याद आ गया गुजरा जमाना...
फेसबुक पर बचपन में महत्वपूर्ण किताबों को खरीद न पाने की औकात ओर ऐसी किताबों के लाइब्रेरी में उपलब्ध न होने की एक मित्र की पोस्ट से अपना भी गुजरा हुआ बचपन याद आ गया।
पता चलता है कि हम भाग्यवान थे कि पहले ऐसी किताबों का पता नहीं था और जब कालेज में पता चला तो मां के स्नेह के कारण किताब खरीदने में मायूसी नहीं देखनी पड़ी।
इस पोस्ट से याद आया कि मैं भी कालेज के समय में मुहल्ले के मंदिर की लाइब्रेरी में अखबार के साथ आने वाले इश्तहारी पेम्पलेटों के पीछे खाली जगह में नकल उतारता था। ये नकलें कुछ किताबों की तो कुछ अखबारों के लेखों की होती थी।
सच में वे भी क्या दिन थे।
अकेले तो सही में भयावह समय है.
ऐसे में परिवार में रहते हुए चाहे आपस में कितनी भी जूतम पैजार है, लाख दर्जे सही है.
कम से कम आपको जीवन के स्पंदन और उसकी रागात्मकता का तो अहसास बना रहता है.
फिर चाहे अरसे बाद परिवार के इतनी देर साथ रहना सजा ही क्यों न लगती हो.
यह सजा भी फलदायी है जो कि आख़िरकार बड़े से लेकर बच्चों के प्रति सम्मान और स्नेह और पत्नी के प्रति प्रेम को विस्तारित ही करेगा.
नहीं तो नौकरी-कैरियर की इस चूहा दौड़ ने पहुँचाया तो कहीं नहीं पर परिवार में भी सबको निपट अकेला कर ही दिया है.
अब परिवार की इस हथिय, राजस्थान में चौपाल का एक नाम, के गुलज़ार होने से दिल के गिले-शिकवे भी दूर हो रहे है और मन के कोने में हुआ अँधियारा भी प्रकाश से दूर हो रहा है. आखिर हमारे वेदों में अँधेरे से उजाले की तरफ को जाना ही तो जीवन का मर्म माना गया है.
सभी सरकारों को देश भर में सड़क पर फंसे नागरिकों के लिए गुरुद्वारों को लंगर केंद्रों के रूप में विकसित करने की पहल करनी चाहिए. इसके लिए स्थानीय स्तर पर सिख समाज से बात करके उन्हें भोजन के लिए जरुरी रसद-सामग्री प्रदान करवाने की पहल होनी चाहिए.
सेवा के पर्याय सिख समाज के रूप में मानवीय सहायता और गुरुद्वारों के रूप में भवन और अन्य व्यवस्था पहले से ही मौजूद है. इससे बिना भगदड़ के कम दूरी पर बेसहारा और इस चीनी महामारी के कारण रास्तों में फंसे नागरिकों को बड़ी सहायता मिल सकती है.
मेरा दृढ़ विश्वास है कि भोजन के रूप में गुरु का प्रसाद, हम सबके लिए इस महामारी से मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त करेगा.
नापाक चीन का ख़ामियाज़ा भुगतती दुनिया
चीन के वुहान कोरोना विषाणु से उपजी राष्ट्रीय आपदा के समय में भी पड़ोसी महजबी मुल्क़ की गोलबारी जारी है। बाक़ी हमारी लाल रुदाली जमात हिंदुस्तान के इज़रायल से प्रतिरक्षा के हथियार ख़रीद पर छाती पिट रही है। एक जैविक युद्ध, एक प्रत्यक्ष आतंकवाद समर्थक युद्ध और एक देशी बुद्धिजीवियों का पर-राष्ट्र समर्थक युद्ध! कितने मोर्चों पर कितनी बार? वैसे पुँछ में सेना का एक पोर्टर मुहम्मद शौक़त पाक की नापाक हरकत के कारण शहीद हो गया है।
कुछ बुद्धिजीवी इस संकट की घड़ी में देश-समाज का उत्साहवर्धन करने की अपेक्षा अपने कुतर्क को सही बताने के लिए अशालीन ही नहीं अश्लील तक होने में गुरेज़ नहीं कर रहे।
जीवन में चिंता तो सदा चिता समान ही होती है। सो, न करें तो आपके मानस के लिए सबसे बेहतर।
महामुनि थोरो ने कहीं "इरादेपूर्वक" जीने की बात कही है।
जीवन के "ध्येय" के बारे में काफी लोग चिंतन-मंथन करते रहते हैं।
ऐसा चिंतन-मंथन छोड़कर यदि वे जीने लग जाएं तो शायद समझ आ जाए कि जीना ही हमारा जीवन ध्येय है।
शहर में यह सुख है कि यहां भ्रांतियां सुरक्षित रहती हैं शायद इसीलिए गांव टूटते जाते हैं।
सच का गांव नहीं होता, झूठ का पांव नहीं होता।
राजस्थान की इस कहावत को गढ़ने वाले को तो "फेक न्यूज" की कल्पना भी नहीं हो
कामदेव के ताप के सिवा दूसरा ताप नहीं, प्रणय के कलह के सिवा दूसरा कलह नहीं, यौवन के सिवा दूसरी कोई अवस्था नहीं।
-कालिदास
कुछ राज्य सभा के आकांक्षी वहाँ न पहुँच पाने के कारण फ़ेसबुक को ही उच्च सदन मानकर दे-दनादन सुझाव दिए जा रहे हैं। जैसे कई सांसद प्राइवेट मेम्बर बिल लाकर अपने इलाक़े और इलाक़े के लोगों को बताते है कि देखो मैंने कितना भारी सुझाव-सलाह दी। और उसे माना नहीं गया। जैसे सदन की कार्रवाई में होता है, ऐसे बिलों को रिकार्ड के लिए नत्थी कर दिया जाता है। अगर सरकार को सुझाव देने वाले हर व्यक्ति को प्रति सुझाव पर चीन के वुहान विषाणु से ग्रसित रोगी की सेवा करने पर तैनात करने का प्रावधान कर दिया जाए तो Facebook पर पोस्टों की गिनती कम हो जायेगी। आख़िर कहावत, पर उपदेश कुशल बहुतेरे भी तो हिंदुस्तान की ही है न!
आज मासूमों की हत्या करने में अंग्रेज़ों की हुकूमत को भी पीछे छोड़ने वाले इन नकली-लाल नक्सलियों की क्रांति के नाम पर मानव हिंसा को देखकर शहीद भगत सिंह की आत्मा भी रो देती।
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