Thursday, February 28, 2013
friendship
friendship is another mode of increasing each-other's knowledge, it may be in any form, on mutual respect and understanding.
Tuesday, February 26, 2013
Bangladesh: Farah Ghuznavi
The memory of the Holocaust is alive and well, and the lobbying and the demands around it continue. It would be almost shameful if we forgot that quickly. For example, the Pakistan government has never apologised properly, there have never been reparations paid. You can’t heal until you cauterize a wound. You can’t just keep changing the dressing on it and refusing to do the actual lancing of a boil that is required.
Cauterizing the wounds of 1971
Farah Ghuznavi, Bangladeshi writer, columnist and development worker
http://www.thehindu.com/opinion/interview/cauterizing-the-wounds-of-1971/article4452583.ece
Monday, February 25, 2013
Mountain-River: a difference in approach
Sunday, February 24, 2013
Ghalib:Meer
ग़ालिब के बारे में मीर का मानना था कि:
अगर इस लड़के को कोई कामिल उस्ताद मिल गया और उसने इसे सीधे रास्ते पर डाल दिया, तो लाजवाब शायर बनेगा, वरना मोहमल (अर्थहीन) बकने लगेगा।
उर्दू-साहित्य को मीर और ग़ालिब से क्या हासिल हुआ, इस बारे में अपनी पुस्तक "ग़ालिब" में रामनाथ सुमन कहते हैं:जिन कवियों के कारण उर्दू अमर हुई और उसमें ‘ब़हारे बेख़िज़ाँ’ आई उनमें मीर और ग़ालिब सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। मीर ने उसे घुलावट, मृदुता, सरलता, प्रेम की तल्लीनता और अनुभूति दी तो ग़ालिब ने उसे गहराई, बात को रहस्य बनाकर कहने का ढंग, ख़मोपेच, नवीनता और अलंकरण दिये।
Ghalib:British
मुसलमान हूँ पर आधा : एक बार ग़ालिब को अंग्रेजों ने पकड़ लिया और सार्जेंट के सामने पेश किया। उनका वेश देखकर पूछा- क्या तुम मुसलमान हो? तब ग़ालिब ने जवाब दिया कि मुसलमान हूँ पर आधा, शराब पीता हूँ, सूअर नहीं खाता।
ग़ालिब ने जीवन को कोरे कागज पर दिल को कलम बनाकर दर्द की स्याही से जज्बात उकेरे। उनका फलसफा अलहदा था...
था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता।
डुबोया मुझ को होने ने, न होता मैं तो क्या होता।
ghalib:agra:birthplace
Saturday, February 23, 2013
Division within Church in India
मै भंडारा के एक चर्च में प्रिस्ट हूँ. पर हर जगह भेदभाव है..........मेरे प्रिस्ट होने के बाद भी नागपुर डायोसिस में मेरे साथ भेदभाव होता है, सारे डायोसिस पर मलयाली लोगों का कब्जा है बिशप, सारे फादर्स और सारी सिस्टर्स भी मलयाली है और वहाँ जो भेदभाव हमारे जैसो के साथ होता है वो मै आपको बता नहीं सकता. मेरा हमेशा बिशप से लड़ाई होता है पर क्या करें .......मै प्रिस्ट हूँ पर कोई नहीं सुनता, मेरे चर्च को रूपया नहीं मिलता, क्या मैने दारू पी है ............जी हाँ मैंने खूब दारू पी है मैने भी थियोलोजी पढ़ी है पांच साल, भाड़ नहीं झोकी, पर क्या करूँ ............कुछ नहीं कर सकता.......आप तों सब लिख सकते है ना जाये जरुर लिखे जहां भी लिख सकते है लिखे मै एक लड़ाई लड़ रहा हूँ और इस लड़ाई में मुझे जीतना है--चाहे चर्च का भेदभाव हो या तेलंगाना का......मै लड़ रहा हूँ ..........ट्रेन आ रही थी और "फादर प्रसाद" जो मात्र उनतीस साल का युवा है एकदम काला और ठेठ आदिवासी खम्मम के किसी दूर दराज के गाँव का रहने वाला, हिन्दी तों बोलता है थोड़ी बहुत सही अंग्रेजी भी बोलता है अपनी दुर्दशा बयाँ कर रहा था. और मुझे लग रहा था कि तेजिंदर के उपन्यास "काला पादरी" का हीरो कल रात मुझे मिल गया तेलंगाना के बहाने वो धर्म परिवर्तन और सम्पूर्ण चर्च की राजनीति को बयाँ कर रहा था.
http://sandipnaik.blogspot.in/2012/10/blog-post_31.html
Friday, February 22, 2013
'politically invested' intellectual
Wednesday, February 20, 2013
Britain: jaliawala bagh
इंग्लैंड के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने जलियांवाला बाग में श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए 'विजिटर्स बुक' में लिखा है, "ब्रितानी इतिहास में यह एक बेहद शर्मनाक घटना रही जिसे विंस्टन चर्चिल ने भी एक "राक्षसी घटना" करार दिया था।
कैमरन शहीदी लाट पर पुष्पचक्र अर्पित करते हुए घुटनों के बल झुके। एक मिनट मौन धारण कर शहीदों को नमन किया। कैमरन का शहीदी लाट पर झुकना 'माफी' का अहसास है।
वर्ष 1926 में इंग्लैंड के तत्कालीन सांसद रदर फोर्ड जलियांवाला बाग आए थे तो उन्होंने विजिटर बुक में लिखा था, 'एक दिन ऐसा आएगा कि जब इंग्लैंड का कोई प्रधानमंत्री यहां शहीद हुए शहीदों को श्रद्धासुमन भेंट करेगा।' उनकी यह भविष्यवाणी सच साबित हुई है।
Sunday, February 17, 2013
China can fall like USSR
अगर वैचारिक विद्रोह से सामना हुआ तो सीपीसी का हश्र सोवियत संघ की तरह हो सकता है. आखिरकार सोवियत संघ के आखिरी नेता मिखाइल गोर्बाच्योफ की ओर से सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के पतन का एलान किया गया और सबकुछ खत्म हो गया. कोई विरोध जताने भी नहीं आया.
चीन की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) के नए नेता शी चिनफिंग
http://www.samaylive.com/international-news-in-hindi/194403/xi-warns-cpc-of-soviet-style-collapse-if-faced-with-dissent.html
TV: audience: Sanjay leela Bhansali
आज टीवी की पहुंच फिल्मों से ज्यादा है। छोटे पर्दे के दर्शकों की संख्या फिल्मों से करीब करीब दोगुनी या कहीं कहीं तीन गुनी भी है। यह एक अदभुत प्रेम कहानी है। मुझे लगा कि इसे प्रस्तुत करने के लिए टीवी अच्छा माध्यम होगा। मैं पहले इस पर फिल्म बनाना चाहता था लेकिन बाद में टीवी पर प्रस्तुत करना बेहतर लगा।
प्रसिद्ध गुजराती उपन्यास सरस्वतीचंद्र पर टीवी धारावाहिक लेकर आ रहे फिल्मकार संजय लीला भंसाली के अनुसार पहले वह इस कहानी पर फिल्म बनाना चाहते थे लेकिन बाद में उन्हें इसे छोटे पर्दे पर प्रस्तुत करने का विचार बेहतर लगा।
लेखक गोवर्धनराम माधवराम त्रिपाठी द्वारा लिखे गये गुजराती उपन्यास सरस्वतीचंद्र की कहानी 20वीं सदी की शुरूआत की पृष्ठभूमि में रची गयी है और दो गुजराती परिवारों के इर्दगिर्द घूमती है।
http://www.livehindustan.com/news/entertainment/entertainmentnews/article1-saraswatichandra-sanjay-leela-bhansali-film-maker-28-28-308798.html
Dialouge
Beyond Reporting
Saturday, February 16, 2013
Friday, February 15, 2013
Sarmad:Jew Saint of India
सरमद का कत्ल कर दिया गया मुगल बादशाह औरंगज़ेब के हुक्म से। उसने मुल्लाओं के साथ साजिश की थी। लेकिन सरमद हंसता रहा। उसने कहा, मरने के बाद भी मैं यहीं कहूंगा। दिल्ली की विशाल जामा मस्जिद, जहां सरमद का कत्ल हुआ, इस महान व्यक्ति की समृति लिये खड़ी है।
दिल्ली की मशहूर जामा मस्जिद से कुछ ही दूर, बल्कि बहुत करीब, एक मज़ार है जिस पर हजारों मुरीद फूल चढ़ाते, चादर उढ़ाने आते है। इत्र की बोतलों और लोबान की खुशबू से महक उठता है उसका परिवेश। वह मज़ार है हज़रत सईद सरमद की।
सरमद एक यहूदी सौदागर था, जो सत्रहवीं सदी में पैदा हुआ—शायद पैलेस्टाइन में।
संत भीखा, गुलाल साहब के शिष्य थे और गृहस्थ जीवन जीते थे। सिर से पैर तक भीगा हुआ सरमद भीखा पर कुरबान हो गया। सारा आना-जाना समाप्त हुआ। इससे पहले ऐयाशी की जिंदगी जी रहे सरमद ने अब फकिराना गिरेबान पहन लिया। अब उसे भीखा के सिवाय कुछ सूझता ही नहीं था। ऐसा क्या जादू किया भीखा ने?
भीखा ने एक ही करिश्मा किया: सरमद का रूख बाहर से भीतर की और मोड़ दिया। बहुत घूम लिये बाजारों और जंगलों में, अब भीतर ठहर जाओं। अपने जिस्म में ही काबा और काशी है, उसे ढूंढो। और सरमद ने वाकई उसे ढूंढ लिया।
दिल्ली में दो मुगल बादशाहों की सल्तनत के दौरों से सरमद गुजरा: शाहजहां और उसका बेटा औरंगज़ेब। शाहजहां ने उसे बहुत इज्जत बख्शी और औरंगज़ेब ने मौत।
सरमद का सिर क्यों कलम किया गया इस पर उसकी जीवनी लिखने वालों में मतभेद है। एक मत के अनुसार सरमद गति कलमा पढ़ता था इसलिए उसे सज़ा-ए-मौत दी गई। ‘’ला इलाह इल तल्लाह’’ की जगह वह सिर्फ ‘’ला इलाह’’ कहता था, जिसका मतलब होता है कोई खुदा नहीं है। लेकिन सवाल यह है कि सरमद मुसलमान नहीं था, यहूदी था। फिर उस पर कुरान की तौहीन करने का इल्जाम कैसे लगाया जा सकता है? इसका जवाब कोई नहीं दे सकता।
औरंगज़ेब 1658 में तख़्तनशीन हुआ और उसने 1659 में सरमद का कांटा हटा दिया। सरमद को मारकर उसे तसल्ली नहीं हुई। उसने सरमद की सारी रूबाइयात जला दी। किसी तरह 321 रूबाइयां औरंगज़ेब के चंगुल से बच गई।
सरमद की रूबाइयां मूल फारसी भाषा में लिखी गई है। उन्हें लखनऊ के मुन्शी सैयद नवाब अली ने उर्दू में अनुवादित किया। यहूदी लेखक आई. ए. इज़िकेल जो कि एक साधक थे, उन्होंने अपने अन्य सत्संगी मित्रों की मदद से इन रबाइयों का अंग्रेजी अनुवाद किया।
(सरमद : भारत का यहूदी संत—ओशो )
Wednesday, February 13, 2013
Tuesday, February 12, 2013
Past heavy on Present
When a notion or an idea about the past becomes more prominent than the real history, the danger arises of fading truth from the consciousness of person as an individual and nation as a whole.
Delhi_Ghalib and Mir
Mirza Ghalib and Mir Taqi Mir, both Dilliwallas, were among the most famous Urdu poets of modern India.
Delhi: Dinkar's Poem
दिल्ली (कविता)/रामधारी सिंह 'दिनकर'
यह कैसी चांदनी अम के मलिन तमिस्र गगन में
कूक रही क्यों नियति व्यंग से इस गोधूलि-लगन में?
मरघट में तू साज रही दिल्ली कैसे श्रृंगार?
यह बहार का स्वांग अरी इस उजड़े चमन में! इस उजाड़ निर्जन खंडहर में छिन्न-भिन्न उजड़े इस घर मे तुझे रूप सजाने की सूझी इस सत्यानाश प्रहर में! डाल-डाल पर छेड़ रही कोयल मर्सिया-तराना और तुझे सूझा इस दम ही उत्सव हाय मनाना
हम धोते हैं घाव इधर सतलज के शीतल जल से उधर तुझे भाता है इनपर नमक हाय छिड़काना!
महल कहां बस हमें सहारा केवल फ़ूस-फ़ास तॄणदल का अन्न नहीं अवलम्ब प्राण का गम आँसू या गंगाजल का
Balmukund Gupt: Delhi
बड़ी धूम से टेसू आये,लड़के लाड़ी साथ लगाये ।
होगा दिल्ली में दरबार,सुनकर चौक पड़ा संसार
बालमुकुंद गुप्त
Delhi:Samar shesh hai:dinkar
अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में? उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध -रामधारी सिंह दिनकर
Ideology:Market
विचार बाजार में आते ही व्याभिचार हो जाता है, इसी कारण उसका तर्क-कुतर्क और सहिष्णुता-असहिष्णुता में बदल जाती है।
Amir Khusro-Gori......
दोहा
गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केस। चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देस॥ पद छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके प्रेम बटी का मदवा पिलाइके मतवाली कर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके गोरी गोरी बईयाँ, हरी हरी चूड़ियाँ
बईयाँ पकड़ धर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
बल बल जाऊं मैं तोरे रंग रजवाअपनी सी कर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके खुसरो निजाम के बल बल जाए मोहे सुहागन कीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके
Monday, February 11, 2013
entertainment and propoganda literature:Sahi
वस्तुत: मात्र मनोरंजक और मात्र संदेशवाहक साहित्य अक्सर एक ही सिक्के के दो पहलू साबित हो जाते हैं। मनोरंजक साहित्य यह देखने के लिए तैयार ही नहीं होता कि जिंदगी को अर्थ से आलोकित करने वाले तत्व क्या हैं और कहां हैं ?….मात्र संदेशवाहक साहित्य यह मान कर चलता है कि मूलभूत प्रश्न और मूलभूत उत्तर सब प्राप्त हो चुके हैं….साहित्य में किसी दार्शनिक सिध्दांत और विचारधारा का वहन करना एक बात है और अपने युग की संपूर्ण चिंतनशीलता में उलझी हुई अनुभूति को आत्मसात करना दूसरी बात है। यह आत्मस्थ चिंतनशीलता गंभीर साहित्य को एक बौद्धिक सघनता प्रदान करती है।
-विजय देव नारायण साही ‘कवि के बोल खरग हिरवानी’
Krishnadutt Paliwal on Vijaydev Narayan Sahi
कृष्णदत्त पालीवाल-विजय देव नारायण साही विजय देव नारायण साही की स्मृति नई पीढ़ी के दिमाग में बसी इतिहास, समाज, संस्कृति और परंपरा के चिंतन सूत्रों की वह कभी न खत्म होने वाली स्मृति है, जो हमारी प्रगतिशीलता और भारतीयता के दोनों किनारों को गर्म रखती है. वे आगे साही के प्रसिद्ध निबंध लघुमानव के बहाने हिंदी कविता पर एक बहस के संबंध में लिखते हैं, ''अकेले इसी एक लेख ने साही को हिंदी समीक्षा के केंद्र में ला दिया है. इस लेख के वाक्यों को विवश होकर मार्क्सवादी आलोचकों ने अपना 'हनुमान चालीसा' बनाया तथा जोर-जोर से गाकर अपना भय भी दूर किया. -कृष्णदत्त पालीवाल, हिंदी का आलोचना पर्व
foriegn shade on hindi literary critism:Paliwal
''हाय री विडंबना! हिंदी की आधुनिक आलोचना ने देशभक्तिपरक रचना-कर्म को तुच्छ भावुकता की सतही कविता कहकर ठुकरा दिया है. इस ठुकराने के पीछे हिंदी के उन आलोचकों की साजिश है, जो विदेशी विचारधाराओं के प्रचारक या कपट मुनि हैं. ये आलोचक देश भक्ति के नाम से ऐसे बिदकते-भड़कते हैं, जैसे पागल पानी से डरता है.''
-कृष्णदत्त पालीवाल, हिंदी का आलोचना पर्व
Sunday, February 10, 2013
Delhi-1984 Riots:Nirmal Verma
दिल्ली लौटकर अचानक एक के बाद एक दुखदायी घटनाओं का सिलसिला शुरू हो गया । वे बहुत भयानक दिन थे । पहली बार महसूस हुआ कि समूह और संप्रदाय और राजनीति की आंधी के आगे हम कितना अवश और हमारी समूची मानवीय आदर्शवादिता कितनी अर्थहीन हो जाती है । इन घटनाओं के आधार पर रविवार ने कुछ लेखकों से प्रश्न पूछे थे-शायद नये अंक में आपको मेरी प्रतिक्रिया भी देखने को मिले ।
(दिल्ली में सन् 1984 में हुए सिख दंगों पर निर्मल वर्मा, देहरी पर पत्र में)
Language:india
It is this geography that at once confirms and marginalizes the place of each language in its regional
context.
Friday, February 8, 2013
Essential skill of writing: Nirmal Verma
जटिल विचारों को सहज रूप से कह सकना-यह मुझे लेखन का अनिवार्य गुण जान पड़ता है ।
निर्मल वर्मा, देहरी पर पत्र में
Thursday, February 7, 2013
kabir: desh birana hai
रहना नहिं देस बिराना है।
यह संसार कागद की पुडिया, बूँद पडे गलि जाना है।
यह संसार काँटे की बाडी, उलझ पुलझ मरि जाना है॥
यह संसार झाड और झाँखर आग लगे बरि जाना है।
कहत 'कबीर सुनो भाई साधो, सतुगरु नाम ठिकाना है॥
-कबीर
Three S
skill, speed and supply should be our theme words.
skill of work, speed to deliver and supply on time.
then only we can produce the product on time.
Dinkar: Tribal culture
छोटा नागपुर की आदिवासी जनता पूर्ण रूप से सभ्य तो नहीं कही जा सकती; क्योंकि सभ्यता के बड़े-बड़े उपकरण उसके पास नहीं हैं, लेकिन, दया-माया, सच्चाई और सदाचार उसमें कम नहीं है। अतएव उसे सुसंस्कत समझने में कोई उज्र नहीं होना चाहिए।
प्राचीन भारत में ऋषिगण जंगलों में रहते थे और जंगलों में वे कोठे और महल बनाकर नहीं रहते थे। फूस की झोपड़ियों में वास करना, जंगल के जीवों से दोस्ती और प्यार करना, किसी भी मोटे काम को अपने हाथ से करने में हिचकिचाहट नहीं दिखाना, पत्तों में खाना और मिट्टी के बर्तनों में रसोई पकाना-यही उनकी जिन्दगी थी और ये लक्षण आज की यूरोपीय परिभाषा के अनुसार सभ्यता के लक्षण नहीं माने जाते हैं। फिर भी वे ऋषिगण सुसंस्कृत ही नहीं थे, बल्कि वे हमारी जाति की संस्कृति का निर्माण करते थे। सभ्यता और संस्कृति में यह एक मौलिक भेद है जिसे समझे बिना हमें कहीं-कहीं कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है।
रामधारी सिंह दिनकर-संस्कृति भाषा और राष्ट्र
books beyond words
कहते हैं कि रचनाएँ पुस्तक के पन्नों में ही सिमटी रह जाती हैं लेकिन कुछ रचनाएँ पुस्तक के पन्नों से बाहर आती हैं और हमारे जीवन में पैठ जाती हैं।
Tagore:Freedom of Speech
बौद्धिक आजादी और लेखकीय स्वायत्तता का उल्लंघन होता हो तो इसका जबर्दस्त विरोध किया जाना चाहिए। अपने एक प्रसिद्ध निबंध ‘द कॉल ऑव द ट्रुथ’ (सत्य की पुकार) में रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बड़े धारदार शब्दों में किसी की ‘जोर-जबर्दस्ती के आगे बुद्धि की मर्यादा को तिलांजलि देने से इंकार करने के महत्त्व को रेखांकित किया है। उनका तर्क है कि भारत जब तक यह नहीं जान लेता कि ‘उसकी बुनियाद उसका मन है जो अपनी बहुविधि शक्तियों और इन शक्तियों पर विश्वास करके हर समय अपने लिए स्वराज्य रचता है’, तब तक सच्ची आजादी हासिल नहीं कर सकता।
Tulsidas:Ramvilas Sharma
जब तक भारतीय दृष्टि और भारतीय स्त्रोंतो से भारतीय मनीषा या भारतविद्या का सम्यक अध्ययन नहीं किया जाएगा-हम एकांगी उपनिवेशवादी सोच और अराजक निष्कर्षों के सामने बौने बने रहेंगे।
भारतीय सौंदर्य बोध और तुलसीदास, रामविलास शर्मा, साहित्य अकादमी
Wednesday, February 6, 2013
Ekla Chalo Re_Tagore_एकला चलो रे_रवीन्द्रनाथ ठाकुर
जोदी तोर डाक सुने केउ ना आसेतोबे एकला चलो रेजोदी तोर डाक सुने केउ ना आसेतोबे एकला चलो रेएकला चलो, एकला चलो,एकला चलो, एकला चलो रेजोदी तोर डाक सुने केउ ना आसेतोबे एकला चलो रेजोदी तोर डाक सुने केउ ना आसेतोबे एकला चलो रे
(अगर कोई तुम्हारी आवाज न सुनें तो तुम अकेले ही अपने रास्ते पर बढ़े चलो।)-रवीन्द्रनाथ ठाकुर
'एकला चलो रे' का गीत, आज के झारखंड के गिरिडीह शहर में लिखा गया था। यह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के स्वदेशी काल में विरोध स्वरूप लिखे गए 22 विरोध गीतों में से एक था।
यह वर्ष 1905 में अंग्रेजों की बंगाल प्रेसीडेंसी में बंग-भंग विरोधी आंदोलन का सबसे मुखर गीत एक बन गया था।
'एक्का' (अकेला) के शीर्षक के रूप में यह गीत पहली बार 'भंडार' पत्रिका के सितंबर 1905 के अंक में प्रकाशित हुआ था। 'एका' को पहली बार वर्ष 1905 में रवीन्द्रनाथ ठाकुर के गीत संग्रह 'बाउल' में सम्मिलित किया गया था।
वर्ष 1941 में, इसे रवीन्द्रनाथ ठाकुर के संगीत संपूर्ण संकलन 'स्वदेश' के 'गीतावितान' खंड में शामिल किया गया।
যদি তোর ডাক শুনে কেউ না আসে তবে একলা চলো রে।
একলা চলো, একলা চলো, একলা চলো, একলা চলো রে॥
(Jodi tor daak shune keu naa ashe tobe ekla cholo re
Tobe ekla cholo, ekla cholo, ekla cholo, ekla cholo re)
If they answer not to your call walk alone.
-Rabindranath Tagore
"Ekla Chalo Re" was written at Giridih town in modern-day Jharkhand. It was one of the 22 protest songs written during the Swadeshi period of Indian freedom movement which became one of the key anthem of the Anti-Partition Movement in Bengal Presidency in 1905.
Titled as "Eka" ("Alone") the song was first published in the September 1905 issue of Bhandar magazine."Eka" was first included in Tagore’s song anthology Baul in 1905. In 1941, it was incorporated into the "Swadesh" ("Homeland") section of Gitabitan, the complete anthology of Tagore’s music.
Tuesday, February 5, 2013
hindu pschye
किसी घटना या अनुभव को ...लिखित दस्तावेज का रूप देने में हिन्दुओं की रुचि क्यों नहीं थी ? क्या इसलिए कि हिन्दू चित्त को, किसी सामाजिक अनुभव की स्मृति से जो सीखने योग्य है, उसे मौखिक परम्परा के जरिये अगली पीढ़ी के संस्कारों तक पहुँचा देना ज्यादा सुहाता था..............................
पुरुषोत्तम अग्रवाल-हिन्दी सरायः अस्त्राखान वाया येरेवान
1857 Delhi: First War of Independence
भारत की राजधानी दिल्ली में आज भी 1857 के नायकों–खलनायकों के स्मृति-चिन्ह देखे जा सकते हैं। दिल्ली में आज भी एक ओर हडसन लाइन है, तो दूसरी ओर मेटकाफ़ भवन है। खलनायकों के ये नाम तथा अन्य इसी तरह के नाम देश के अन्य शहरों में भी मिल जाते हैं। पता नहीं इन नामों को हम आज भी क्यों ढो रहे हैं ? ये नाम तो बदलने चाहिए, लेकिन साथ ही अधिक आवश्यकता है उस मानसिकता-सोच को स्थायी रूप से बदलने की.........................
Lohia:Hindu Muslim relationship_हिन्दू-मुसलमान_राममनोहर लोहिया
स्वतंत्र भारत में भी हिन्दू-मुसलमानों में पृथक्-भावना बनी रही है। मुझे शक है कि विभाजन-पूर्व के मुकाबले आज यह पृथक्-भाव अधिक है। पृथक्-भावना ने ही विभाजन को जन्म दिया और इसलिए अपने आप यह भावना पूरी तरह नहीं मिट सकी। परिणाम में ही कारण भी घुलमिल गया। आजादी के इन वर्षों में मुसलमानों को हिन्दुओं के निकट लाने का न कोई प्रयत्न किया गया न उनकी आत्मा से पृथकता का बीज समाप्त करने का ही प्रयत्न किया गया।
(भारत विभाजन के गुनहगार: राममनोहर लोहिया)
Politics of Ban on Cinema
शरीर से लेकर सिनेमा तक पर्दा और फिर अंधेरे की जगह उजाले की वकालत । वाह, रे बुद्वि और उससे जीविका जुटाते बुद्विजीवी ।
ईश्वर ही रक्षा करे । नहीं, यह कहना भी अब कुफ्र होगा।
आखिर कश्मीर का सच शेष भारत से जुदा है ही । कश्मीर के विस्थापितों का दर्द दिखता नहीं, उस पर कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, गाने नहीं सूझते आखिर यह इस रंतौधी ने दृष्टि तो पथरा ही दी है, मन की भीरूता को भी उजागर कर दिया है ।
गांधी पगला थोड़े गए थे जब उन्होंने कहा था कि हिंदू भीरू है...........................
(विश्वरूपम पर रोक के संदर्भ में, ऐसे ही)
Dinkar on Vyas and Valmiki
व्यास और वाल्मीकि कवि थे, जो पहाड़ों को तोड़कर जिन्दगी के लिए रास्ते बनाते थे; बाण, श्रीहर्ष और माघ कलाकार हैं, जो छोटे-छोटे पत्थरों को घिसकर उन्हें चिकना करते हैं। कवि तब उत्पन्न होते हैं जब समाज प्रगति पर होता है; कलाकार उस समय भी आते हैं जब समाज के पाँव बँध जाते हैं।
Dinkar: Ramayana and Mahabharata
हम वैदिक काव्य तथा रामायण और महाभारत को बहुत ऊँचा पाते हैं, क्योंकि इन कविताओं में पारदर्शिता बहुत अधिक है और उनके भीतर से जीवन की बहुत बड़ी गहराई साफ दिखाई पड़ती है। इसके सिवा, उनसे यह भी ज्ञात होता है कि जिस युग में काव्य रचे गए, उस युग में यह देश समाज-संगठन के आदर्शों को लेकर और अगोचर सत्यों का पता लगाने के लिए भयानक संघर्ष कर रहा था।
उपनिषदों का समय शंका, जिज्ञासा, चिन्तन और बौद्धिक कोलाहल का समय था। अन्तिम सत्य क्या है, इसे जानने के लिए उस युग के ऋषियों ने इतना अधिक चिन्तन किया कि उपनिषदों में कहीं-कहीं हमें उनके दिमाग के फटने की-सी आवाज सुनाई पड़ती है और चूँकि, यह साहित्य बौद्धिक एवं भौतिक दोनों ही प्रकार के अप्रतिम, संघर्षों के सान्निध्य में लिखा गया, इसलिए, उस साहित्य से हमें आज भी प्रेरणा मिलती है, बल्कि, तीन-चार हजार वर्षों से यही साहित्य सारे भारतीय साहित्य का उपजीव्य रहा है।
(काव्य की भूमिका, रामधारी सिंह दिनकर, प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन)
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First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान
कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...