भारत की लोकभाषा और लोकमानस मुस्लिम राज के लगभग सात सौ बरसों के दौरान दो लहरें नीचे से ऊपर की ओर फेंकता है। लगता है कि दो शक्तिशाली बवण्डर धरती और आकाश को जोड़ने के लिए उठते हैं। एक उछाल भक्ति साहित्य के माध्यम से है जिसकी परिणति धार्मिक तत्ववाद में होती है। दूसरी उछाल निर्वैयक्तिक शृंगारिकता के माध्यम से है जिसकी परिणति एक तरह की सौन्दर्यवादी धर्मनिरपेक्षता में होती है।
मगर आकाश का रास्ता इन बवण्डरों के लिए बन्द है। आधुनिकतावादियों ने मान रखा है कि मध्य युग में जीवन के हर पहलू को धर्म निगल जाता है। यह धारणा यूरोप के बिल्कुल भिन्न एकधर्मी मध्ययुगीन समाजों के अनुभव पर आधारित है जिससे लोग भारत के सन्दर्भ में अक्सर आँख मूँद कर लागू कर देते हैं। इस व्यापक धारणा के बावजूद, धरती और आकाश के संगम के बीच भटकाव पैदा करनेवाली चीज भारत में न धर्म है, न इस्लाम, बल्कि एक तीसरा ही संयोग है जिसका कोई आन्तरिक या वास्तविक सम्बन्ध इस्लाम से है ही नहीं। वह है फ़ारसी भाषा। अपने को ठेठ देशी बनाने की धुन में जिस अकबर ने दीने-इलाही तक का आविष्कार किया, उसी ने ऊपर से नीचे तक राजकाज में विदेशी भाषा फ़ारसी को थोप दिया। फ़ारसी थी तो पहले भी, लेकिन अकबर के समय से यह 'प्रगतिशील' दुचित्तापन व्यवस्था का अनिवार्य अंग बन गया। इसका परिणाम कुछ दाराशिकोह ने भुगता, कुछ मुगल साम्राज्य ने, कुछ भारत-पाकिस्तान आज भी भुगत रहा है। ब्रजभाषा के सामने यह फ़ारसी भाषा फिरदौसी की व्यापक कल्पनाशीलता के रूप में नहीं है, बल्कि अपने ठस भौतिक रूप में है : सत्ता, नौकरशाही, रुतबेबाजी और महत्त्वाकांक्षा की भाषा के रूप में। प्रेम और महत्त्वाकांक्षा, शायद ये दो ही शक्तियाँ हैं जो किसी साहित्य को लोहा मनवाने लायक धर्मनिरपेक्षता प्रदान करती हैं। फ़ारसी के चलते हिन्दी भाषी क्षेत्र दुचित्ता हो गया। ब्रजभाषा प्रेम की भाषा हो गई। फ़ारसी महत्त्वाकांक्षा की। परिणाम हुआ अधूरापन।
(धर्मनिरपेक्षता की खोज में हिन्दी साहित्य और उसके पड़ोस पर एक दृष्टि विजयदेव नारायण साही)
No comments:
Post a Comment