Sunday, March 8, 2020

Holi festival in Muslim era_बीते दौर की दिल्ली वाली होली




किसी भी समाज के उत्सव का उत्स स्थानीयता में निहित होता है। आखिर जीवन पद्वति का लोकपक्ष गढ़ने में स्थानीय कारक ही महत्वपूर्ण होता है। ऐसे में अगर बीते दौर की  बात करें तो मशहूर यात्री अल बेरुनी ले किताब-अल-हिन्द (भारत के दिन) में होलिकोत्सव का विवरण दिया है। जबकि "पद्मावत" लिखने वाले दिल्ली सल्तनत के खिलजी वंश के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के समकालीन मलिक मोहम्मद जायसी के अनुसार होली के समय गांवों में इतना गुलाल उड़ता था कि खेत भी गुलाल से लाल हो जाते थे। खिलजी दरबार के प्रमुख दरबारी अमीर खुसरो ने अपनी आंखों देखी होली का बखान किया है, दैय्या रे मोहे भिजोया री, 
शाह निजाम के रंग में, 
कपड़े रंग के कुछ न होत है, 
या रंग में तन को डुबोया री।

मुगलिया दौर में बारिश के मौसम के आते के साथ ही होली की तर्ज पर उत्सव होता था, जिसे जहांगीर ने ”आब-ए-पश्म“ और अब्दुल हमीद लाहोरी ने ”ईद-ए-गुलाबी“ कहा है, इसमें सरदार-मनसबदार एक-दूसरे पर गुलाबजल छिड़कते थे। मुगल बादशाह शाहजहाँ के दौर में राजधानी के आगरा से बदलकर शाहजहाँनाबाद होने के साथ होली मनाने का ढंग भी बदला। खुदाबक्श लाइब्रेरी में मौजूद एक चित्र से यह बात साबित होती है। उस समय होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी रंगों की बौछार कहा जाता था। तब दिल्ली में होली के मौके पर लाल किले के पीछे बहने वाली यमुना के किनारे लगे आम के बागों में होली के मेले होते थे।

हिन्दुओं पर दोबारा जजिया लगाने वाले बादशाह औरंगजेब के दौर में मुगलिया दरबार में होली, दीपावली और बसन्त के आयोजनों पर रोक लगी। पर दिल्ली के आम जीवन में होली बदस्तूर जारी रही। औरंगजेब के समकालीन शायर फायज देहलवी ने दिल्ली की होली का बयान करते हुए लिखा है, 
ले अबीर और अरगजा भरकर रुमाल, 
छिड़कते हैं और उड़ाते हैं गुलाल, 
ज्यूं झड़ी हर सू है पिचकारी की धार, 
दौड़ती हैं नारियाँ बिजली की सार।

यहां तक कि औरंगजेब के मामा शाइस्ता खां का मुगल शैली में होली खेलते हुए एक चित्र मौजूद है। जो उस दौर में खास से लेकर आम तक की होली में भागीदारी को साबित करता है। दिल्ली के एक और नामचीन शायर मीर तकी मीर ने लिखा है कि 
आओ साकी, 
शराब नोश करें शोर-सा है, 
जहाँ में गोश करें, 
आओ साकी बहार फिर आई, 
होली में कितनी शादियाँ लाई।

अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर अपनी रियाया के साथ बड़े शौक-जोश से होली मनाते थे। ”जफर“ की कही हुई ”होरियां“ बहुत चाव से गाई जातीं। उनका यह होली का गीत उनकी भावनाओं को व्यक्त करता थाः क्यों मों पे मारी रंग की पिचकारी, 
देखो कुंवरजी दूँगी गारी, 
भाज सकूँ मैं कैसे मोसों भाजा नहीं जात, 
ठारे अब देखूँ मैं कौन जू दिन रात, 
शोख रंग ऐसी ढीठ लंगर से कौन खेले होरी, 
मुख बंदे और हाथ मरोरे करके वह बरजोरी।

‘सिराज-उल-अखबार’ के तीसवें खंड में भी होली के उत्सव का बड़ा अच्छा वर्णन है। उसके अनुसार, बादशाह खुद भी हिंदू-मुस्लिम अमीरों के साथ झरोखों में बैठते और शहर में जितने भी स्वांग भरे जाते सब झरोखे के नीचे से होकर गुजरते और इनाम पाते। बादशाही नाच-गान मंडलियों के लोग भी होली खेलते। बादशाह के हुजूर में पूरी होली खेली जाती थी और तख्त के कहारों को इस मौके पर एक-एक अशर्फी इनाम के तौर पर मिलती थी।

दो चित्रकारों निधा मल और चित्रामन ने जफर के पौत्र मोहम्मद शाह रंगीला के होली खेलते हुए चित्र बनाए थे। आज ये चित्र एक ऐतिहासिक धरोहर हैं। 18वीं शताब्दी के बाद भारतीय मुस्लिमों पर भी होली का रंग चढ़ने लगा। तात्कालिक लेखक मिर्जा मोहम्मद हसन खत्री (मुस्लिम बनने से पहले दीवान सिंह खत्री) अपनी एक अरबी पुस्तक “हफ्त तमाशा” में लिखा है कि भारत में अफगानी और कुछ कट्टर मुस्लिमों को छोड़कर सभी भारतीय मुस्लिम होली खेलने लगे थे। लेकिन जैसे-जैसे सत्ता बदलती गई, वैसे-वैसे उन्होंने होली खेलना भी बंद कर दिया।




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