Saturday, March 28, 2020

History of diseases and hospitals in British Delhi_अंग्रेज़ों की दिल्ली में रोग और निदान का इतिहास

28032020, दैनिक जागरण 





वर्ष 1803 में दिल्ली जीतने के बाद से ही अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी के राज में जन स्वास्थ्य के विषय पर बहुधा चर्चा होती थी। ऐसा अंग्रेजों के लिए दिल्ली का एक महत्वपूर्ण सैनिक ठिकाना होने और उसके उत्तर पश्चिमी सूबे की राजधानी बनने की संभावना के कारण भी था।


19वीं शताब्दी के आरंभ में अंग्रेजों में भारतीय रोगों और जन स्वास्थ्य की समस्याओं को लेकर अधिक समझ नहीं विकसित हुई थी। पर इन रोगों के मूल कारणों की तह तक पहुंचने और उनके उपायों को खोजने के प्रयास होने लगे थे, चाहे उसमें विदेशी हुकुमरानों की अपनी गरज़ थी।


किसी बीमारी का अचानक ही बृहत् रूप में किसी आबादी को प्रभावित करना महामारी कहलाता है। महामारी के अंग्रेजी रूपान्तरण एपिडेमिक का शाब्दिक अर्थ लोगों पर है। पहले महामारी का प्रयोग संक्रामक रोग के लिए किया जाता था। जैसे मलेरिया, बड़ी माता, चेचक और हैजा। अंग्रेज़ों की दिल्ली में प्रचलित रोगों जैसे हैजा, मलेरिया और दिल्ली सोर के लिए यही माना गया कि ये सभी रोग जल जनित छूत के कारण होते हैं। और इन रोगों का फैलाव बहते पानी, कुंए के खारे पानी और तालाबों के ठहरे पानी के कारण होता है। वर्ष 1817 में नजफगढ़ झील के पानी की निकासी की एक योजना बनाई गई थी। पर शायद इसके निर्माण पर होने वाली खर्च की राशि को देखते हुए इस योजना का श्रीगणेश ही नहीं हुआ।


दिल्ली शहर में सफाई के इंतजाम आरंभ से ही भीतर के क्षेत्र में पानी की आपूर्ति से जुड़े हुए थे। अली मर्दन नहर सूख चुकी थी। वर्ष 1852 में शहर के गंदे पानी की निकासी व्यवस्था को लेकर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने पर गंभीरता से विचार किया गया। यहां तक कि अत्याधिक तापमान वाले उजाड़ रिज को भी सैनिकों के स्वास्थ्य के लिए खतरा माना गया। जहां पर तब दो साल से अधिक समय से (1857 के बाद) अंग्रेज फौज की टुकड़ियां टिकी हुई थी । उल्लेखनीय है कि अंग्रेज सेनापति बर्नार्ड 5 जुलाई 1857 को हैजे से ही मरा था।
इसी वजह से तत्कालीन शीर्ष अंग्रेज सैनिक अधिकारी चार्ल्स नेपियर को हैरानी थी कि अगर दिल्ली अस्वास्थप्रद है तो फिर यह इतना भव्य नगर कैसे बना? वह इस बात को जानना चाहता था। शहर को साफ रखने के लिए कठोरता से नियम पालन करवाने वाली पुलिस, नहर से सिंचाई के बारे में सफाई के उपयुक्त नियम, नहरों के साफ किनारे, क्योंकि वहीं से मलेरिया बहुत तेजी से फैलता है, इस तरह ही दिल्ली भारत के किसी भी दूसरे भाग की तरह स्वस्थ होगी।
"औपनिवेशिक पंजाब में महामारी का सामाजिक इतिहास" के अनुसार, वर्ष 1842, 1846 और 1849 में दिल्ली में चेचक की महामारी फैली थी। जैसोर के सिविल सर्जन डाक्टर टाइटलर ने अपनी एक रिपोर्ट में वर्ष 1817 में जैसोर में एक बड़ी महामारी के होने और उसके दिल्ली, बरेली, इलाहाबाद और शाहजहांपुर तक फैलने का उल्लेख किया है। "भारत में रोग और दवाः एक ऐतिहासिक परिदृश्य" पुस्तक में वर्ष 1826 की पहली तिमाही में हैजे के बंगाल के निचले भाग से शुरू होकर गंगा के किनारे-किनारे बनारस, कानपुर, आगरा और मथुरा से होते हुए दिल्ली तक फैलने का पता चलता है।


19वीं शताब्दी के आरम्भ में स्वास्थ्य का स्तर बहुत निम्न था क्योंकि पश्चिमी यमुना नहर के दोषपूर्ण तरीके से जुड़े होने और उनके फलस्वरूप पानी जमा होने के कारण दिल्ली में और इस शहर के चारों ओर बुखार मुख्य बीमारी के रूप में फैलता था। अंग्रेज सरकार ने वर्ष 1847 में स्वास्थ्य की स्थिति की मांग के लिए एक समिति बनाई और चिकित्सा अधिकारी ने रिपोर्ट दी कि 75 प्रतिशत से भी अधिक लोगों को प्लीहा (स्पलीन) की बीमारी है। वर्ष 1867 में भारत सरकार ने दूसरी जांच समिति बनाई। तब दिल्ली पंजाब सरकार का एक जिला थी और चिकित्सा व जन स्वास्थ्य व्यवस्था पंजारा सरकार के सिविल सर्जन के अधीन थी। सिविल सर्जन दिल्ली ने प्लीहा की बीमारी बहुत अधिक होने की और दल-दल से जल निकासी की व्यवस्था की कमी से इसका निकट सम्बन्ध होने की रिपोर्ट दी। सन् 1898 में शहर को नया रूप देने से स्थानीय जनता के स्वास्थ्य की संतोषजनक स्थिति सामने आई और प्लीहा की बीमारी के मामले घटने आरंभ हो गए।


मुगल दरबार के व्यक्तियों, बैंकरों और बनियों ने खुले हाथ से दिल्ली में एक शाही शहर के लायक एक प्रस्तावित डिस्पेंसरी के लिए अंशदान किया। जहां स्थानीय स्तर पर जमा चंदे से इस काम के लिए करीब दस हजार रूपए जुटे वहीं अंग्रेज सरकार ने केवल 2500 रूपए धनराशि ही स्वीकृत की। वर्ष 1850 में अंग्रेज भारत के शहरों में जन स्वास्थ्य के लिए जनता से कर उगाही के लिए कमेटियों के गठन को लेकर एक अधिनियम बना। वर्ष 1857 के छह वर्ष बाद वर्ष 1863 में दिल्ली नगर निगम की बुनियाद पड़ी। उसकी पहली सभा 1 जून 1863 के दिन हुई। सन् 1881 में इसे प्रथम दर्जे की म्युनिसिपल कमेटी बना दिया गया। उस वक्त इसके 21 सदस्य थे जो सब नामजद थे।


वर्ष 1898 में प्लेग के डर की वजह से अंग्रेजों ने यूरोपीय क्लब चांदनी चौक के टाउन हाल से लुडलो कैसल स्थानांतरित किया। अंग्रेजों ने सिविल लाइन को अपनी दिल्ली बना लिया था और शहर की ओर वे कहर की दृष्टि से देखते थे। सिविल लाइन में उनके बड़े-बड़े आलीशान बंगले थे, उनकी अपनी क्लब थी, जिसमें हिन्दुस्तानी शरीक नहीं हो सकते थे, सब प्रकार की सुविधा और साधन वहां मौजूद थे और दिल्ली बेकसी की हालत में थी। शहर की सफाई और सेहत की हालत यह थी कि मलेरिया और मौसमी बुखार तो फैला ही रहता था, प्लेग का भी हमला हो जाता था।

वर्ष 1911 में जब अंग्रेज़ राजा शाह जार्ज पंचम का दिल्ली में दरबार हुआ तो उसने कलकत्ते से राजधानी को हटा कर दिल्ली को राजधानी घोषित कर दिया। लाचार अंग्रेजों को भी दिल्ली की दुरुस्ती की ओर ध्यान देना पड़ा। यह कोई हिन्दुस्तानियों पर इनायत करने के लिए न था, बल्कि खुद अपने को खतरे से बचाने के लिए था क्योंकि दिल्ली की सेहत खराब रहने से उनको अपने लिए खतरा था।
पुराने दस्तावेजों से पता चलता है कि दिल्ली काफी हद तक मलेरिया से प्रभावित रही है। यह रोग विशेषकर नदी के निकटवर्ती क्षेत्र में और नजफगढ़ झील के चारों ओर फैलता था। अंग्रेजों के समय लाल किले में रहने वाले सैनिकों की विशेष देखभाल आवश्यक होती थी क्योंकि लाल किले के अंदर और उसके चारों ओर मलेरिया का भारी प्रकोप होता था।


दिल्ली में वर्ष 1912 के बाद जन्म-मृत्यु के आंकड़े अलग-अलग पंजीकृत करने की शुरूआत हुई। राजधानी में 1914-1941 के बीच मृत्यु दर का आंकड़ा दोहरे अंक में था जो कि आजादी के बाद एकल अंक में आया।
1930 और 1940 की दशक में दिल्ली में सबसे अधिक व्यक्तियों की मृत्यु श्वास संबंधी बीमारियों से (4538 और 6151), ज्वर (6879 और 3906), चेचक (398 और 152) से हुई। जबकि कुल मिलाकर, 1930 के दशक में 16117 और 1940 के दशक में 19399 रोगियों की मौत हुई। जबकि दिल्ली में शहरी क्षेत्रों में मलेरिया से सम्बन्धित कार्य वर्ष वर्ष 1936 से आरंभ हुआ था।

अंग्रेजों के ज़माने के अस्पताल


जामा मस्जिद के पास जो डफरिन अस्पताल था, 1885-93 में लार्ड डफरिन ने उसका शिलान्यास किया था। यह 1892-93 में बन कर तैयार हुआ। दिल्ली में यह पहला अंग्रेजी अस्पताल था। इसकी एक मंजिल जमीनदोज थी, एक ऊपर। जब इरविन अस्पताल बना तो यह अस्पताल वहां चला गया और यहां डिस्पेंसरी रह गई। 1857 की आजादी की लड़ाई से पहले लाल किले के पास लाल डिग्गी में एक छोटा सा अस्पताल आठ बिस्तरों का हुआ करता था, जो कि 1857 के बाद खत्म हो गया।


सेंट स्टीफेंस अस्पताल वर्ष 1884 को चांदनी चौक में जहां अब सेंट्रल बैंक है, अंग्रेज महिला विंटर की याद में वर्ष 1884 में औरतों के लिए बनाया गया था। डचेच ऑफ़ कनाट ने 8 जनवरी को इसका शिलान्यास किया था और वर्ष 1885 में लेडी डफरिन ने इसका उद्घाटन किया था। यह इमारत लाल पत्थर की बनाई गई थी, जो दो मंजिला थी। कुछ ही वर्ष में इसकी इमारत छोटी पड़ गई, तब तीस हजारी में फूंस की सराय के सामने वर्ष 1906 में लेडी मिंटो ने एक दूसरे अस्पताल का शिलान्यास किया। जनवरी 1909 में लेडी लेन ने उसका उद्घाटन किया। अब जीपीएस और केम्ब्रिज मिशन इस अस्पताल को चलाते हैं।


वर्ष 1904 में दिल्ली में औरतों के विक्टोरिया जनाना अस्पताल का शिलान्यास 19 फरवरी 1904 को लेडी रिवाज द्वारा जामा मस्जिद के मछलीवालां में किया गया था। अब तो यह बहुत बढ़ गया है। दिल्ली में तब औरतों के तीन अस्पताल थे। एक यह, दूसरा फूंस की सराय पर मिशनरियों का, जो पहले चांदनी चौक में हुआ करता था और तीसरा लेडी हार्डिंग अस्पताल।


लेडी हार्डिंग अस्पताल की स्थापना वर्ष 1912 में लेडी हार्डिंग ने की। उसी के नाम पर इसे चलाया गया, करीब तीस लाख रूपया इसके लिए हिंदुस्तानी राजाओं तथा अन्य लोगों से जमा किया गया। कालेज के साथ इसमें दो सौ मरीजों को रखने के लिए अस्पताल भी खोला गया। साथ ही एक नर्सिंग स्कूल और सौ छात्रों के लिए छात्रावास भी खोला गया। इस पर कुल लागत 3391301 रूपए आई। इरविन अस्पताल का शिलान्यास वर्ष 1930 में लार्ड इरविन द्वारा हुआ था मगर यह बनना शुरू हुआ वर्ष 1934 में और अप्रैल 1935 में बन कर तैयार हुआ। करीब छब्बीस लाख रूपया इस पर खर्च आया। इसमें 320 मरीजों की गुंजाइश रखी गई थी। 20 पारिवारिक वार्ड बनाए गए और दस विशेष वार्ड। लार्ड इरविन के बाद वर्ष 1932 में लार्ड विलिंगडन आया, जो वर्ष 1936 तक दिल्ली में रहा। इसके जमाने की यादगार विलिंगडन अस्पताल है। यह नई दिल्ली के गोल डाकखाने के पास स्थित है। अब यह राम मनोहर लोहिया अस्पताल कहलाता है।


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