Monday, February 4, 2013

Birsa Munda: Revolution Vs Mutiny

तुम हमारा जिक्र इतिहास में नहीं पाओगे
क्योंकि हमने अपने को इतिहास के विरुद्ध दे दिया है
छूटी हुई जगह दिखे जहाँ-तहाँ
या दबी हुई चीख का अहसास हो
समझना हम वहीं मौजूद थे।
विजयदेव नारायण साही
भारत में अँग्रेजी सत्ता स्थापित होते ही गुलाम भारत के इतिहास को स्वामी इंगलैण्ड के इतिहास का एक परिशिष्ट मात्र बना डाला गया...और दासों के अतीत को गौरावान्वित नहीं किया जाता।
इतिहास की एक विडम्बना यह भी कि अँग्रेजों तथा अँग्रेज समर्थक देसी शोषकों के विरुद्ध मरणान्तक लड़ाई लड़ने वाले महानायक बिरसा मुण्डा (ई. सन् 1856-1900) तक को स्वतंत्रता संग्राम के नायकों की श्रेणी में नहीं रखा जाता। जिस प्रकार भारत के ‘प्रथम स्वाधीनता संग्राम’ को इतिहासकारों ने ‘सिपाही विद्रोह’ कहकर उसके परिप्रेक्ष्य को सीमित करने के प्रयास किये थे ताकि इस भारतीय क्रान्ति को ‘विद्रोह’ की यूरोपीय परिभाषा में सीमित किया जा सके, उसी प्रकार ‘सन्ताल विद्रोह’ की संज्ञा भी एक जनक्रान्ति के परिप्रेक्ष्य को संकुचित कर उसके व्यापक स्वरूप को कुचलने का ही उपक्रम था।
इंगलैण्ड की साम्राज्यवादी शक्ति के विरुद्ध भारतीय सिपाहियों-निम्नमध्यमवर्गीय आम भारतीय जन-द्वारा क्रान्ति (रिवोल्यूशन) के लिए ‘सैन्य द्रोह’ (म्यूटिनी) की शब्दछलना गढ़ी जाती है। पश्चिम के आन्दोलन-इंगलैण्ड की महान क्रान्ति (ई. सन् 1688), ‘ बोस्टन-टी-पार्टी’ (ई. सन् 1773), ‘फ्रांसीसी क्रान्ति’ (ई. सन् 1789)-‘द्रोह’ नहीं क्रान्तियाँ थीं, परन्तु अपनी भूमि, वन एवं स्वशासन के आदिम अधिकारों की वापसी हेतु झारखण्ड के वनपुत्रों के मुक्तिकामी संघर्षों को ‘विद्रोह‘ (रिवोल्ट) की संज्ञा दी जाती है।
भारत के अँग्रेजी राज में ईसाई मिशनरियों ने यहाँ के आदिवासियों को दया का पात्र माना भी तो आदिवासियों को सभ्य बनाने की भी शर्त रखी गयी-धर्मान्तरण। यह विद्रोही आदिवासी समाज और अँग्रेजी सत्ता के बीच दौत्य सम्बन्ध बनाने की कूटनीति भी थी। रंगभेद की इसी नीति के कारण सभ्य समाज के मुक्तिकामी संघर्ष क्रान्तियाँ कहलाए जबकि आक्रान्ताओं से अनवरत संघर्षरत आदिवासियों की रक्तरंजित क्रान्तियाँ भी ‘वनमानुषों का विद्रोह’ के खाते में दर्ज की जाती रहीं।

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