आखिर लिव-इन और वन-नाइट-स्टैंड के नाम पर स्त्री को भरमाने वाली टीवी की दुनिया भी तो स्वयं में यही सब है या इसका दूसरा जीता जागता स्वरूप है ।
नहीं हो तो टीवी में डेस्क पर काम करने वाले बल्कि कहूं कि खटने वाले किसी भी युवा से पूछ लीजिए कि उन्हें रिर्पोटिंग की चमक-दमक से वंचित क्यों रखा जता है, सिर्फ किसी की कापी को ठीक करने या दोबारा लिखने के लिए ।
मीडिया का देह विमर्श भी तो इसका ही एक हिस्सा है, जिसके बारे में कोई भी बोलने से बचता है क्योंकि ऐसा कहने पर उस पर आसानी से मर्दवादी नजरिए के होने का ठप्पा आसानी से चस्पां दिया जाता है ।
दूसरी ओर, स्त्रीवादी विमर्श-संवाद के नाम पर तो घाटे मे तो स्त्री ही रहती है, जिसके साथ अंकशयन तो हर कोई करना चाहता है पर फेरे खाने में सभी स्त्रीवादी मर्दो को दिक्कत पेश आती है ।
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