Saturday, March 21, 2020

Nadir shah invasion Delhi_दिल्ली पर खूनी नादिरशाही हमला

21032020, दैनिक जागरण 




मुगल बादशाह मुहम्मद शाह के दौर और मुगलों के इतिहास की सबसे बड़ी दुखद घटना है-दिल्ली पर नादिरशाह का हमला। 1738-1739 में फारस (आज का ईरान) के शाह नादिरशाह ने मुगल साम्राज्य पर आक्रमण किया, जिसमें उसे पूरी सफलता मिली। उसने लाहौर और दिल्ली को जीतकर पूरी तरह तबाह-बर्बाद कर दिया।  


वर्ष 1739 तक मुगलिया सल्तनत की गिनती, एशिया की सबसे अमीर सल्तनतों में होती थी। तब मुगल साम्राज्य में आज का पूरा भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान आता था। इस पूरे इलाके पर मुगल दरबार, जो कि आपसी गुटबाजी, भीतरघात और रंजिशों का शिकार था, में तख्त-ए-ताऊस पर बैठने वाले अशक्त बादशाह मुहम्मद शाह की हुकूमत थी। मुहम्मद शाह उसके रसिक मिजाज और वारांगनाओं की संगति के कारण ‘रंगीला’ बादशाह भी कहा जाता था। ऐसे में, उसमें योद्धा के गुण को छोड़कर सब गुण थे।


यह मुहम्मदशाह के वक्त का दुर्भाग्य था कि तब हिंदुस्तान की उत्तर-पश्चिम सीमा पर फारस में एक जंगबाज नादिर शाह बादशाह बना। एक गरीब चरवाहे का बेटा नादिर शाह फौज में एक सिपाही के रूप में अपनी जिंदगी का आगाज किया था। नादिरशाह का मूल नाम नादिरकुली था जो कि 'अफ्शार' कबीले का था। नादिर कुली वर्ष 1736 में नादिरशाह के नाम से फारस का सुल्तान बना।


10 मई 1738 को नादिर शाह ने अफगानिस्तान पर हमला किया। अफगानिस्तान को जीतने के बाद 6 नवंबर, 1738 को नादिर शाह ने हिंदुस्तान की तरफ कूच किया। 13 फरवरी 1739 को नादिरशाह ने दिल्ली से पचहत्तर मील उत्तर स्थित करनाल (आज के हरियाणा में) में अपनी बंदूकधारी हथियारबंद डेढ़ लाख सिपाहियों की फौज के दम पर मुगलों की 10 लाख की सेना को हरा दिया। इस संयुक्त मुगल फौज, जिसमें दिल्ली के मुगल बादशाह, अवध के सआदत खान और दक्कन के निजामउल-मुल्क के सैनिक थे, की पराजय से यह बात तय हो गई कि मुगलों की यह भारी भरकम फौज एक अनुशासनहीन भीड़ के अलावा कुछ भी नहीं थी।


जवाहर लाल नेहरू ने "हिंदुस्तान की कहानी" पुस्तक में लिखा है कि उसके (नादिरशाह) लिए यह धावा कोई मुश्किल काम न था, क्योंकि दिल्ली के हाकिम कमजोर और नामर्द हो चुके थे और लड़ाई के आदी न रह गए थे और मराठों से नादिरशाह का सामना नहीं हुआ। उल्लेखनीय है कि मराठा पेशवा बाजीराव प्रथम ने मुगलों को सहायता देने के इरादे से एक सैन्य अभियान शुरू किया था।


करनाल की लड़ाई में हारने के एक सप्ताह बाद मुहम्मद शाह ईरानी हमलावर नादिर शाह के साथ दिल्ली आया। नादिरशाह का काफिला शालीमार बाग में ही रूका रहा जबकि मुहम्मदशाह 20 मार्च को लालकिले में खामोशी से पहुंचकर गद्दी पर बैठ गया। तो वहीं विजेता ईरानी बादशाह नादिर शाह 21 मार्च यानी नौरोज के दिन जीत के जश्न की शानोशौकत के साथ किले में दाखिल हुआ। लालकिले में नादिर शाह शाहजहां के महल में ठहरा जबकि मुहम्मद शाह को जनानखाने में जगह मिली।


खून से चुकानी पड़ी, अफवाह की कीमत

शामत-ए-अमल मा सूरत-ए-नादिर गिरफ्त
शहर में हुक्म-ए-नादिरी से कत्ल-ए-आम हुआ।
इसका अगला दिन (22 मार्च) मुगलिया राजधानी दिल्ली के इतिहास का सबसे काला दिन था। नादिर शाह की फौज ने दिल्ली शहर में डेरा डाल दिया। नतीजन शहर में अनाज महंगा हो गया। ऐसे में, ईरानी सैनिकों और पहाड़गंज के व्यापारियों में अनाज का दाम कम करने को लेकर झगड़ा हो गया। इसी बीच एक अफवाह उड़ गई कि नादिर शाह को उसके हरम के एक रक्षक ने मार दिया है। इस अफवाह फैलते ही स्थानीय जनता ने गुस्से में ईरानी सिपाहियों पर हमला कर दिया। इस अफरातफरी में करीब एक हजार ईरानी सिपाही मारे गए।


इसके जवाब में नादिर शाह ने दिल्ली की आम जनता के कत्लेआम का हुक्म दिया। नादिर अपने आदेश की निगरानी के लिए लाल किले से निकलकर चांदनी चौक स्थित रोशन-उद-दौला की सुनहरी मस्जिद पर पहुंच गया। उस दिन सुबह से कत्लेआम शुरू हो गया। चांदनी चौक, दरीबा और जामा मस्जिद के आसपास के इलाके में सबसे अधिक आबादी मारी गई। अकेले एक दिन में दिल्ली में करीब करीब 30 हजार नागरिक नादिरशाही हुकुम की वजह से बेरहमी से मारे गए।


मशहूर पाकिस्तानी कहानीकार इंतिजार हुसैन ने अपने उपन्यास "दिल्ली था जिसका नाम में" लिखा है कि आदमियों के गले खीरे ककड़ियों की तरह कटने लगे। जब एक लाख से ऊपर कट गए और लाशों के अम्बार लग गए तब नादिर शाह ने सांस लिया और उसके सिपाहियों ने हाथ रोका। नादिर शाह तो लूट-मार करके चला गया। मगर अब ये शहर जिसे शाहजहां ने इतने चाव से आबाद किया था बेहाल हो चुका था और बर्बादी ने घर देख लिया था। नादिर शाह ने निजामउल-मुल्क के अनुरोध पर अपने सिपाहियों को लूटपाट-हत्या बंद करने का आदेश तो दिया पर उसने निजाम के सामने उसे 100 करोड़ रुपए देने की शर्त रखी। इस बारे में तब के लाहौर के नाजिम के वकील आनंद राम मुखलिस ने लिखा है, ‘348 साल की अर्जित संपत्ति का मालिक कुछ क्षणों में ही बदल गया था।’


दो महीने तक कोहराम मचाने के बाद छोड़ी थी, दिल्ली
मुहम्मद शाह को जलील करने के इरादे से नादिर शाह ने भी अपने को दिल्ली में बादशाह घोषित किया और अपने लड़के नसरुल्लाह का निकाह औरंगजेब के पौत्र अजीजुद्दीन की बेटी से किया। जबकि मुहम्मद शाह ने अपनी जान और सल्तनत बचाने के इरादे से कोहिनूर हीरे और तख्ते-ताउस समेत अथाह खजाने को नादिरशाह को नजर कर दिया। मुहम्मदशाह एक कमजोर ढांचे का आदमी था। उसे अकसर बुखार रहता था। एक दिन पालकी में किले के अन्दर की मस्जिद में वह बेहोश हो गया। वह कुछ ठीक हुआ पर उसे लकवा मार गया। उसकी आवाज चली गयी। रात भर वह बेहोश रहा। 15 अप्रैल, 1748 को सुबह उसकी मृत्यु हो गयी।


दिल्ली के नादिरशाही सिक्के

20 मार्च, 1739 को नादिर शाह दिल्ली पहुंचा। यहां नादिर के नाम पर खुत्बा पढ़ा गया और सिक्के जारी किए गए। नादिरशाह ने मुगलशैली नुमा अपने सिक्कों पर सुल्तान नादिर अंकित करवाया। "उत्तर मुगलकालीन भारत का इतिहास" में सतीश चंद्र लिखते हैं कि सन्देह नहीं कि नादिरशाह ने मुगल बादशाह तथा उसके प्रमुख अमीरों को बन्दी बनाया, उसने कुछ समय तक दिल्ली में अपने को बादशाह घोषित करके अपना सिक्का चलाया। दिल्ली में नादिरशाह की हुकूमत का आतंक भारत के दूसरे भागों में भी तेजी से फैला। इसी आतंक का नतीजा था कि दिल्ली से दूर अहमदबाद, मुर्शिदाबाद और बनारस जैसे स्थानों पर नादिरशाह के नाम से सिक्के ढाले गए।


नादिर शाही दरबार के इतिहासकार मिर्जा महदीअस्तराबादी ने लिखा है कि ‘जब्त किए गए सामान में तख्त-ए-ताऊस के शाही रत्नों का कोई मुकाबला ही नहीं है। इस राजगद्दी पर दो करोड़ के मूल्य के रत्न जड़े हैं। पुखराज, माणिक्य और सबसे शानदार हीरे जिनका अतीत या वर्तमान में किसी भी खजाने में जोड़ दिखता ही नहीं। ऐसे रत्न जड़े तख्त-ए-ताऊस को तुरंत नादिर शाह के राजकोष में जमा करा दिया गया। दिल्ली में खौफनाक 57 दिन रहने के बाद 16 मई को नादिर शाह दिल्ली से विदा हुआ। और उसके साथ विदाई हुई मुगल सल्तनत की आठ पीढ़ियों की अथाह संपत्ति और खजाने की। लूट का पूरा साजो-सामान ‘700 हाथियों, 4000 ऊंटों और 12000 घोड़ों की मदद से अनेक गाड़ियां, जो कि सोने-चांदी और कीमती रत्नों से भरी थी, पर लादा गया।’


फारस का नामचीन शाह था, नादिर शाह    

नादिर ने दूसरी दिशाओं में भी अपना परचम लहराया। उसने बुखारा को जीतकर ईरान की सीमाओं को सासानी दौर के समय तक फैला दिया। वर्ष 1743 से 1746 तक वह तुर्कों के साथ संघर्ष में लिप्त रहा। नादिर के जीवन का आखिरी दौर अत्याचार, संदेह और लालच में ही बीते। वह अपने मौत के डर से इस कदर भयाक्रांत था कि वर्ष 1747 में विद्रोही कुर्दों के खिलाफ एक अभियान में उसने अपने बेटे को ही अंधा कर दिया। नादिर शाह की हत्या उसके अपने ही अंगरक्षकों ने की। वैसे उसने जिस अफ्सार वंश (1736-49) की नींव रखी, वह अधिक समय तक सत्ता में नहीं रहा। वह बात अलग है कि आज भी ईरान में नादिरशाह की गिनती फारस के महान शासकों में होती है।


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