Wednesday, January 30, 2013
Gandhi;State power
Gandhi challenged mainstream political ideas most forcefully on sovereignty. He argued that state power is not legitimate simply when it commands general support or because it protect us from anarchy. Instead, legitimacy depends on the consent of dutiful citizens willing to challenge the state nonviolently when it acts immorally. The culmination of the inner struggle to recognize one's duty to act is the ultimate "Gandhian moment."
Gandhian Moment, Ramin Jahanbegloo
Harvard University Press
Monday, January 28, 2013
Silk Road:India
The term “Silk Road” is generally refer to the exchanges between China and places farther to the west, specifically Iran, India and, on rare occasions, Europe. Most vigorous before the year 1000, these exchanges were often linked to Buddhism.
Cultural transfer took place as the Chinese learned from other societies, specifically India, the home of Buddhism. Buddhist missionaries were key translators and worked out a system for transcribing unfamiliar terms in foreign languages, like Sanskrit, into Chinese that remains in use today. Chinese absorbed some 35,000 new words, including both technical Buddhist terms and common everyday words.
Source: The Silk Road: A New History-Valerie Hansen (Oxford University Press, 2012)
India: A Sacred Geography
हार्वर्ड की विद्वान डायना एल एक्क की पुस्तक ‘सेक्रिड जियोग्राफी‘, ने भारत को ”कैपिटेल ऑफ दि टेक्नालॉजी रिवोल्यूशन” (प्रौद्योगिकी क्रांति की राजधानी) के रूप में वर्णित किया है। डायना एक्क की पुस्तक के अंतिम अध्याय का शीर्षक ”ए पिलग्रिम्स इण्डिया टूडे” (एक तीर्थयात्री का वर्तमान भारत) है।
इसमें वह लिखती हैं: इससे हमें आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए कि यातायात और संचार क्षेत्र में क्रांति ने तीर्थयात्रियों की संख्या को बढ़ावा दिया है। आधुनिक प्रौद्योगिकी के प्रवाह के चलते कम होना दूर उल्टे तीर्थयात्रा ने नई उर्जा ग्रहण की है। इंटरनेट, तिरूपति या वैष्णोदेवी की वेबसाइट के माध्यम से कोई पूजा और विशेष दर्शनों हेतु बुकिंग कर सकता है तथा धर्मशाला में अपना आरक्षण भी करा सकता हैं। यदि कोई किसी कारण से यात्रा पर नहीं जा पाए, तो भी वह तिरूपति मंदिर से प्रात: सुप्रभातम् सुन सकता है और ऑनलाइन दर्शन तथा दान हेतु भी सम्पर्क उपलब्ध है। तीर्थयात्री इंटरनेट के माध्यम से हिमालय स्थित चारधाम यात्रा या अनगिनत अन्य तीर्थस्थलों, पहाड़ों पर स्थित बदरीनाथ से लेकर दक्षिण में तमिलनाडू के रामेश्वरम तक के बारे में अच्छा पैकेज पा सकते हैं।”
Saturday, January 26, 2013
Vishwaroopam: Ban
In banning the screening of Kamal Haasan’s Vishwaroopam for a period of two weeks, the Tamil Nadu government has recused itself from a fundamental responsibility — that of protecting the right to free expression. It has relied on the old chestnut —maintenance of law and order and public tranquillity — to justify the indefensible......................
Source: http://www.thehindu.com/opinion/editorial/responsibility-to-protect/article4341102.ece
Patrick French: India
"The problems India is facing today are not the creation of Constitution but by problem of bureaucracy. Talking on the idea of India, he said, which neighbouring country you look upto and say you want to live in it. That's the idea of India. The fact that you can't read does not stop you from voting. It was a great idea of Indian Constitution".
Patrick French, whose latest book India: A Portrait focuses on India at Jaipur Literature Festival, 2013
Mahasweta devi, jaipur literary festival, 2013
"ओ! फिर से जीना"
-महाश्वेता देवी (उदबोधन वक्तव्य का अविकल पाठ का हिन्दी अनुवाद, जयपुर साहित्य उत्सव - 2013)
शब्द। मैं नहीं जानती कि कहाँ से। एक लेखिका जो वेदना में है? शायद, इस अवस्था में पुनः जीने की इच्छा एक शरारतभरी इच्छा है। अपने नब्बेवें वर्ष से बस थोड़ी ही दूर पहुँचकर मुझे मानना पड़ेगा कि यह इच्छा एक सन्तुष्टि देती है, एक गाना है न ‘आश्चर्य के जाल से तितलियाँ पकड़ना’।इस के अतिरिक्त उस ‘नुकसान’ पर नजर दौड़ाइए जो मैं आशा से अधिक जीकर पहुँचा चुकी हूँ।
अट्ठासी या सत्तासी साल की अवस्था में मैं प्रायः छायाओं में लौटते हुए आगे बढ़ती हूँ। कभी-कभी मुझ में इतना साहस भी होता है कि फिर से प्रकाश में चली जाऊँ। जब मैं युवती थी, एक माँ थी, तब मैं प्रायः अपनी वृद्धावस्था में चली जाती थी। अपने बेटे को यह बहाना करते हुए बहलाती थी कि मुझे कुछ सुनाई या दिखाई नहीं दे रहा है। अपने हाथों से वैसे टटोलती थी, जैसा अन्धों के खेल में होता है या याददाश्त का मजाक उड़ाती थी। महत्त्वपूर्ण बातें भूल जाना,वे बातें जो एक ही क्षण पहले घटी थीं। ये खेल मजेदार थे। लेकिन अब ये मजेदार नहीं है। मेरा जीवन आगे बढ़ चुका है और अपने को दुहरा रहा है। मैं स्वयं को दुहरा रही हूँ। जो हो चुका है, उसे आप के लिए फिर से याद कर रही हूँ। जो है, जो हो सकता था, हुआ होगा।
अब स्मृति की बारी है कि वह मेरी खिल्ली उड़ाए।
मेरी मुलाकात कई लेखकों, मेरी कहानियों के चरित्रों, उन लोगों के प्रेतों से होती है जिन्हें मैं ने ‘जिया’ है, प्यार किया है और खोया है। कभी-कभी मुझे लगता है कि मैं एक ऐसा पुराना घर हूँ जो अपने वासियों की बातचीत का सहभागी है। लेकिन हमेशा यह कोई वरदान जैसा नहीं होता है! लेकिन ‘यदि कोई व्यक्ति अपनी शक्ति के अन्त पर पहुँच जाए तब क्या होगा’? शक्ति का अन्त कोई पूर्णविराम नहीं है। न ही यह वह अन्तिम पड़ाव है जहाँ आप की यात्रा समाप्त होती है। यह केवल धीमा पड़ना है, जीवनशक्ति का ह्रास। वह सोच जिस से मैंने प्रारम्भ किया था वह है ‘आप अकेले हैं ’।
उस परिवेश से जहाँ से मैं आयी हूँ, मेरा ऐसा बन जाना अप्रत्याशित था। मैं घर में सब से बड़ी थी। मैं नहीं जानती कि आप के भी वही अनुभव हैं कि नहीं, लेकिन उस समय प्रत्येक स्त्री का पहला यौन अनुभव परिवार से ही आता था। और युवावस्था से ही मुझ में प्रबल शारीरिक आकर्षण था, मैं इसे जानती थी, इसे अनुभव करती थी और ऐसा ही मुझे कहा गया था। उस समय हम सभी टैगोर से काफी प्रभावित थे। शांतिनिकेतन में थी, प्रेम में पड़ी, जो कुछ भी किया बड़े उत्साह से किया। तेरह से अठारह वर्ष की अवस्था तक मैं अपने एक दूर के भाई से बहुत प्रेम करती थी। उस के परिवार में आत्मघात की प्रवृत्ति थी,और उस ने भी आत्महत्या कर ली। सभी मुझे दोष देने लगे, कहने लगे कि वह मुझे प्यार करता था और मुझे न पा सका इसीलिए उस ने आत्मघात कर लिया। यह सही नहीं था। उस समय तक मैं कम्युनिस्ट पार्टी के निकट आ चुकी थी, और सोचती थी कि ऐसी छोटी अवस्था में यह कितना घटिया काम था। मुझे लगता था कि उस ने ऐसा क्यों किया। मैं टूट गयी थी। पूरा परिवार मुझे दोष देता था। जब मैं सोलह साल की हुई, तभी से मेरे माता-पिता विशेषकर मेरे सम्बन्धी मुझे कोसते थे कि इस लड़की का क्या किया जाए। यह इतना ज्यादा बाहर घूमती है, अपने शारीरिक आकर्षण को नहीं समझती है। तब इसे बुरा समझा जाता था।
मध्यवर्गीय नैतिकता से मुझे घृणा है। यह कितना बड़ा पाखंड है। सब कुछ दबा रहता है।
लेखन मेरा वास्तविक संसार हो गया, वह संसार जिस में मैं जीती थी और संघर्ष करती थी। समग्रतः। मेरी लेखन प्रक्रिया पूरी तरह बिखरी हुई है। लिखने से पहले मैं बहुत सोचती हूँ, विचार करती हूँ, जब तक कि मेरे मस्तिष्क में एक स्पष्ट प्रारूप न बन जाए। जो कुछ मेरे लिए जरूरी है वह पहले करती हूँ। लोगों से बात करती हूँ, पता लगाती हूँ। तब मैं इसे फैलाना आरम्भ करती हूँ। इस के बाद मुझे कोई कठिनाई नहीं होती है, कहानी मेरी पकड़ में आ चुकी होती है। जब मैं लिखती हूँ, मेरा सारा पढ़ा हुआ, स्मृति, प्रत्यक्ष अनुभव, संगृहीत जानकारियाँ सभी इस में आ जाते हैं। जहाँ भी मैं जाती हूँ, मैं चीजों को लिख लेती हूँ। मन जगा रहता है पर मैं भूल भी जाती हूँ। मैं वस्तुतः जीवन से बहुत खुश हूँ। मैं किसी के प्रति देनदार नहीं हूँ, मैं समाज के नियमों का पालन नहीं करती, मैं जो चाहती हूँ करती हूँ, जहाँ चाहती हूँ जाती हूँ, जो चाहती हूँ लिखती हूँ।
वह हवा जिस में मैं साँस लेती है, शब्दों से भरी हुई है। जैसे कि पर्णनर। पलाश के पत्तों से बना हुआ। इस का सम्बन्ध एक विचित्र प्रथा से है। मान लीजिए कि एक आदमी गाड़ी की दुर्घटना में मर गया है। उस का शरीर घर नहीं लाया जा सका है। तब उस के सम्बन्धी पुआल या किसी दूसरी चीज से आदमी बनाते हैं। मैं जिस जगह की बात कर रही हूँ, वह पलाश से भरी हुई है। इसलिए वे इस के पत्तों का उपयोग करते हैं एक आदमी बनाने के लिए। पाप पुरुष। लोक विश्वास की उपज। शाश्वत जीवन के लिए नियुक्त। वह दूसरे लोगों के पापों पर नजर रखता है। वह कभी प्रकट होता है, कभी नहीं। उस ने स्वयं पाप नहीं किया है। वह अन्य सभी के अतिचारों का लेखा-जोखा रखता है। उन के पापों का। अनवरत। और इसीलिए वह धरती पर आता है। छोटी-से-छोटी बातों को लिपिबद्ध करते हुए। एक बकरा। दण्डित। दहकते सूरज के नीचे अपने खूँटे से बँधा हुआ। पानी या छाया तक पहुँचने में असमर्थ। तब पाप पुरुष बोलता है –‘यह एक पाप है। तुम ने जो किया है वह गलत है। तुइ जा कोरली ता पाप।’ वस्तुतः यह एक मनुष्य नहीं है। केवल एक विचार की अभिव्यक्ति है। यह एक दण्ड हो सकता है। उस ने कोई भीषण अपराध किया होगा। शे होयतो कोनो पाप कोरेछिलो। कोई अक्षम्य पाप। और अब वह कल्पान्त तक पाप पुरुष बनने के लिए अभिशप्त है। वस्तुतः केवल एक ही पाप पुरुष नहीं है, कई हैं। उसी तरह जैसे कि इस कथा को मानने वाले प्रदेश भी कई हैं। इस से भी सुन्दर कई शब्द हैं। बंगाली शब्द। चोरट अर्थात् तख्ता। और फिर डाक संक्रान्ति। इस का सम्बन्ध चैत्र संक्रान्ति से है। डाक माने डेके डेके जाय। जो आत्माएँ अत्यन्त जागरुक और चैतन्य हैं, वे ही इस पुकार को सुन सकती हैं। पुराने साल की पुकार, जो जा रहा है, प्रश्न करते हुए। पुराना साल आज समाप्त हो रहा है। और नया साल कल प्रारम्भ हो रहा है। क्या है जो तुम ने नहीं किया है ? क्या है, जो अभी तुम्हें करना है ? उसे अभी पूरा कर दो। गर्भदान। यह बड़ा रोचक है। एक स्त्री गर्भवती है। कोई उसे वचन देता है कि यदि बेटी का जन्म होता है, उसे यह-वह मिलेगा। यदि बेटा होता है तो कुछ और मिलेगा। गर्भ थाकते देन कोरछे। दान हो चुका है जब कि बच्चा अभी गर्भ में ही है। इस कथा का कहना है कि अजात शिशु इस वचन को सुन सकता है, इसे याद कर सकता है, और इसे अपनी स्मृति में सहेज सकता है। बाद में वह शिशु उस व्यक्ति से उस वचन के बारे में उस गर्भदान के बारे में पूछ सकता है जो अभी हुआ नहीं है। हमारा भारत बड़ा विचित्र है। उदाहरण के लिए महाराष्ट्र के परधी समुदाय को लें। एक विमुक्त समुदाय। चूँकि वे आदिवासी समुदाय हैं, बच्चियों की बड़ी माँग है। किसी गर्भवती स्त्री का पति आसानी से अजन्मे बच्चे की नीलामी करा सकता है या बेच सकता है। पेट की भाजी, पेटे जा आछे। जो अभी गर्भ में ही है। नीलाम कोरे दीछे। गर्भ के फल को नीलाम कर देता है। नरक के कई नाम हैं। नरकेर अनेक गुलो नाम आछे। एक नाम जो मुझे विशेष पसन्द है, वह है ओशि पत्र वन। नरक के कई प्रकार हैं। ओशि का अर्थ तलवार है। और पत्र अर्थात एक पौधा जिस के तलवार सरीखे पत्ते हों। ऐसे पौधों से भरा हुआ जंगल। और आप की आत्मा को इस जंगल से गुजरना होता है। तलवार सरीखे पत्ते उस में बिंध जाते हैं। आखिर आप नरक में अपने पापों के कारण ही तो हैं। इसलिए आप की आत्मा को इस कष्ट को सहना ही है। जब भी मुझे कोई रोचक शब्द मिलता है, मैं उसे लिख लेती हूँ। ये सारी कापियाँ, कोटो कथा। इतने सारे शब्द, इतनी सारी ध्वनियाँ। जब भी उन से मिलती हूँ, मैं उन्हें बटोर लेती हूँ। अन्त में मैं उस विचार के बारे में बताऊँगी जिस पर मैं आराम से समय मिलने पर लिखूँगी। मैं अरसे से इस पर सोचती रही हूँ। वैश्वीकरण को रोकने का एक ही मार्ग है। किसी जगह पर जमीन का एक टुकड़ा है। उसे घास से पूरी तरह ढँक जाने दें। और उस पर केवल एक पेड़ लगाइए, भले ही वह जंगली पेड़ हो। अपने बच्चे की तिपहिया साइकिल वहाँ छोड़ दीजिए। किसी गरीब बच्चे को वहाँ आकर उस से खेलने दीजिए, किसी चिड़िया को उस पेड़ पर रहने दीजिए। छोटी बातें, छोटे सपने। आखिर आप के भी तो अपने छोटे-छोटे सपने हैं। कहीं पर मैँ ने ‘दमितों की संस्कृति’ पर लिखने का दावा किया है। यह दावा कितना बड़ा या छोटा, सच्चा या झूठा है ? जितना अधिक मैं सोचती और लिखती हूँ, किसी निष्कर्ष पर पहुँचना उतना ही कठिन होता जाता है। मैं झिझकती हूँ, हिचकिचाती हूँ। मैं इस विश्वास पर अडिग हूँ कि समय के पार जीनेवाली हमारे जैसी किसी प्राचीन संस्कृतिके लिए एक ही स्वीकार्य मौलिक विश्वास हो सकता है वह है सहृदयता। सम्मान के साथ मनुष्य की तरह जीने केसभी के अधिकार को स्वीकार करना। लोगों के पास देखनेवाली आँखें नहीं हैं। अपने पूरे जीवन में मैं ने छोटे लोगों और उन के छोटे सपनों को ही देखा है। मुझे लगता है कि वे अपने सारे सपनों को तालों में बन्द कर देना चाहते थे, लेकिन किसी तरह कुछ सपने बच गये। कुछ सपने मुक्त हो गये। जैसे गाड़ी को देखती दुर्गा (पाथेर पांचाली उपन्यास में), एक बूढ़ी औरत, जो नींद के लिए तरसती है, एक बूढ़ा आदमी जो किसी तरह अपनी पेंशन पा सका। जंगल से बेदखल किये गये लोग, वे कहाँ जाएँगे। साधारण आदमी और उन के छोटे-छोटे सपने। जैसे कि नक्सली। उन का अपराध यही था कि उन्होंने सपने देखने का साहस किया। उन्हें सपने देखने की भी अनुमति क्यों नहीं है? जैसा कि मैं सालों से बार-बार कहती आ रही हूँ, सपने देखने का अधिकार पहला मौलिक अधिकार होना चाहिए। हाँ, सपने देखने का अधिकार। यही मेरी लड़ाई है, मेरा स्वप्न है। मेरे जीवन और मेरे साहित्य में।
Friday, January 25, 2013
writing:Mahasweta Devi
Write in the language that comes most naturally to you…write in the language in which you dream.” Mahasweta Devi, noted Bengali author in Jaipur Literary Festival
British plan of Delhi:Purana Kila, Yamuna
In the original plan of New Delhi by Britishers, the rajpath was to be end at purana kila and yamuna was planned to enroute at the backyards of kila but due to first world war the finance was curtailed.
Wednesday, January 23, 2013
old st stephens college
सन् 1879 में राजधानी में दिल्ली कालेज को बंद कर दिए जाने के बाद शहर में शिक्षा के लिए कोई केन्द्र नहीं बचा था। इस कमी को दूर करने के लिए ईसाई कैंब्रिज मिशन ने सन् 1881 में पुरानी दिल्ली इलाके में सेंट स्टीफन कालेज की शुरूआत की ।
तत्कालीन दौर में यह कालेज, चांदनी चौक में किनारी बाजार के शीश महल में था। जयपुर राज्य के मुख्य अभियंता कर्नल स्विंटन जैकब ने कश्मीरी गेट के नजदीक पुराने स्टीफन कालेज की खूबसूरत इमारत का नक्शा तैयार किया था ।
सन् 1891 में तैयार हुई इस इमारत में कालेज सन् 1941 तक रहा और फिर वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय के उत्तरी परिसर में अपनी आज की जगह पर स्थानांतरित हो गया ।
Delhi: Morning of Fog
मौसम की फिजा बेइमान है, जो दिखता है वह महसूस नहीं होता और जो महसूस होता है, वह दिखता नहीं । सुबह कोहरे की चादर में लिपटी दिल्ली की शक्ल मानो पहचान कर भी नहीं बूझी जा रही थी मानो कोहरे में चेहरा कहीं गुम हो गया हो ।
पर क्वीन मेरी स्कूल के दरवाजे पर फर्श पर सोया हुआ आदमी यू उठकर खड़ा हुआ मानो बच्चों के स्कूल की घंटी उसके लिए ही बजी हो ।
भोर में अगर उजाला न हो तो बच्चों और बूढ़ों को वक्त का गुमान ही नहीं होता जैसे मेरा छोटा बेटा खिड़की से झांकता है तो उसे गुप्प अंधेरा नजर आता है तो वह यह कहते हुए दोबारा सो जाता है कि अभी तो रात बाकी है ।
Soilders of First Independence War of India
ब्रिटिश मैगजीन ऊंची दीवारों से घिरी एक बड़ी इमारत हुआ करती थी। मगर अब इसका सिर्फ एक छोटा सा हिस्सा लोथियन रोड के बीचोंबीच कश्मीरी गेट डाकघर के सामने खड़ा है। लाखौरी ईंटों से बनी यह मैगजीन दो हिस्सों में है और दोनों तरफ दरवाजों पर छोटी तोपें रखी हैं। संगमरमर की एक पट्टी पर उन अंग्रेजों के नाम लिखे हैं जिन्होंने गोलाबारूद को ‘दुश्मनों’ के हाथों में नहीं जाने दिया था। आजादी के बाद अलग से लगाई गई एक पट्टी पर दर्ज है कि वास्तव में ये ‘दुश्मन’ हिंदुस्तान की आजादी के सिपाही थे।
Ghalib-Delhi
गालिब ने कहा था- हमने माना कि तगाफुल ना करोगे लेकिन... खाक हो जाएंगे हम तुमको खबर होने तक... और सचमुच गालिब के दिल्ली अंग्रेजों की राजधानी बनने से पहले ही गालिब इस दुनिया-ए-फानी को अलविदा कह गये.......
Tuesday, January 22, 2013
parliamentary democracy
In a parliamentary democracy, the greatest challenge to good governance is to bridge the gap between the expectations of the people and the effectiveness of the delivery mechanisms. Effective governance requires effective institutions; and the effectiveness of the institutions – be it the Legislature, the Executive, or the Judiciary – depends on its delivery mechanisms and the framework of supportive rules, regulations and procedures, which need to continuously evolve in response to the changing times and emerging situations.
History of High Courts
Unlike the other High Courts in the country or the Hon'ble Supreme Court, the three Presidency High Courts at Calcutta, and what were then Bombay and Madras were not brought into existence by the Constitution of India or even any Act of a legislature.
The three Presidency High Courts including the High Court at Calcutta were brought into existence by Royal Charter, a Letters Patent, issued by the Queen under her sign manual and privy seal, as authorized by the High Courts Act, 1861, a colonial legislation.
The Letters Patent gave the High Courts including the High Court at Calcutta the same power as the High Court in England had, at that time. It therefore could do equity and issue writs including those that we have become familiar with under Article 226 of the Constitution of India.
Lori of Nani and Moon on top of the world
बचपन में ननिहाल में नानी लोरी सुनाती थी, चंदा मामा दूर से खीर खिलाई पूर से..................
नानी, नानी का घर, जिसका नाम उनके नाम पर नाना ने मालती भवन रखा था, घर में पहली मंजिल पर चढ़कर दाहिने कोने में बनी खपरैल की रसोई और रसोई से ऊपर जाती सीढि़या । उन सीढि़यों पर बैठकर कांसे के कटोरे में दूध के साथ मक्के की रोटी को खाते हुए, चंदा मामा की कहानी के साथ आसमान में निकले चांद को निहारने का सुख अब किसी परीकथा की कहानी लगता है ।
सोचता हूं कि अब मेरे बेटे को दिल्ली में न तो खाने के लिए घर में कांसे की कटोरी है न छत पर जाने वाली सीढि़यों पर बैठकर चंदा मामा को देखने की सुविधा । खैर, उसे टीवी पर पोगो पर कार्टून देखने से फुर्सत मिले तो न । वैसे इसके लिए भी परिवार ही जिम्मेदार है, आखिर बाहर जाते हैं तो बच्चे घर में उधम न मचाएं तो इसके लिए टीवी चलाने की शुरूआत तो हमने ही की थी ।
दूसरा, उसकी नानी अपने घर से बहुत दूर विदेश में है तो दादी उस समय चांद तारों की दुनिया में चली गई जब बेटा केवल चंद महीनों का था ।
हां, दादी ने उसके मुंह में खाने का पहला निवाला जरूर डाला था पर दादी के लिए पोते का वह निवाला बस आखिरी ही रहा । वह ऐसे कि उसी शाम दादी को अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा और जैसा होता है महानगरों के निजी अस्पतालों में कि मर्ज कुछ था और ईलाज कुछ । सो, दादी एक बार आइसीयू में गई तो फिर बस लौटी नहीं ।
ऐसे में मेरे बेटे का क्या कसूर, सो, दिल्ली में चांद निकलता तो है पर अब लोरी नहीं मिलती ।
Monday, January 21, 2013
Dharamvir Bharati: Language of Pain
दर्द की भाषा लिपि की अपेक्षा नहीं रखती, सीधे दिल पर चोट करती है ।
धर्मवीर भारती दीख नहीं पड़ते हैं पेड़ मगर डालों से ध्वनियों के अनगिनत झरने झर झर
तेज और मंद हर झकोरे के संग
हवा चलती है और ठहर जाती है। सन्नाटा ! गूंगे के अबोले वाक्य सा - जाग्रत है यह मेरा मन पर निरर्थक है ! ट्रेन ने सीटी दी … दूर कहीं लोग जीवित हैं चलते हैं
यात्राऐं करते हैं मंजिल है उनकी । याद पड़ता है कभी -
बहुत सुबह पौ फटने के पहले मैने भी एक यात्रा की थी ! कच्ची पगडंडी पर दोनो ओर सरपत की झाड़ों में इसी तरह, तेज हवा चलती थी, और ठहर जाती थी। सीटी फिर बोली - सुनो मेरे मन “हारो मत” दूर कहीं लोग जीवित हैं यात्राऐं करते हैं,
मंजिल है उनकी !
Nida Fazali:Ali Sardar Jafri
अली सरदार जाफरी की भूमिका
उर्दू साहित्य का इतिहास 14 वीं सदी के अमीर खुसरो से तो रिश्ता लगता है, लेकिन उसके बाद की साझी साहित्यिक विरासत को जिसमें, रहीम, मीरा, कबीर, सूरदास तुलसी आदि शामिल हैं, सिरे से भूल जाता है । अली सरदार जाफरी ने गालिब और मीर के साथ मीरा और कबीर को जोड़कर न सिर्फ ईरानी प्रभाव से बोझिल उर्दू साहित्य को ज्यादा हिंदुस्तानी बनाया, इसको अपनी विरासत का अहसास भी दिलाया ।
(तमाशा मेरे आगे-निदा फाजली) (फोटो: अली सरदार जाफरी, परवीना शाकिर के साथ)
Sunday, January 20, 2013
Meer-Shayari
मेरी शायरी खास लोगों की पसन्द की जरूर हैं, लेकिन ‘मुझे गुफ्तगू अवाम से है।
-मीर तक़ी मीर
हम 'मीर' तेरा मरना क्या चाहते थे लेकिन
रहता है हुए बिन कब जो कुछ कि हुआ चाहे।
अहदे- जबानी रो-रो काटा, पीरी में लीं आँखें मूदं
यानी रात बहुत जागे थे, सुबह हुई आराम किया।
यूँ उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहाँ से उठता है।
करो तवक्कुल कि आशिक़ी में न यूं करोगे तो क्या करोगे
जो यह अलस है दर्दमंदो कहां तलक तुम दवा करोगे।
सिरहाने 'मीर' के कोई न बोलो
अभी टुक रोते रोते सो गया है।
कहता था किसू से कुछ तकता था किसू का मुंह
कल 'मीर' खड़ा था यां सच है कि दिवाना था।
आंखें पथराई, छाती पत्थर है
वह ही जाने जो इंतजार करे।
गुल को महबूब हम क़यास किया
फ़र्क़ निकला बहुत जो बास किया
अब कोफ़्त से हिजरां की जहां दिल पे रखा हाथ
जो दर्दो-अलम था सो कहे तू कि यहीं था।
आतिशे-इश्क़ ने रावन को जलाकर मारा
गर्चे लंका सा था उस देव का घर पानी में
सुभे-चमन का जल्बा हिन्दी बुतों में देखा
संदल भरी जबीं है होटों की लालिय़ाँ
हँसकर व्यंग करना उनके लिए कठिन है झुँझालकर गाली देना सरल (सौदा के बाद सबसे ज्यादा गालियाँ मीर का काव्य में मिलेंगी। इसीलिए किसी ने कहा था कि मीर का उच्चकोटि का काव्य बहुत उच्चकोटि का है और निम्नकोटि का बहुत ही निम्नकोटि का ।) मीर के यहाँ प्रेंम संसार की सृष्टि का कारण होने के बावजूद जान-लेवा है।
sardar jafari on meera
यह तो नहीं कहा जा सकता कि मीरा हिन्दुस्तानी कवियों में सर्वश्रेष्ठ स्थान रखती हैं लेकिन इस दृष्टिकोण के सत्य होने में किंचितमात्र भी सन्देह की आशंका नहीं कि मीरा से बड़ी कवयित्री हिन्दुस्तान की धरती आज तक नहीं पैदा कर सकी। किसी भी प्राचीन या आधुनिक हिन्दुस्तानी भाषा में ऐसी कोई कवयित्री नजर नहीं आती जिसे हम मीरा के मुकाबले में ला सके। मीरा के भावनालीन प्रभावपूर्ण गीत आज लगभग साढ़े तीन सौ साल बीतने के पश्चात् भी करोड़ों इनसानों के दिल की आवाज़ बने हुए हैं।
बात को थोड़ा सा और विसतार देकर यूँ भी कहा जा सकता है कि सारे विश्व की कवयित्रियों में दो प्रतिभाएँ उस स्थान पर हैं जहाँ कोई कवयित्री नहीं पहुँच सकी है। इनमें से एक कवियित्री ईसा से 700 वर्ष पूर्व यूनान की सेफो़ है और दूसरी सोलहवीं शताब्दी में हिन्दुस्तान की मीरा। दोनों ने प्रेम काव्य का सृजन किया है, दोनों में भावों की तीव्रता है।
दोनों की रचनाओं में एक टीस, एक पीड़ा और एक वेदना है। लेकिन मीरा इस दृष्टि से सेफो़ से श्रेष्ठ हैं कि सेफो़ का प्रेम हाड़ मांस के जिस्म और उसके विदित सौन्दर्य से है, जबकि मीरा के प्रेम में एक मानवीय श्रद्धा और पवित्रता है। उनकी रचनाओं में शरीर और शारीरिकता केवल लक्षण तथा बिम्ब की हैसियत रखते हैं जिनकी सहायता से वह अपने उन दिलों तक पहुँचाती हैं जो कृष्ण के अदृश्य व्यक्तित्व के सौन्दर्य का पूरी तरह अनुभव नहीं कर सकते।
Tulsidas-Ram
क्या छब बरनो आजु की भले बने हौ नाथ।
तुलसी मस्तक कब निवै धनुष बाण लेव हाथ।। कृष्ण, निश्चय तुम भी विष्णु ही के अवतार हो लेकिन मैं तो सिर तब ही झुकाऊँगा जब धनुष-बाण हाथ में लेकर तुम चित्रकूट के रमते राम बन जाओ । (चित्र साभार: राजा रवि वर्मा)
Saturday, January 19, 2013
First Independent Stamps of India
सन् 1854 में जारी पहली भारतीय डाक टिकटों पर 'इंडिया पोस्टेज' अंकित था और उसी वर्ष में इस अंकन को बदलकर 'ईस्ट इंडिया पोस्टेज' कर दिया गया । एक बार फिर सन् 1882 में इसे बदलकर 'इंडिया पोस्टेज' कर दिया गया, यह सन् 1962 तक जारी रहा । नवंबर 1962 में 'इंडिया पोस्टेज' के स्थान पर एक नया शीर्षक 'भारत-इंडिया' को शुरू किया गया हालांकि दिसंबर 1962/जनवरी 1963 में तीन डाक टिकटें पिछले अंकन के साथ ही जारी की गई ।
ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासन के समय में जब सन् 1854 में महारानी विक्टोरिया की टिकटें जारी की गई तब भारतीय डाक टिकट के डिजाइन में ब्रिटिश सम्राट के एक चित्र अंकित था । सन् 15 अगस्त, 1947 में भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इसका अंत हो गया ।
सन् 1947 में स्वतंत्र भारत की तीन डाक टिकटें जारी की गई । इन डाक टिकटों पर 'अशोक स्तंभ' (भारत का राष्ट्रीय प्रतीक), 'भारतीय ध्वज' और 'एक विमान' बना हुआ था । तब से लेकर आज तक भारत 3000 से अधिक डाक टिकट जारी किए जा चुके हैं ।
हाल के वर्षों में, डाक टिकट ने अतिरिक्त आयाम ग्रहण कर लिया है । यह राष्ट्रीय विरासत और घटनाओं की स्मृति को बनाए रखने, उनकी उत्सवधर्मिता और प्रोत्साहन देने का एक माध्यम है । यह एक राजदूत की तरह एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, डाक प्रशासन की एक ब्रांड इमेज कायम करती है और एक संप्रभु राष्ट्र का प्रतीक होती है ।
History of Indian Postage Stamps
The first India Postage Stamps issued in 1854 bore the inscription 'India Postage', the inscription was changed in same year to 'East India Postage'. This was changed from 1882 to 'India Postage' and continued till 1962. From November, 1962, a new caption 'Bharat''India'was introduced replacing the 'India Postage', though three stamps issued in December, 1962/Januray 1963 carried the earlier inscription.
From the beginning of British Imperialist Rule, when the Queen Victoria stamps were issued in 1854, a portrait of British Monarch had figured in Indian Stamp Designs. This came to an end with India gaining independence on 15th August, 1947. The first independence stamps, issued in 1947, were three in number. They depicted the Ashoka Pillar (National Emblem of India), the Indian Flag and an Aircraft. Since then India has issued more than 3000 stamps.
Over the years, postage stamp has assumed additional dimension. It is a mode of commemorating, celebrating and promoting national heritage and events; it plays a significant role as an ambassador, a brand image of postal administration and a statement of sovereignty of a nation.
Tuesday, January 15, 2013
British view of Maratha's
It was the good fortune of the British that neither Bajirao nor Scindhia possessed the strength and spirit to stand forth boldly at a critical movement. If there was any other more intrepid man occupying the Peshwa's position at that time, it is not difficult to conceive how the British would have fared. The Marathas had at their command ample means of waging a successful war-arms, money, army and ammunition. Everything was ready. They only lacked a leader. Both Bajirao in the South and Daulatrao in the north became traitors to their nation and lost the game.
Mountstuart Elphinstone
Monday, January 14, 2013
Friend:Discourse
भाई, भीतर की लौ को कमतर नहीं होने देना चाहिए फिर चाहे उसके लिए भरी सर्दी में पूरी रात जागना क्यों न पडे़ । तुम मित्र हो तो तुमसे तो दिल का नाता है । तर्क कुतर्क से बात तो रह जाती है पर व्यक्ति कट जाता है । अब यही बात सीखी है सो बचता हूं कि मेरी बात से किसी अपने को अप्रिय न लगे ।
बाकी की कोई चिंता नहीं...........................
Calcutta:Science:Nobel
Calcutta University and Sir Asutosh Mukherjee played a defining role in nurturing the Indian Science Congress in the early years. Kolkata has remained historically a city of culture, of knowledge. All Nobel Prizes awarded for work from India are somehow linked to the city of Kolkata. Sir Ronald Ross carried out his pioneering research on Malaria in this city for which he was awarded the Nobel Prize in 1902. Sir CV Raman’s remarkable discovery, the Raman Effect, for which he was awarded the Nobel Prize in Physics in 1930, was made here in Kolkata. The legendry Rabindranath Tagore and Mother Teresa were also awarded Noble Prizes for their work carried out in Kolkata. The earliest organizations associated with science—The Asiatic Society, The Indian Association for the Cultivation of Science and the Indian Science Congress Association were established here. These organizations gave rise to celebrated luminaries in science who promoted a scientific culture. Sir JC Bose, Prof. Satyendra Nath Bose, PC Ray, Meghnad Saha and many others who built the edifice of modern science in the country. Sir JC Bose is hailed as the first of modern scientists of this country. His original contributions to the invention of radio are well known. The recent discovery of Higgs-boson particle highlights the epoch making contributions of Prof. Satyendra Nath Bose to particle physics.
Indians Abroad
It is a matter of pride for every Indian that today there are atleast 5 Heads of States or Heads of Governments and over 70 senior political leaders such as Deputy Heads of State, Speakers and Ministers in various countries who can trace their roots to India.
The Indian diaspora has made our nation proud through the significant contributions that they have made to the development of the nations which they have chosen to make their homes.
Census-India
India has a long and rich tradition of conducting Census taking. The earliest references of census taking in the country are found in Kautilya’s ‘Arthashastra’ (321-296 BC) and later in the writings of Abdul Fazl’s in ‘Ain-e-Akbari’ during the days of Emperor Akbar.
However, the first systematic and modern population Census, in its present scientific form was conducted non- synchronously between 1865 and 1872 in the country.
The first synchronous census in India was conducted in the Year 1881.
The Census 2011 was the fifteenth Census in this series as reckoned from 1872 and the seventh since independence. The successful conduct of Census without any break since 1872 makes the Indian census unique and unparalleled in the world.
judicial system: faith of the common man
In India, justice is time consuming and expensive. The large pendency of court cases is a cause for concern. The total pendency in the Subordinate Courts and High Courts in the end of 2011 calendar year was over 3.1 crore cases. The pendency in the end of 2012 calendar year in the Supreme Court was over 66 thousand cases. Delay further adds to the costs. Therefore, in many ways it tantamounts to denying justice and this is against the principle of equality that is the bedrock of democracy.
The Eighteenth Law Commission had made certain suggestions in this direction. Steps to utilize full working hours of the court, more application of technology such that cases with similar points are clubbed for a combined decision, specifying a time limit for oral arguments, time limit for arriving at decision, and curtailing vacancies in the higher judiciary are some of the measures that are worth considering.
Charles Montesquieu: Balance of power
In Constitution the fundamental principle is contained in the assertion of Charles Montesquieu that there can be “no liberty” when either legislative and executive powers are combined in the same entity or when the judicial powers are not separated from the legislative and executive.
Silk Letter Movement
The Silk Letter Movement was a group of revolutionaries. This movement was a plan to mobilize the support of the governments of Afghanistan and Turkey in organizing a revolt within India to overthrow the British rule.
Obaidullah Sindhi and Maulana Mahmood Hasan were two important leaders of this movement. In August 1916, some letters written on silk fell into British hands.
It is believed that the Silk Letters confiscated by British Government contained details of the Provisional Government of Azad Hind and its plans and a comprehensive scheme of forming an army and getting the support of the Turkish Government.
India Postage Stamps
The regular India Postage Stamps were introduced in October 1854 during the tenure of Governor General Lord Dalhousie. These were red lithographed stamps of one anna and blue lithographed stamps of half anna, bearing the portrait of Queen Victoria. This symbolism of British Monarchy came to an end with India gaining independence on 15th August, 1947. It was a proud moment when the greeting “Jai Hind” figured on the first three stamps issued by free India.
Sunday, January 13, 2013
Jawaharlal Nehru: Cultural India
भारत युगों-युगों से तीर्थ-यात्राओं, तीर्थ स्थानों का देश रहा है। समूचे देश में आपको प्राचीन स्थान मिलेंगे। हिमालय की बर्फ से ढकी चोटियों पर बदरीनाथ, केदारनाथ तथा अमरनाथ से दक्षिण में कन्याकुमारी तक आपको तीर्थस्थल मिल जाएंगे। दक्षिण से उत्तर तक तथा उत्तर से दक्षिण तक कौन सी प्रेरणा-शक्ति लोगों को इन महान तीर्थस्थलों की ओर आकर्षित करती आ रही है?
यह एक राष्ट्र की भावना तथा एक संस्कृति की भावना है और इस भावना से हम परस्पर बंधे हुए हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथों में कहा गया है कि भारत भूमि उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में समुद्र तक फैली है। सदियों से भारत की यह संकल्पना चली आ रही है तथा इसने हमें परस्पर बांध रखा है। इस महान धारणा से प्रभावित होकर लोगों ने इसे ‘पुण्यभूमि‘ माना है। जबकि हमारे यहां अनेक साम्राज्य हुए हैं तथा यहां हमारी विभिन्न भाषाएं प्रचलित रही हैं। यह कोमल बंधन ही हमें अनेक तरीकों से बांधे रखता है।
जवाहरलाल नेहरु, अक्टूबर 1961, अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का सम्मेलन, मदुरै
Nehru on Bharat
यद्यपि बाह्य रुप से हमारे लोगों के बीच विभिन्नता और बेहद विविधता थी, तब भी सर्वत्र ‘एकात्मता‘ का प्रबल भाव था जिसने भले ही हमारा राजनीतिक भाग्य हो या दुर्भाग्य रहा हो, युगों से हम सब को बांधे रखा है, भारत की एकता मेरे लिए मात्र एक बौध्दिक धारणा नहीं रही: यह एक भावनात्मक अनुभव था जिसने मुझे पूर्णतया हावी हुआ।”
जवाहरलाल नेहरु अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ इण्डिया‘ में
Saturday, January 12, 2013
Politics: Common man
वैसे तो सत्ता की चौसर में शकुनि और दुर्योधन ही जीतते है, इतिहास तो यही बताता है । शायद अब सबको अपना कृष्ण जगाना होगा यानी अपनी रचनात्मक और सक्रिय भूमिका निभानी होगी तभी देश रूपी द्रौपदी का चीर हरण बचेगा ।
Dinkar on Vivekananda
The cyclone, which arose from the centre of English language and European Intellectualism, and proceeded to swallow Hinduism, got subsided after hitting the Himalayan chest of Swami Vivekananda. It is a solemn duty of Hindu race that as long as it survives, it must keep the memory of Vivekananda with the same regard, as with which it remembers Vyasa and Valmiki.’
Ramdhari Singh Dinkar
Aurobindo:Vivekananda
Vivekananda was a soul of puissance if ever there was one, a very lion among men, but the definitive work he has left behind is quite incommensurate with our impression of his creative might and energy. We perceive his influence still working gigantically, we know not well how, we know not well where, in something that is not yet formed, something leonine, grand, intutive, upheaving that has entered the soul of India and we say, "Behold, Vivekananda still lives in the soul of his Mother and in the souls of her children.
Sri Aurobindo--1915 in Vedic Magazine.
Subhash Chandra Bose:Vivekananda
“Swamiji harmonized the East and the West, religion and science, past and present. And that is why he is great. Our countrymen have gained unprecedented self-respect, self-reliance and self-assertion from his teachings.” Subhash Chandra Bose
A L Basham:Vivekananda
Swami Vivekananda will be remembered as one of the most significant figures in the whole history of Indian religion, comparable in importance to such great teachers as Shankara and Ramanuja. Since the days of the Indian missionaries who traveled in Southeast Asia and China preaching Buddhism and Hinduism more than a thousand years earlier, he was the first Indian religious teacher to make such an impression outside India.
– Arthur Llewellyn Basham, Indologist, was appointed Swami Vivekananda Professor in Oriental Studies at the Asiatic Society Calcutta in September 1985.
Indira Gandhi on Vivekananda
" I had the special privilege of being introduced to the writings, sayings, and life of Swami Vivekananda and the Ramakrishna Mission. That was when I was very small. In fact both my parents and specially my mother had very close connections with the Mission. And I can truly say that the words of Swami Vivekananda inspired the whole of my family, in our political work as well as in our daily lives."
Indira Gandhi
Chakravarthi Rajagopalachari:Swami Vivekananda
“Swami Vivekananda saved Hinduism and saved India. But for him, we would have lost our religion and would not have gained our freedom. We therefore owe everything to Swami Vivekananda.”
Chakravarthi Rajagopalachari
Tilak on Vivekananda
Vivekananda's contribution to the awakening of India raised him to the status of Sankaracharya.
Bal Gangadhar Tilak
Nehru on Swami Vivekananda
THE DISCOVERY OF INDIA by: Jawaharlal Nehru
(Excerpts about Swami Vivekananda)
About the same period as Swami Dayananda, a different type of person lived in Bengal and his life influenced many of the new English-educated classes. He was Shri Ramakrishna Paramahamsa, a simple man, no scholar but a man of faith, and not interested in social reform as such. He was in a direct line with Chaitanya and other Indian saints. Essentially religious and yet broad-minded, in his search for self-realization he went to Moslem and Christian mystics and lived with them for years, following their strict routines. He settled down at Dakshineshwar near Calcutta, and his extraordinary personality and character gradually attracted attention. People who went to visit him, and some who were even inclined to scoff at this simple man of faith, were powerfully influenced, and many who had been completely westernized felt that here was something they had missed. Stressing the essentials of religious faith, he linked up the various aspects of the Hindu religion and philosophy and seemed to represent all of them in his own person. Indeed he brought within his fold other religions also. Opposed to all sectarianism, he emphasized that all roads lead to truth. He was like some of the saints we read about in the past records of Asia and Europe; difficult to understand in the context of modern life, and yet fitting into India's many-colored pattern and accepted and revered by many of her people as a man with a touch of the divine fire about him. His personality impressed itself on all who saw him, and many who never saw him have been influenced by the story of his life. Among these latter is Romain Rolland, who has written a story of his life and that of his chief disciple, Swami Vivekananda.
Vivekananda, together with his brother disciples, founded the nonsectarian Ramakrishna Mission of service. Rooted in the past and full of pride in India's heritage, Vivekananda was yet modern in his approach to life's problems and was a kind of bridge between the past of India and her present. He was a powerful orator in Bengali and English and a graceful writer of Bengali prose and poetry. He was a fine figure of a man, imposing, full of poise and dignity, sure of himself and his mission, and at the same time full of a dynamic and fiery energy and a passion to push India forward. He came as a tonic to the depressed and demoralized Hindu mind and gave it self-reliance and some roots in the past. He attended the Parliament of Religions in Chicago in 1893, spent over a year in the U.S.A., traveled across Europe going as far as Athens and Constantinople, and visited Egypt, China, and Japan. Wherever he went, he created a minor sensation not only by his presence but by what he said and by how he said it. Having seen this Hindu sanyasin once, it was difficult to forget him or his message. In America he was called the ``cyclonic Hindu.'' He was himself greatly influenced by his travels in Western countries; he admired British perseverance, and the vitality and spirit of equality of the American people. ``America is the best field in the world to carry on any idea,'' he wrote to a friend in India. But he was not impressed by the manifestations of religion in the West, and his faith in the Indian philosophical and spiritual background became firmer. India, in spite of her degradation, still represented to him the Light.
He preached the monism of the Advaita philosophy of the Vedanta, and was convinced that only this could be the future religion of thinking humanity. For the Vedanta was not only spiritual but rational and in hannony with scientific investigations of external nature. ``This universe has not been created by any extra-cosmic God, nor is it the work of any outside genius. It is self-creating, self-dissolving, self-manifesting, One Infinite Existence, the Brahma.'' The Vedanta ideal was of the solidarity of man and his inborn divine nature; to see God in man is the real Godvision; man is the greatest of all beings. But the abstract Vedanta must become living-poetic-in everyday life; out of hopelessly intricate mythology must come concrete moral forms; and out of bewildering Yogi-ism must come the most scientific and practical psychology.'' India had fallen because she had narrowed herself, gone into her shell and lost touch with other nations, and thus sunk into a state of ``mummified'' and ``crystalled'' civilization. Caste, which was necessary and desirable in its early forms, and meant to develop individuality and freedom, had become a monstrous degradation, the opposite of what it was meant to be, and had crushed the masses. Caste was a form of social organization which was and should be kept separate from religion. Social organizations should change with the changing times. Passionately Vivekananda condemned the meaningless metaphysical discussions and arguments about ceremonials, and especially the touch-me-notism of the upper castes. ``Our religion is in the kitchen. Our God is the cooking-pot, and our religion is: `don't touch me, I am holy.
He kept away from politics and disapproved of the politicians of his day. But again and again he laid stress on the necessity for liberty and equality and the raising of the masses. ``Liberty of thought and action is the only condition of life, of growth and well-being. Where it does not exist, the man, the race, the nation must go.'' ``The only hope of India is from the masses. The upper classes are physically and morally dead.'' He wanted to combine Western progress with India's spiritual background: ``Make a European society with India's religion.... Become an Occidental of occidentals in your spirit of equality, freedom, work and energy, and at the same time a Hindu to the very backbone in religious culture and instincts.'' Progressively Vivekananda grew more international in outlook: ``Even in Politics and Sociology, problems that were only natianal twenty years ago can no longer be solved on national grounds only. They are assuming huge proportions, gigantic shapes. They can only be solved when looked at in the broader light of international grounds. International organizations, international combinations, international laws are the cry of the day. That shows solidarity. In science, every day they are coming to a similar broad view of matter.'' And again: ``There cannot be any progress without the whole world following in the wake, and it is becoming every day clearer that the solution of any problem can never be attained on racial, or national, or narrow grounds. Every idea has to become broad till it covers the whole of this world, every aspiration must go on increasing till it has engulfed the whole of humanity, nay the whole of life, within its scope.'' All this fitted in with Vivekananda's view of the Vedanta philosophy, and he preached this from end to end of India. ``I am thoroughly convinced that no individual or nation can live by holding itself apart from the community of others, and wherever such an attempt has been made under false ideas of greatness, policy or holiness-the result has always been disastrous to the secluding one.... The fact of our isolation from all the other nations of the world is the cause of our degeneration and its only remedy is getting back into the current of the rest of the world. Motion is the sign of life.'' He once wrote: ``I am a socialist not because I think it is a perfect system, but half a loaf is better than no bread. The other systems have been tried and found wanting. Let this one be tried, if for nothing else, for the novelty of the thing.
Vivekananda spoke of many things, but the one constant refrain of his speech and writing was abhaya - be fearless, be strong. For him man was no miserable sinner but a part of divinity; why should he be afraid of anything? ``If there is a sin in the world it is weakness; avoid all weakness, weakness is sin, weakness is death.'' That had been the great lesson of the Upanishads. Fear breeds evil and weeping and wailing. There had been enough of that, enough of softness. What our country now wants are muscles of iron and nerves of steel, gigantic wills which nothing can resist, whith can penetrate into the mysteries and the secrets of the universe, and will accomplish their purpose in any fashion, even if it meant going down to the bottom of the ocean and meeting death face to face.'' He condemned occultism, and mysticism... these creepy things; there may be great truths in them, but they have nearly destroyed us.... And here is the test of truth - anything that makes you weak physically, intellectually and spiritually, reject as poison, there is no life in it, it cannot be true. Truth is strengthening. Truth is purity, truth is all-knowledge.... These mysticisms, in spite of some grains of truth in them, are generally weakening.... Go back to your Upanishads, the shining, the strengthening, the bright philosophy, and part from all these mysterious things, all these weakening things. Take up this philosophy; the greatest truths are the simplest things in the world, simple as your own existence.'' And beware of superstition. ``I would rather see everyone of you rank atheists than superstitious fools, for the atheist is alive, and you can make something of him. But if superstition enters, the brain is gone, the brain is softening, degradation has seized upon the life.... Mysterymongering and superstition are always signs of weakness.''
Most of these extracts have been taken from Lectures from Colombo to Almora by Swami Vivekananda (1933) and Letters of Swami Vivekananda (1942) , both published by the Advaita Ashrama, Mayavati, Almora, Himalayas. In the Letters, P-390, there is a remarkable letter written by Vivekananda to a Moslem friend. In the course of this he says: ``Whether we call it Vedantism or any ism, the truth is that Advaitism is the last word of religion and thought and the only position from which one can look upon all religions and sects with love. We believe it is the religion of the future enlightened humanity. The Hindus may get the credit of arriving at it earlier than other races, they being an older race than either the Hebrew or the Arab; yet practical Advaitism, which looks upon and behaves to all mankind as one's own soul, is yet to be developed among the Hindus universally. ``On the other hand our experience is that if ever the followers of any religion approach to this equality in an appreciable degree in the plane of practical work-a-day life-it may be quite unconscious generally of the deeper meaning and the underlying principle of such conduct, which the Hindus as a rule so clearly perceive - it is those of Islam and Islam alone....
``For our own motherland a junction of the two great systems, Hinduism and Islam.-Vedanta brain and Islam body-is the only hope.
``I see in my mind's eye the future perfect India rising out of this chaos and strife, glorious and invincible, with Vedanta brain and Islam body.''
This letter is dated Almora, 10th June, 1898 - footnote
So Vivekananda thundered from Cape Comorin on the southern tip of India to the Himalayas, and he wore himself out in the process, dying in 1902 when he was thirtynine years of age.
Nehru's India
Though outwardly there was diversity and infinite variety among our people, everywhere there was that tremendous impress of ‘oneness’, which had held all of us together for ages past, whatever political fate or misfortune had befallen us. The unity of India was no longer merely an intellectual concept for me: it was an emotional experience which overpowered me.
(Jawaharlal Nehru: Discovery of India)
Women in Indian Constituent Assembly (भारतीय संविधान सभा में महिला सदस्य)
Proceedings of Constituent Assembly, as published by the Lok Sabha Secretariat, suggest that fifteen women Members were present throughout the tenure of the Constituent Assembly. These includes Ammu Swaminathan, Annie Mascarene, Begum Aizaz Rasul, Dakshayani Velayudan, G. Durgabai, Hansa Mehta, Kamla Chaudhri, Leela Ray, Malati Chowdhury, Purnima Banerji, Rajkumari Amrit Kaur, Renuka Ray, Sarojini Naidu, Sucheta Kripalani and Vijayalakshmi Pandit.
लोकसभा सचिवालय की ओर से प्रकाशित संविधान सभा की कार्यवाही के अनुसार, भारतीय संविधान सभा के कार्यकाल के दौरान पन्द्रह महिला सदस्य उपस्थित थी। इनमें, अमू स्वामीनाथन, एनी मासकरीन, बेगम ऐजाज रसूल, दक्षयनी वेलायुदन, जी दुर्गाबाई, हंसा मेहता, कमला चौधरी, लीला रे, मालती चौधरी, पूर्णिमा बनर्जी, राजकुमारी अमृत कौर, रेणुका रे, सरोजनी नायडू, सुचेता कृपलानी और विजयलक्ष्मी पंडित थी।
Friday, January 11, 2013
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First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान
कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...