Sunday, February 3, 2013

Jayasi:Vijaydev narayan sahi

विजयदेव नारायण साही: जायसी
जायसी कबीर से भिन्न हैं। वह अपने इस्लाम में दृढ़ हैं। लेकिन अभिव्यक्ति के लिए लोकभाषा को चुनते हैं। यानी फ़ारसी से इस्लाम का अनावश्यक रिश्ता तोड़ते हैं। पद्मावत में वह मानवीय प्रेम के उस रसायन का आविष्कार करते हैं जो मनुष्य को मुट्ठी भर धूल से उठाकर 'वैकुंठी' बनाता है। यहाँ तक तो ईरान के सूफियों ने भी किया। लेकिन जायसी अपने परिवेश और काव्य-माध्यम के चुनाव के कारण ईरानी सूफियों से कुछ आगे बढ़ने को विवश हैं। ईरान के सूफियों के सामने सिर्फ एक धर्म था, इस्लाम - उसी को उन्होंने प्रेम रसायन डाल कर निचोड़ा। लेकिन जायसी के सामने दुहरी चुनौती थी। अगर यह रसायन मनुष्य मात्र के हृदय में है तो सबको निचोड़ेगा। इस तरह एक धर्म का सार तत्व सब धर्मों का सार तत्व बनता है। जायसी का तसव्वुफ़ आगे बढ़कर, बिना अपने इस्लाम को छोड़े, हिन्दू धर्म के मर्म को स्पर्श करता है। कविता में एक तत्काल नतीजा यह निकलता है कि धारणाओं, प्रत्ययों, प्रतीकों, पुराकथाओं, मिथकों, शब्दों की एक उभयधर्मी, या बहुधर्मी दुनिया खड़ी हो जाती है, जो किसी एक धर्म के पाश से मुक्त हो जाती है। दीवारें टूटने लगती हैं। 'कविलास' और 'जन्नत' का फर्क मिट जाता है। कबीरदास की ललकारती आन्तरिकता तो अपने से बाहर किसी पावनता को नहीं मानती। लेकिन जायसी का प्रेमरसायन बेहिचक फैलता है। पद्मावती की तरह जिसे छूता है, 'पावन' बनाता चलता है। यहाँ तक कि पावन-अपावन का परिचित अन्तर मिट जाता है। वसन्त पूजा धर्म या कुफ्र नहीं रह जाती। वह उस अनुपम उल्लास का प्रतीक बन जाती है जहाँ 'वैकुंठी' तत्व का निवास है। संक्षेप में जकड़बन्द धार्मिक प्रतीक प्रत्यय या मानवीय प्रतीकों में बदलकर धर्मनिरपेक्ष होने लगते हैं।
लेकिन जायसी का कलेजा इतना ही नहीं है। वह इससे भी बड़ा है। अक्सर प्रेम-रसायनवादी धर्मों की यथार्थ टकराहट के समय कन्नी काट जाते हैं या मीठी बातें बोलकर चुप हो जाते हैं। प्रेम-रसायन बस मुँह में चुभलाने की चीज रह जाती है। लेकिन जायसी के पद्मावत की बनावट दूसरी है। उसके दो हिस्से हैं। पहला अंश - रतनसेन और पद्मिनीवाला -खासा अलौकिक और जादुई है। यहीं वह प्रेम-रसायन परिभाषित होता है। दूसरा अंश -अलाउद्दीन बनाम चित्तौड़वाला - लगभग यथार्थवादी और ऐतिहासिक घटना सरीखा है।
इस तरह सत्य के दो स्तरों की मुठभेड़ है। कलेजा इसमें है कि जायसी अलाउद्दीन-चित्तौड़ की टक्कर को बेलाग-लपेट न सिर्फ शुद्ध हिन्दू-मुसलमान संघर्ष के रूप में वर्णित करते हैं, बल्कि पूरी कथा में अलाउद्दीन की जीत अवश्यंभावी नियति के रूप में मँडराती है। जायसी कहीं लीपापोती नहीं करते। लगता है कि वह जान-बूझ कर उस अलौकिक प्रेम-रसायन को दुखती रगों के संग्राम में डालकर परखना चाहते हों कि इसमें कुछ दम भी है या सिर्फ लफ्फाजी है। 'वैकुंठी' प्रेम का प्रतीक बिचारा चित्तौड़ दिल्ली के प्रबल प्रताप के सामने कहाँ तक ठहरेगा? रतनसेन पद्मावती का वह सारा मायालोक अलाउद्दीन की जीत की घड़ी आते ही जल कर राख हो जाता है। लेकिन सतही इस्लाम की जीत की यह घड़ी, उसकी नितान्त निरर्थकता की घड़ी बल्कि पद्मावती की निष्कलंक लपटों के आगे समूची हार की भी घड़ी है। पद्मावत का अन्त यूनानी या यूरोपीय अर्थ में ट्रैजडी नहीं है। वह कई स्तरों पर एक साथ विवेक-दृष्टि के परिप्रेक्ष्य का उदय है। जिस जौहर से अलाउद्दीन डरता रहा वह होकर रहा। वह मुट्ठी भर धूल उड़ा देता है और कहता है 'पृथिवी झूठी है'। तृष्णा फिर भी नहीं मानती। चित्तौड़ पर वह अधिकार करता है और कथा का अन्त इस दोहे से होता है-
जौहर भईं इस्तिरीं पुरुख भये संग्राम।
पातसाहि गढ़ चूरा चितउर भा इस्लाम ॥
आलोचकों ने इधर ध्यान नहीं दिया है लेकिन अन्तिम टुकड़े 'चितउर भा इस्लाम' में जो जटिल व्यंग्य अन्तर्निहित है, उससे अर्थ की हजार पर्तें खुलती हैं। इन पर्तों के पीछे सिर्फ तसव्वुफ़ और 'धार्मिक उदारता' नहीं।
(धर्मनिरपेक्षता की खोज में हिन्दी साहित्य और उसके पड़ोस पर एक दृष्टि)

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