Sunday, February 3, 2013
Delhi Capital transfer: mir_literature
शायद ही किन्हीं लोगों ने अपनी साम्राज्यशालिनी राजधानी के छीनने की गवाही इतनी संयत वेदना, इतनी नफीस वज़ादारी, इतनी शालीन आत्मलीनता के साथ दी हो जितनी दिल्ली के उन चुनिन्दा 'मुंतखिबे रोजगार' लोगों ने जिन्होंने मीर से लेकर ग़ालिब तक की दिल्ली कविता को जन्म दिया। न जाने पाटलिपुत्र और उज्जयिनी के लोगों ने अपने महानगरों की वीरानगी को किन आवाजों के साथ झेला। हम तक उनका कोई निशान बाकी नहीं है। रोम और एथेंस के लोग तो निश्चय ही बदहवास और चिटखते हुए दीखते हैं। लेकिन दिल्ली, और एक हद तक लखनऊ के भी लोग, सचमुच 'आलम में इंतखाब' हैं। वे चिटखते नहीं, निहायत फसीह शायरी रचते हैं। मीर की डबडबाई हुई आत्मीयता से लेकर ग़ालिब की सितम ज़रीफ़ी तक वजादारी की एक रेखा है जो व्यक्त-अव्यक्त आदर्श की तरह दिलों को सालती रहती है :
चली सिम्ते-ग़ैब से एक हवा
कि चमन सरूर का जल गया
मगर एक शाख़े-निहाले-ग़म
जिसे दिल कहें वो हरी रही।
बेशक यह कसावदार शालीनता, ग़म और ज़ब्त की यह खास घुलावट सब कवियों में नहीं है। कुछ टूट भी जाते हैं। कुछ सिर्फ छिछोरपन और चटखारे का रास्ता पकड़ते हैं। एक परिणति अमानत लखनवी की 'इंदर सभा' और दाग़ देहलवी की 'हमने उनके सामने पहले तो ख़ंजर रख दिया, फिर कलेजा रख दिया, दिल रख दिया, सर रख दिया' भी है। लेकिन इस सबके बावजूद एक ठहरी हुई कसक श्रेष्ठ उर्दू ग़ज़ल के लिए प्रतिमान बनकर बराबर छाई रही :
याद थीं हम को भी रंगारंग बज्म-आराइयाँ
लेकिन अब नक्शो-निगारे-ताक़े-निसियाँ हो गईं।
'पूरब के साकिनों' से भिन्न ये 'रोजगार के मुंतख़िब' लोग हैं। लेकिन जैसे-जैसे हम उस दिल्ली की कविता पढ़ते जाते हैं, हमारे ऊपर एक बन्द दुनिया का वातावरण छाता जाता है। मैंने पहले संकेत किया है कि मीर और घनानन्द को पास-पास रख कर देखने पर दोनों में निकटता दिखती है। दोनों ही फ़ारसी ग़ज़ल के पास खड़े हैं। दोनों ही का लहजा तरल पीड़ा को व्यक्त करता है। लेकिन घनानन्द पुरुष की ओर से विरह की अभिव्यक्ति और 'माशूक की बेवफ़ाई' जैसे ग़ज़लनुमा काव्य सन्दर्भ के बावजूद, ब्रजभाषा कविता की ही परम्परा में हैं। इसके विपरीत मीर उस सारी परम्परा से कट कर अपने को एक नए दायरे में घेर रहे हैं। मीर की कविता में कसक के साथ एक घिरता हुआ अँधेरा है, जब कि घनानन्द की कविता में खुलापन है।
(धर्मनिरपेक्षता की खोज में हिन्दी साहित्य और उसके पड़ोस पर एक दृष्टि:विजयदेव नारायण साही)
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