government: Vivekananda's influence on Indian Revolutionaries

The British Reaction

In relevant historical accounts, secret Government papers, published reports and reminiscences of revolutionary leaders, we find the tremendous influence exerted by Vivekananda on the revolutionary movement. His writings were widely read by the militants. Those were practically their textbooks; recruitments to revolutionary parties were made from the members of the Ramakrishna Mission, and the magic name of Vivekananda was used for this purpose. The government, noticing that many portions of Vivekananda’s writings could be used for radical politics, thought of prohibiting the publication of Swamiji’s letters and banning the Ramakrishna Mission. This was not surprising, as Vivekananda himself was in his lifetime regarded a suspicious character and was closely watched and harassed. The British Criminal Investigation Department complained at the time that whenever they went to search a revolutionary’s house, they found the books of Vivekananda.

Here are two extracts from the secret police reports:

“... The teachings of the Vedanta Society tend towards Nationalism in politics. Swami Vivekananda himself generally avoided the political side of the case, but by many Hindu Nationalists he is regarded as the Guru of the movement. ... It is obvious that with very little distortion this teaching [of Vivekananda] was a powerful weapon in the hands of an idealist revolutionary like Aurobindo Ghosh.… Several passages of the teachings of Swami Vivekananda are pregnant with sedition, that their potentialities for evil have been fully realized and taken advantage of by the revolutionary party, that the various recognized maths are resorted to by political refugees, and that bogus ashramas, which are nothing but centres for the dissemination of revolutionary doctrines, have sprung up with alarming rapidity in eastern Bengal.”

Subhas Chandra Bose, whom the British considered the most dangerous man in India, and who embodied the entire militant revolutionary spirit of India, wrote time and again that his life was molded under Vivekanandas influence and urged the youth to follow Swamiji’s ideal. He said of Vivekananda: “Reckless in his sacrifice, unceasing in his activity, boundless in his love, profound and versatile in his wisdom, exuberant in his emotions, merciless in his attacks, but yet simple as a child.”

Saturday, October 20, 2018

Thakkar Pheru_Delhi Sultante_ठक्कर फेरू की जुबानी दिल्ली सल्तनत की कहानी

दैनिक जागरण_२० १० २०१८






एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी और विद्वान ठक्कर फेरू दिल्ली सल्तनत के समय में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। वे सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल (1296-1316) में दिल्ली में विभिन्न पदों पर रहे। उन्होंने अपने सक्रिय अनुभव से कुछ ग्रंथों (रत्न परीक्षा, गणितसार, द्रव्य परीक्षा, युग प्रधान चतुष्पदिका, वास्तुसार, ज्योतिषसार, गणितसार कौमुदी, धातूत्पत्ति और भूगर्भशास्त्र) की रचना की थी। ये ग्रंथ, तत्कालीन भारतीय ज्ञान-विज्ञान, संस्कृति, वस्तुव्यापार, शिल्प&स्थापत्य एवं जन संस्कृति पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं।

ठक्कर फेरू श्रीमाल वंश के धाधिया गोत्रीय श्री कालिय के पुत्र चंद के पुत्र थे। ये मूल रूप से कन्नाणा निवासी थे फिर राजकार्य से दिल्ली में भी रहने लगे थे। शाही खजाने के रत्नों के अनुभव के आधार पर जिस प्रकार उन्होंने प्राकृत भाषा में "रत्न परीक्षा" की रचना की उसी प्रकार "ढिल्लिय टंकसाल कज्जठिए" अर्थात् दिल्ली टंकसाल के गर्वनर के पद पर रहकर प्राचीन अर्वाचीन सभी मुद्राओं का अनुभव प्राप्त कर प्राकृत में ही "द्रव्य परीक्षा" लिखी। ठक्कर फेरू ने अपने भाई और पुत्र, जिसका नाम हेमपाल था, के ज्ञानार्थ इसकी रचना 1375 में दिल्ली में की थी। इस रचना में भाई का उल्लेख तो है पर नाम नहीं लिखा है।

"द्रव्य परीक्षा" में ठक्कर फेरू ने दिल्ली की टकसाल अधिकारी के रूप हुए अपने अनुभवों को संचित किया है। इसकी प्रारंभिक तीन गाथाओं में पहली में महालक्ष्मी को नमस्कार-मंगलाचरण, दूसरी व तीसरी में दिल्ली की टकसाल के अधिकारी के रूप में रहकर भ्राता और पुत्र के लिए इस ग्रन्थ की रचना का संकल्प करते हुए चौथी गाथा में उसके पहले प्रकरण में चासनी का दूसरे में स्वर्ण-रौप्य शोधने का तीसरे में मूल्य और चौथे में सर्व प्रकार की मुद्राओं का वर्णन करूंगा लिखा है। गाथा 5 से 45 तक इसी तरह विविध प्रक्रियाएं वर्णित हैं।

उसने "द्रव्य परीक्षा" ग्रन्थ का निर्माण 1375 में किया। कवि ने स्वयं प्रारंभिक दूसरी गाथा में "ढिल्लिय टंकसाल कज्जठिए" वाक्य द्वारा इसे व्यक्त किया है। द्रव्य परीक्षा की गाथा 139 में ठक्कर फेरू ने लिखा है कि अब मैं राजबन्दिछोड़ विरूद वाले सुलतान कुतुबुद्दीन की नाना प्रकार की चौरस व गोल मुद्राओं का मोल तोल कहता हूँ।

इस ग्रन्थ में चार अध्यायों में 149 गाथा हैं। एक से चार तक मंगलाचरण है। तत्पश्चात चासनी, चासनी शोध विधि, उपादान धातुओं में सीसा, चांदी, सोना आदि की चासनी, मिश्रदल शोधन, रौप्यवनमालिका, कनक वनमालिका, स्वर्ण व्यवहार, ह्नास्य, मौल्य, तौल आदि धातु की पूर्व प्रक्रिया का वर्णन 50 गाथा तक किया गया है। इसके बाद मुद्राप्रकरण प्रारम्भ होता है।

मुद्रा प्रकरण में ठक्कर फेरू ने तत्कालीन प्राप्य सैकड़ों प्रकार की रौप्य मुद्रा, स्वर्ण मुद्रा, त्रिधातु-मिश्रित-मुद्रा, द्विधातु मुद्रा, खुरासानी मुद्रा, अठनारी मुद्रा, गूर्जरी मुद्रा, मालवी मुद्रा, नलपुर मुद्रा, चंदेरिकापुर मुद्रा, जालंधरी मुद्रा, और दिल्ली मुद्रा में पहले तोमर राजाओं की और बाद में 55 प्रकार की तत्कालीन मुसलमानी मुद्राओं का स्वरूप देकर अलाउद्दीन सुलतान आदि की विविध मुद्राओं का वर्णन किया है। फिर सोना, चांदी और तांबे की अनेक मुद्राओं का स्वरूप बताया गया है।

111वीं गाथा में दिल्ली के तोमर राजपूत राजाओं की चार प्रकार की मुद्राओं का वर्णन है। ये दिल्ली के अंतिम हिंदू राजा थे जिनके उत्तराधिकारी पृथ्वीराज चौहान के पश्चात मुसलमानी सल्तनत का अधिकार हो गया था। ये मुद्राएं अनंगपलाहे, मदनपलाहे पिथउपलाहे और चाहड़पलाहे चार प्रकार की थीं। दुर्भाग्य की बात है कि इन राजाओं के सम्बन्ध में भारतीय इतिहास अब तक मौन-सा है। गाथा 112 से 133 तक मुसलमानी शासन में वर्णित मुद्राओं का वर्णन है। ये विविध प्रकार की और नाना तोल-मोल की थीं।

गाथा 134 से 136 तक ठक्कर फेरू ने अपने समय के सुल्तान अलाउद्दीन की मुद्राओं का वर्णन करते हुए बतलाया है कि उसकी छगाणी मुद्राएं दो प्रकार की व इगाणी भी दो प्रकार की है। इगानी मुद्रा में 95 टांक तांबा और 5 टांक चांदी एक सौ मुद्राओं में है। वह एक ही प्रकार की है और राजदरबार में तथा सार्वजनिक व्यवहार में इसी का प्रचलन है।

"द्रव्य परीक्षा" को केवल भारतीय साहित्य में ही नहीं विश्व साहित्य में भी महत्वपूर्ण माना जाता सकता है। प्राचीन मुद्रा-सिक्कों के सम्बन्ध में यत्र-तत्र स्फुट वर्णन प्राचीन साहित्य में भले ही पाये जाएं पर सात सौ वर्ष पूर्व स्वतंत्र रूप से रचित इस पुस्तक का अपना विशिष्ट महत्व है।

Friday, October 19, 2018

Ram tumhara naam_Ramdhari Singh Dinkar_राम तुम्हारा नाम_रामधारी सिंह दिनकर

चित्र साभार: राजा रवि वर्मा (वनवासी राम)



राम, तुम्हारा नाम कंठ में रहे,
हृदय, जो कुछ भेजो, वह सहे,
दुख से त्राण नहीं मांगूं।


मांगू केवल शक्ति दुख सहने की,
दुर्दिन को भी मान तुम्हारी दया
अकातर ध्यान मग्न रहने की।


देख तुम्हारे मृत्यु-दूत को डरूं नहीं,
न्योछावर होने में दुविधा करूं नहीं।
तुम चाहो, दूँ वही,
कृपण हौ प्राण नहीं मांगू।


रामधारी सिंह दिनकर (राम, तुम्हारा नाम)



Sunday, October 14, 2018

Discovery of India_Gandhi_Nehru_Railways_India_मोहनदास करमचंद गाँधी_भारत खोज_रेल_ नेहरु





मोहनदास करमचंद गाँधी ने भारत आने के बाद अपने राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले की सलाह पर अगले दो वर्षों तक भारत की यात्रा की थी, जिसमें उन्होंने काफी हिस्सा रेल से तय किया था. 


प्रसिद्ध हिंदी लेखक अमृत लाल नागर ने जवाहर लाल नेहरु की "डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया" किताब की समीक्षा करते हुए लिखा था कि यह "भारत की खोज" नहीं बल्कि नेहरु की "भारत" की खोज है.


Saturday, October 13, 2018

Delhi's contribution in early hindi cinema_आरंभिक सिनेमा-साहित्य का दिल्ली सूत्र






सिनेमा और साहित्य को लेकर दिल्ली के संबंध की बात कम ही ध्यान में आती है। जबकि हकीकत इससे बिलकुल जुदा है। हिंदी की पहली साप्ताहिक फिल्मी पत्रिका “रंगभूमि” वर्ष 1932 में पुरानी दिल्ली के कूचा घासीराम से छपी। इस पत्रिका के प्रकाशक, त्रिभुवन नारायण बहल और संपादक नोतन चंद-लेखराम थे। वही 1934 के साल में दिल्ली के ऋषभचरण जैन ने राजधानी से “चित्रपट” के नाम से एक फिल्म पत्र प्रकाशित किया। सात रूपए के सालाना चंदे वाले इस फिल्म पत्र की एक प्रति दो आने की होती थी। उनकी हिंदी के मशहूर लेखकों जैसे प्रेमचंद, जैनेंद्र कुमार और चतुरसेन शास्त्री खासी दोस्ती थी। यही कारण था कि “चित्रपट” में इनकी रचनाएं प्रकाशित होती थी।

हिंदी सिनेमा में करीब 1500 गानों को गाने वाले मुकेश (चंद माथुर) का जन्म 22 जुलाई 1923 को दिल्ली के चांदनी चौक में ही हुआ था। इंजीनियर पिता लाला जोरावर चंद माथुर और मां चांदरानी की संतान मुकेश प्रसिद्व गायक अभिनेता कुंदनलाल सहगल की तरह गायक-अभिनेता बनने का ख्वाब देखा करते थे। दसवीं तक पढ़ाई करने के बाद स्कूल छोड़ने वाले मुकेश ने दिल्ली लोक निर्माण विभाग में बतौर सहायक सर्वेयर सात महीने तक नौकरी की। उनके दूर के रिश्तेदार मशहूर अभिनेता मोतीलाल ने उनकी आवाज सुनी और प्रभावित होकर वह उन्हें 1940 में बंबई ले आए। मुकेश ने नेशनल स्टूडियोज की फिल्म “निर्दोष” (1941) में अभिनेता-गायक के रूप में संगीतकार अशोक घोष के निर्देशन में अपना पहला गीत “दिल ही बूझा हुआ हो तो फसले बहार क्या” गाया। विनोद विप्लव “हिंदी सिनेमा के 150 सितारे” (प्रभात प्रकाशन) शीर्षक पुस्तक में लिखते हैं कि मुकेश को कामयाबी मिली निर्माता मजहर खान की फिल्म  “पहली नजर” (1945) के गीत “दिल जलता है तो जलने दे” से। जो कि संयोग से मोतीलाल पर ही फिल्माया गया था। अनिल विश्वास के संगीत में निर्देशन में डाक्टर सफदर आह सीतापुरी की इस गजल को मुकेश ने सहगल की शैली में ऐसी पुरकशिश आवाज में गाया कि लोगों को भ्रम हो जाता था कि इसके गायक सहगल हैं। इसी गीत को सुनने के बाद मुकेश को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था।

गौरतलब है कि सदाबहार पार्श्व गायक मुकेश को फिल्मी दुनिया की राह दिखाने वाले मोतीलाल (राजवंश) भी दिल्ली के प्रतिष्ठित परिवार से संबंध रखते थे। 1935 में बनी “शहर का जादू” उनकी पहली फिल्म थी। हिंदी सिनेमा के स्वाभाविक अभिनय करने वाले आरंभिक कलाकारों में से एक मोतीलाल 1940 के दशक के सितारा अभिनेता थे। यह उनके अभिनय का ही कमाल था कि मोतीलाल को फिल्म “देवदास”(1955) में चुन्नी बाबू की भूमिका के फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता पुरस्कार मिला। इतना ही नहीं, उनका हैट लगाने का अंदाज एकदम निराला था। केवल अंदाज ही नहीं लक्ष्मी की भी, उन पर पूरी कृपा थी। उस समय अकेली ऐसी फिल्म हस्ती थे, जिनके पास अपना स्वयं का हवाई जहाज था।

“द हंड्रेड ल्यूमिनरीज आॅफ हिंदी सिनेमा” की प्रस्तावना में सुपर स्टाॅर अमिताभ बच्चन ने लिखा है कि इस महान और बेहद सजह अभिनय के धनी अभिनेता की प्रशंसा में अधिक कुछ नहीं लिखा गया है। वे (मोतीलाल) अपने समय से काफी आगे थे। अगर वे आज जीवित होते तो उनकी बहुमुखी प्रतिभा उनके लिए अब भी स्थान सुरक्षित रखती। हकीकत में वे आज भी हमारी तुलना में बेहतर अभिनय कर रहे होते। 


उर्दू के मशहूर शायर मिर्जा गालिब के दिल्ली में दफन होने की बात आम नहीं है। यह बात कम जानी है कि राजधानी में गालिब की मजार दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित फिल्मकार सोहराब मोदी के कारण सलामत है। उन्होंने ही हजरत निजामुद्दीन औलिया की खानकाह के पास गालिब की कब्र पर संगमरमर पत्थर चिनवा कर महफूज करवाया था वरना खुदा ही जाने क्या होता। उन्होंने यह काम हिंदी सिनेमा के इतिहास की यादगार फिल्म “मिर्जा गालिब” (1954) को राष्ट्रपति का स्वर्ण पदक जीतने के बाद श्रध्दा स्वरूप किया था। 

पूछते हैं वो के गालिब कौन है? 

कोई बतलाओ के हम बतलाएं क्या? 


यह तथ्यात्मक बात है कि फिल्म “मिर्जा गालिब” के पोस्टर पर भी हिंदी ही लिखा था। जबकि फिल्म में शायरी उर्दू थी, कल्चर उर्दू का था. तब भी (सेंसर बोर्ड) सर्टिफिकेट पर हिंदी ही लिखा था।


Thursday, October 11, 2018

Currency of Rajput Era_Deehliwal_दिल्ली की मुद्रा थी देहलीवाल



तराइन की दूसरी लड़ाई में अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान की हार और मुहम्मद बिन साम की मृत्यु तक जन साधारण का लेनदेन की जरूरत देहलीवाल अथवा जीतल की मुद्रा से ही पूरी होती थी। विदेशी मुस्लिम विजेता दिल्ली की मुद्रा को देहलीवाल के नाम से पुकारते थे। कुतुब मीनार के परिसर में सत्ताईस हिंदू मंदिरों के ध्वंस की सामग्री से खड़ी की गई नई मस्जिद के शिलालेख में उत्कीर्ण जानकारी के अनुसार इस मस्जिद के निर्माण में 120 लाख देहलीवाल का खर्च आया।

ईस्ट इंडिया कंपनी के नौकरशाह और भारतीय पुरा अवशेषों के प्रसिद्ध लेखक एडवर्ड थॉमस के अनुसार, देहलीवाल मुद्रा का भार 32 रत्ती, मनु के समय से चांदी तौलने का पुराना माप, होता था। वे बताते हैं कि अधिकतर प्राचीन भारतीय मुद्राएं औसत रूप से 50 ग्रेन की होती थी। उल्लेखनीय है कि पुराने वराह चांदी की मुद्राओं सहित राजपूत मुद्राओं का औसतन भार 50 ग्रेन की होता था। उन्होंने किसी भी वजन मानक उल्लेख नहीं किया है।

हसन निजामी ने अपनी पुस्तक "ताजुल मआसिर" में सिंध के तत्कालीन शासक मलिक नासिरूद्दीन कुबाचा के अपने बेटे के माध्यम से इल्तुतमिश को एक सौ लाख देहलीवाल की पेशकश करने और अपने पिता की मौत पर उसके बेटे के इल्तुतमिश के शाही खजाने में पांच सौ लाख देहलीवाल जमा करवाने का हवाला दिया है। "ताजुल मआसिर" में 1191 से 1217 (27 वर्ष) तक की घटनाओं का वर्णन है। "ताजुल मआसिर" दिल्ली सल्तनत का प्रथम राजकीय इतिहास है।

दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों के दौर के सिक्कों और मापतौल पर किताब लिखने वाले एच. नेल्सन राइट के अनुसार, शम्स अल-दीन इल्तुतमिश (1210-1235) के दिल्ली की मुद्रा के मानकीकरण के साथ इन सिक्कों में चांदी की मात्रा को घटाकर आधा कर दिया गया। नए सिक्के, जिसे जीतल का नाम दिया गया, का वजन 32 रत्ती था। जीतल में प्रयुक्त चांदी और तांबे का संयुक्त मूल्य चांदी की दो रत्ती के बराबर था। तांबे के लिए चांदी का सापेक्ष मूल्य 1ः80 था। देवगिरी पर मुस्लिम जीत के बाद उत्तरी भारत में जीतल का चांदी के टंका का सापेक्ष मूल्य बदलकर 1ः48 और दक्कन में 1ः50 हो गया। दक्षिण भारत में इसके थोड़े से अंतर से महंगा होने का कारण यह था कि तांबा विदेशों से आयात किया जाता था।


तब के समुद्री व्यापारी अपने नौव्यापार के लिए लाल सागर के रास्ते का इस्तेमाल करते थे। यही कारण है कि तब देहलीवाल सिक्कों का प्रसार फारस की खाड़ी से भारत के उत्तर पश्चिम तट तक हो गया था। बारहवीं सदी के उत्तरार्ध में पश्चिम से प्राप्त चांदी की नियमित आपूर्ति से उत्तर भारत में सिक्के गढ़ने वालों ने राजपूतों के देहलीवाल सिक्के भी बनाए।

उल्लेखनीय तथ्य यह है कि विभिन्न शासकों के तहत-तोमर, चौहान, गौरी और दिल्ली सल्तनत-दिल्ली टकसाल की स्थिति कोई खास अंतर नहीं था। 12 वीं सदी के अधिकतर समय में विभिन्न राजपूत शासकों के दौर में दिल्ली टकसाल ने एक अरब सिक्के ढ़ाले थे। वर्ष 1053 के बाद से गजनी राज्य से चांदी की लगातार आमद ने दिल्ली टकसाल के पीढ़ी दर पीढ़ी सिक्का बनाने वालों को एक मानक स्तर के वजन वाले सिक्के (3.38 ग्राम) तैयार करने में मदद की। तब धातु सामग्री, सामान्य वजन सीमा और डिजाइन में यह सिक्का शाही दिरहम पर आधारित था। चांदी-तांबा की मिश्र धातु वाले इन सिक्कों में विशुद्ध रूप से 0.59 ग्राम चांदी होती थी।

बारहवीं शताब्दी के पूर्वांद्व में तोमर वंश के राजपूतों ने पहली बार दिल्ली को अपने राज्य की राजधानी बनाया था। उनके समय में ही दिल्ली एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र बनी। तब दिल्ली की अर्थव्यवस्था में समृद्ध जैन व्यापारियों की महत्वपूर्ण भूमिका थी तत्कालीन प्रचलित मुद्रा "देहलीवाल" कहलाती थी।


Sunday, October 7, 2018

Biography_Samuel Johnson



“Biography has often been allotted to writers who seem very little acquainted with the nature of their task, or very negligent about the performance. They rarely afford any other account than might be collected from public papers, but imagine themselves writing a life when they exhibit a chronological series of actions or preferments; and so little regard the manners or behavior of their heroes that more knowledge may be gained of a man's real character, by a short conversation with one of his servants, than from a formal and studied narrative, begun with his pedigree and ended with his funeral."


-Samuel Johnson, critic and poet

Saturday, October 6, 2018

Film Posters depicting the socio-cultural history of Hindi Society_हिंदी समाज की दशा-दिशा बताते पोस्टर




भारत में हाथ से बने पोस्टर की अवधारणा का विकास सिनेमा के उद्भव के साथ ही हुआ। पोस्टर कला के  हस्तनिर्मित से ऑफसेट प्रिंटिंग और फिर डिजिटलीकरण तक का सफर, कलात्मक सौंदर्य और कारीगरी धीरे-धीरे ढलने की एक कहानी है। सरल शब्दों में, यह कला भारत में सिनेमा की यात्रा को बयान करती है। भारतीय सिनेमा के इतिहास को समझने के लिए फिल्म पोस्टर सबसे उपयुक्त है। वे इस लंबी यात्रा को दर्शाने वाले मील के पत्थर हैं। 

आरंभिक समय से ही पोस्टरों ने दर्शकों और फिल्म के बीच में आपसी जुड़ाव का काम किया। यह एक कड़वा सच है कि भारत में पोस्टर कला को एक दोयम दर्जे माना जाता है जबकि इसके उलट पूरी दुनिया में इसे ललित कलाओं के समान सम्मान दिया जाता है।


हिंदी फिल्म पोस्टरों पर छपी एस एम एम औसजा की पुस्तक "बाॅलीवुड इन पोस्टर्स" (ओम बुक इंटरनेशनल से प्रकाशित) एक ऐसी ही अप्रतिम पुस्तक है। जिसमें न केवल पोस्टर के बारे में बल्कि हर फिल्म, उसके कलाकारों तथा लोकप्रिय गानों की सारगर्भित रूप से तथ्यात्मक जानकारी दी गई है। पुस्तक से पता चलता है कि हिंदी फिल्मों के पिछले सात दशकों के पोस्टर और पोस्टर बनाने की प्रवृति को गौर से देखने पर पता चलता है कि समय के साथ न केवल इनमें सौंदर्यशास्त्र बल्कि प्रस्तुतिकरण में भी परिवर्तन आया है। एक तरह से ये पोस्टर बदलते सामाजिक-राजनीतिक या सामाजिक-धार्मिक परिदृश्यों पर एक सटीक टिप्पणी है।



1930-1940 के दशक के शुरुआती फिल्म पोस्टरों में धार्मिक तत्व और शालीन पहनावे में महिलाएं दिखती हैं। तब फिल्म निर्माण का आरंभिक चरण था जब उसे सामाजिक मान्यता नहीं मिली थी। ऐसे पोस्टर दर्शकों के समक्ष एक स्वस्थ-पारिवारिक मनोरंजन की छवि पेश करते थे। फिर 1950-1960 के दशक में जब फिल्मों को सामाजिक स्वीकृति मिलने लगी और कलाकारों को सितारा माने जाने लगा तब अशोक कुमार, नर्गिस और मधुबाला जैसे कलाकार प्रमुख चेहरों के रूप में उभरे। 1970 के दशक में अमिताभ बच्चन जैसे एक्शन नायकों के उदय के साथ सामाजिक विषयों पर अनेक फिल्मों का निर्माण हुआ।

जबकि 1990-2000 का दशक में नई अवधारणाओं, प्रारूपों और प्रस्तुतिकरण से भरापूरा रहा। अगर सौंदर्यबोध को पैमाना माना जाए तो पोस्टरों ने लिथोग्राफ से लेकर आॅफसेट और अब डिजिटल प्रिंटिंग तक का सफर तय किया है। इनमें से हरेक की अपनी-अपनी विशिष्टताएं और खूबसूरती थीं।


"बाॅलीवुड इन पोस्टर्स" में हिंदी सिनेमा के 78 वर्षों (1930-2008) की प्रमुख 208 फिल्मों का लेखा-जोखा है। इन फिल्मों में दिल्ली से संबंधित कथानक वाली फिल्मों में राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित सोहराब मोदी की "मिर्जा गालिब" (1954) सबसे पुरानी फिल्म है। फिल्म के पोस्टरों (रंगीन और श्वेत श्याम दोनों) में सुरैय्या और भारत भूषण की फोटो के साथ मिनर्वा मोव्हिटोन कृत "मिर्जा गालिब" फिल्म के अंग्रेजी-हिंदी में नाम सहित निर्माता सोहराब मोदी का नाम छपा हुआ है। जबकि दिल्ली के ऐतिहासिक कथानक वाली फिल्म "हुमायूं" (1945) के पोस्टर में एक किलेनुमा इमारत की पृष्ठभूमि में अशोक कुमार, नरगिस और वीणा के चेहरे प्रमुखता से बने हुए हैं जबकि फिल्म का नाम तीन भाषाओं, हिंदी-उर्दू-अंग्रेजी में छपा हुआ है। 


इसी तरह, बाप-बेटे और महानगर में जमीन के कारोबार की कहानी वाली "त्रिशूल" (1978) के पोस्टर में संजीव कुमार, अमिताभ बच्चन और शशि कपूर के चेहरों की प्रमुखता हिंदी सिनेमा में सितारा परंपरा के मजबूत होने और अंग्रेजी के बढ़ते दबदबे, जहां निर्देशक-गीतकार-संगीतकार-निर्माता के नाम अंग्रेजी में छपे हैं, का संकेत है। यह बात एक दूसरे पोस्टर से साबित होती है जिसमें अंग्रेजी में त्रिशूल प्रमुखता से छपा है तो हिंदी में छोटे से ऊपर कोने में। 


गानों के लिए मशहूर हुई "रजिया सुल्तान" (1983) के पोस्टर में अंग्रेजी में छपा फिल्म का नाम भी उर्दू लिपि में लिखा गया है जबकि निर्देशक कमाल अमरोही और संगीतकार ख्ययाम के नाम भी अंग्रेजी में छपे है। यहां भी तुलनात्मक रूप से हिंदी के प्रति उपेक्षा साफ है। शाहरूख खान की "चक दे इंडिया" (2007) के पोस्टर में अंग्रेजी का पूरा वर्चस्व नजर आता है, जहां हिंदी सिरे से ही गायब है। 



अधिकतर दिल्ली में फिल्माई गई इस फिल्म की दर्शकों तक पहुंचने की भाषा भी अंग्रेजी है जो कि हमारे दौर के महानगर की शर्मनाक सच्चाई है। यही सच मणिरत्नम की "गुरू" (2007) में भी झलकता है जहां फिल्म के नाम से लेकर निर्देशक के नाम तक सब अंग्रेजी में है। दुनिया में हिंदी सिनेमा शायद एक अकेला सिनेमा होगा जहां एक संवाद अदायगी से लेकर पोस्टर तक एक दूसरी भाषा, यहां अंग्रेजी, का वर्चस्व है। 


अब यह अनायास है या सायास यह समझने की बात है, जिसकी जड़े नक़ल और भाषाई आत्महीनता वाले हिंदी समाज के दोगलेपन में निहित है. 

First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान

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