Monday, April 1, 2013

World view:Life view: Kunwar Narain

जर्मन समीक्षा से निकले दो 'पद' मुझे अक्सर याद आते हैं --''जीवनदृष्टि '' और ''विश्वदृष्टि''. आज ऐसा नहीं लगता कि उच्च-कोटि की जीवनदृष्टि से हमारी विश्वदृष्टि बन रही है : उलटे संदेह होता है कि एक बिलकुल स्थूल और व्यावसायिक विश्वदृष्टि हमारी जीवनदृष्टि को बना रही है.
हमारे लिए जो सही है उसे चुनना है. क्या सच है, क्या महज विज्ञापन यह दुविधा केवल चीज़ों तक सीमित नहीं, साहित्य, कलाओं और विचारों को लेकर भी है. बाज़ार-संस्कृति की जिस अंतरराष्ट्रीय चकाचौंध में हम खड़े हैं क्या उसके पार भी हम कुछ देख पा रहे हैं ? ऐसा लगता है कि ज़्यादा दवाब ''बेस्ट-सेलर'' (सर्वाधिक बिकाऊ माल) के उत्पादन पर है, न कि ''बेस्ट'' ( सर्वश्रेष्ठ ) की खोज पर.
मीडिया में भी लाखों में बिकनेवाली किताबों का जिस जोरशोर से प्रचार और प्रसार होता है वैसा गंभीर और विचारशील साहित्य का नहीं. ऐसा नहीं कि इस समय बड़ा साहित्य भी नहीं लिखा जा रहा है, पर यह सवाल फिर भी अपनी जगह बना रहता है कि आज के जीवन में उत्‍कृष्‍ट की खोज इतनी उपेक्षित और निर्वासित-सी क्यों है?
साहित्य एक समानांतर इच्छालोक रचता है: कुंवर नारायण
[साहित्य अकादमी द्वारा महत्तर-सदस्यता प्रदान किये जाने के अवसर पर २० दिसंबर को दिया गया स्वीकृति वकतव्य]

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