Sunday, February 3, 2013

Delhi: Urdu_language politics

यह भी एक नया समन्वय था, लेकिन बहुत दाम चुकाने के बाद। प्रो. एजाज़ हुसैन ने अपनी किताब 'मज़हब और शायरी' में दिखाया है कि उर्दू कविता का जन्म और पालन-पोषण सौ फ़ीसदी धर्म अर्थात इस्लाम का नतीजा है। लेकिन उन्होंने खुद उर्दू को फ़ारसी-परस्ती से जोड़ा है। फ़ारसी का इस्लाम से क्या सम्बन्ध है? मुगल साम्राज्यवाद का सम्बन्ध फ़ारसी से था। लेकिन मुगल साम्राज्यवाद और इस्लाम धर्म दो चीजें हैं। यह बात वैसे ही सच है जैसे ब्रिटिश साम्राज्यवाद और ईसाई धर्म अलग-अलग चीजें हैं। अगर कोई ईसाइयों के लिए अंग्रेजी-परस्ती जरूरी समझे तो यह बुद्धि-विभ्रम ही कहा जाएगा। प्रो. एजाज़ हुसेन कुछ गहरे जाते तो शायद ठीक नतीजे निकालते और भविष्य के लिए कुछ रास्ता भी साफ करते।
बहरहाल जब तक दिल्ली में इतनी शक्ति आई कि ऊपर से थोपे हुए फ़ारसी के गुट्ठल और दमघोंटू ढक्कन को उतार फेंके तब तक अवसर बीत चुका था। 'बड़ी देर की मेहरबाँ आते-आते।' अगर खड़ी बोली ने फ़ारसी को अकबर के जमाने में ही उतार फेंका होता तो प्रेम और महत्त्वाकांक्षा, फिरदौसी और कालिदास के बीच आखिरी समन्वय करने का सेहरा दिल्ली की उर्दू के ही सर होता। जायसी ने जो काम शुरू किया था वह बड़े पैमाने पर आगे बढ़ता। शायद तब ब्रजभाषा और रीतिकाव्य की जरूरत भी न पड़ती। लेकिन उर्दू तब उठी जब दिल्ली गिर रही थी और पुरानी ऊर्जा चुक गई थी। इसलिए जन्म के साथ उर्दू में अनुभूति की धरोहर सँजोने, घेरे को छोटा करने की अलगाववादी मुद्रा आई।
बेशक दिल्ली की उर्दू का मतलब था सात सौ बरसों की बंजर फ़ारसीगोई का बहिष्कार, लेकिन लगे हाथ सारे ब्रजभाषा साहित्य का बहिष्कार भी, जिससे उसका जन्म हुआ और जिसकी परम्परा को निभाने में उर्दू असमर्थ रही। मीर और ग़ालिब का मतलब सिर्फ देव और बिहारीलाल को ही भूलना नहीं हुआ बल्कि फेहरिस्त से कबीरदास, जायसी, रहीम और उन तमाम लोगों का नाम खारिज करने का हुआ जिन्होंने एक मिले-जुले देसी मिजाज को बनाने में पहल की थी। यहाँ तक कि पड़ोसी आगरे का नज़ीर भी इस दुनिया के लिए अजनबी रह गया। बदले में मिला क्या? शेख अली हजीं का नकचढ़ापन। इस उठाव के पीछे सिर्फ ब्रजभाषा की जगह खड़ी बोली को स्थापित करने का जोर नहीं था बल्कि खड़ी बोली पर खुरासान की चाशनी लपेटने का अरमान भी था, जिसका कोई वास्तविक रिश्ता इस्लाम से नहीं था। दिल्ली की आखिरी शमा से चाहे रहा हो। उर्दू ने लोकजीवन से विकसित छंदों और लयों को छोड़ दिया, नीचे से उठती हुई किसी नई लय के लिए नहीं बल्कि ईरान से मँगाए हुए फ़ारसी छन्दों के पक्ष में जिनकी जकड़बन्दी को अब जाकर उर्दू कविता में यहाँ-वहाँ चुनौती दी जा रही है।
ऊपर नीचे, भीतर बाहर, सजधज सबमें ईरानियत छा गई। कितनी भिन्न थी खानखाना की दिशा जिन्होंने खुद फ़ारसी में हिन्दी का बरवै छन्द लिखा था :
मीगुज़रद ईं दिलरा वे दिलदार यक यक साअत हमचू साल हजार।
(प्रिय के बिना मेरे हृदय के लिए एक-एक घड़ी हजार वर्षों की तरह बीत रही है।)
एक वक्त था जब हिन्दी कविता ने फ़ारसी कविता को प्रभावित किया था और फ़ारसी में वह शैली निकली जिसे आज भी 'सुबके-हिन्दी' कहा जाता है। लेकिन फ़ारसी इसे पचा कर समृद्ध हुई। अरसे बाद फ़ारसी ने इस तरह हिन्दी को 'सुबके-उर्दू' दिया जो हिन्दी के पचाव के बाहर था। साहित्यिक भाषा के दो टुकड़े हो गए।
एक खास शहरियत का तेवर पाने के लिए दिल्ली की उर्दू ने गाँवों में फैले हुए हिन्दुस्तान से अपना सम्बन्ध बिल्कुल काट लिया। वस्तुतः ब्रजभाषा को उसके हिन्दूपन के कारण नहीं छोड़ा गया। आखिरकार उसी समय बिलग्राम के गुलाम नबी रसलीन अल्लाह पैगम्बर और अली की स्तुतियाँ ब्रजभाषा में लिख ही रहे थे। ब्रजभाषा मतरूक इसलिए हुई कि वह उस सिकुड़ती हुई महानागरीयता के लिए 'फसीह' नहीं लगती थी। दूसरे शब्दों में देहाती थी। इस तरह जहाँ महत्वाकांक्षा, कलेजे की चौड़ाई और भारत का प्रतिनिधित्व करनेवाली लहर होनी चाहिए थी, वहाँ 'घर-की-याद' में टीसता प्रवासी मन बैठ गया और सौदा को हिन्द की जमीन नापाक लगने लगी। चारों ओर विरोधियों से घिर जाने की मनःस्थिति ने दिल्ली की उर्दू कविता को एक तरह की सर्जनात्मक कुलीनता की ठसक दे दी, जैसे मुहम्मदशाह की पगड़ी में छिपा हुआ, न जाने किन यादगारों के साथ चमकता बेशकीमती कोहेनूर हो। गिरती हुई दिल्ली ने उर्दू ग़ज़ल के नये ब्राह्मणों को जन्म दिया।
लोगों को गुमाँ ये है कि वह अहले-ज़बाँ हैं।
दिल्ली नहीं देखी है ज़बाँदाँ वो कहाँ हैं।
इस मनःस्थिति की तुलना ब्रजभाषा के फैलाव से कीजिए :
ब्रजभाषा हेतु ब्रजवास ही न अनुमानो
एते-एते कविन्ह की बानी हू ते जानिये
इस अलगाव में उर्दू ने जो सबसे बड़ा मोल चुकाया वह था ब्रजभाषा के प्रभुत्व सम्पन्न तेवर का - उस अनायास क्षमता का जिसके सहारे ब्रजभाषा फ़ारसी और संस्कृत दोनों के ही शब्दों को अपने प्रवाह के कोड़े मारकर ठेठ रूप में बदल देती है, जिसके आगे कृष्ण कन्हैया हो जाते हैं और मुहम्मद मुहमद। संस्कृत शब्दों को तोड़ने-मरोड़ने की ताकत तो उर्दू के पास बच गई लेकिन फ़ारसी के आगे उसे लकवा मार गया। और इसके साथ ही, पहले की 'सुबके हिन्दी' की तरह, फ़ारसी कविता को प्रभावित करने की शक्ति भी गई। आगे का प्रभाव सिर्फ एकतरफा-फ़ारसी से उर्दू की ओर।
दिल्ली-भाषा का यह नया फैशन 'घर की याद' वाली कसक के लिए निहायत मौजूँ था और इसने धर्मनिरपेक्ष ईरानीनुमा ग़ज़लों में लुभावनी कविता को जन्म दिया। ग़ालिब तक ग़ज़ल में वास्तविक सर्जनात्मकता है। उसके बाद ग़ज़ल की अनुभूति प्रामाणिकता - उसका 'तगज्जुन' - खत्म हो जाता है और ग़ज़ल महज 'संस्कृति' रह जाती है। कहते हैं कि खजुराहो में एक गाइड ने किसी सैलानी को समझाते हुए कहा, ''जी नहीं, यह मन्दिर जहाँ अभी भी पूजा चलती है हिन्दू धर्म है, वे मन्दिर जहाँ कोई नहीं पूजता भारतीय संस्कृति हैं।'' संस्कृति उसी अर्थ में। इक़बाल से लेकर फ़िराक़ तक सब ग़ज़ल के सैलानी हैं, साधक नहीं। उर्दू कविता धीरे-धीरे केंचुल बदल रही है, लेकिन बहुत धीरे-धीरे।
(धर्मनिरपेक्षता की खोज में हिन्दी साहित्य और उसके पड़ोस पर एक दृष्टि विजयदेव नारायण साही)

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