Sunday, December 31, 2017
China War_henderson report_१९६२ चीन युद्ध
दफ़न "हेन्डरसन रिपोर्ट" को सार्वजनिक करने की मांग का सबको बेसब्री इंतज़ार है!
Thursday, December 28, 2017
Sunday, December 24, 2017
Saturday, December 23, 2017
Arrival of Christianity in Delhi_दिल्ली में अंग्रेजों के साथ आई ईसाइयत!
दिल्ली में ईसाइयत का आगमन देर से हुआ और उसे यहां जमने में भी खासा वक्त लगा। मुगल दरबार में जेसुइट मिशन के पादरी आने-जाने तक ही सीमित रहे और यहां पर स्थायी रूप से अनुयायी नहीं बना पाए। 19 वीं शताब्दी के आरंभ में यहां गिनती के बाहरी ईसाइयों में, मराठा सेनाओं में भर्ती फिरंग सैनिक या किराए पर लड़ने वाले भगोड़े सैनिक थे। 1803 में अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी ने दिल्ली पर कब्जा करके मुगल बादशाह को अपने संरक्षण में लेने के बाद 1818 में बैपटिस्ट मिशनरी सोसाइटी के जेम्स थॉम्पसन ने दिल्ली पहुंचकर चर्च बनाया। उसके ईसाइयत को फैलाने के प्रयास में शहर में कुछ ही लोग ईसाई बने।
1852 में दिल्ली के कुछ अंग्रेज नागरिकों की पहल पर सोसाइटी फाॅर द प्रोपोगेशन आॅफ द गाॅस्पल (एसपीजी) का काम शुरू हुआ। बैपटिस्ट मिशन और एसपीजी की धर्मांतरण गतिविधियों के कारण दिल्ली के समाज का रूढ़िवादी तबका विमुख हुआ। दो प्रतिष्ठित हिंदुओं मास्टर रामचंद्र और डॉक्टर चिमन लाल को ईसाई बनाने से के कारण अंग्रेज अधिकारियों को शहर में दंगा होने का भी डर हुआ।
"दिल्ली बिटवीन टू एम्पायर्स 1803-1931, सोशल, गवर्नमेंट एंड अर्बन ग्रोथ" में नारायणी गुप्ता लिखती है कि शहर की सीमा पर स्थित क्षेत्रों जैसे मोरी गेट, फर्राशखाना, अजमेरी गेट, तुर्कमान गेट और दिल्ली गेट में गरीब रहते थे। यह क्षेत्र, दिल्ली गेट-अजमेरी गेट के इलाके मिशनरी गतिविधि का मुख्य केन्द्र बन गए। ऐसा इसलिए था क्योंकि यहां रहने वाला गरीब तबका किसी भी तरह की ईसाइयत और बस्तियों में उसके सामाजिक संगठन को अपनाने के लिए तैयार थे।
पुस्तक आगे बताती है कि ईसाई मिशनरियों के लिए अकाल का समय किसी तोहफे से कम नहीं था। नीची जाति के मुसलमान और गरीब मुगल दोनों ही एसपीजी और बैपटिस्ट मिशन के धर्मांतरण के नए जोश का पहला शिकार बने। सन् 1860 के दशक में पहाड़गंज, सदर बाजार, मोरी गेट और दिल्ली गेट में कुकुरमुत्ते की तरह ईसाई बस्तियां बनीं। उन धर्मांतरितों में से एक ने कई साल बाद उस घटना को याद करते हुए कहा कि यह पादरी विंटर के समय की बात थी। तब एक अकाल पड़ा था, उसने (पादरी) हमें रिश्वत दी और हम सब ईसाई बन गए। रेवरेंड विंटर ने दिल्ली की ईसाई आबादी का विश्लेषण किया, इनमें जुलाहा और चमार जाति के 82 व्यक्ति, 13 मध्य-वर्गीय मुस्लिम, और 27 उच्च जाति के हिंदू थे जिनका ईसाइयत में धर्मांतरण किया गया था। ईसाई मिशनरी गुप्त रूप से (हिंदू) मध्यम वर्ग के ईसाइयत में धर्मांतरित न होने की बात से चिढ़े हुए थे। कैनन क्रॉफुट का इस बारे (धर्मांतरण) में मानना था कि दिल्ली में कठिनाई धार्मिक नहीं सामाजिक है।
1875 में भारत आए सर बार्टले फ्रेर ने एसपीजी के दिल्ली मिशन के बारे में इंगलैंड अपने घर को भेजे पत्र में लिखा कि आपके यहां दिल्ली में कुछ वर्षों में तिनेवेली (तमिलनाडु में एंग्लिकन चर्च का सबसे पुराना केंद्र) से भी बड़ा केंद्र होगा लेकिन इसके लिए उन्हें अधिक पैसे और आदमियों की जरूरत होगी। इसके जवाब में कैंब्रिज में एसपीजी की मदद के लिए धन जुटाने के उद्देश्य से एक समिति का गठन किया गया। इस समिति के संकल्प पत्र में धर्मांतरण कार्य के अलावा युवा देसी ईसाइयों की उच्च शिक्षा के लिए पैसा खर्च किए जाने की बात कही गई। इस बात का भी उल्लेख था कि देसी (धर्मांतरित) भारतीयों के बेटों के लिए पूरे भारत में कोई भी ईसाई स्कूल नहीं है।
Saturday, December 16, 2017
history of local body of new delhi_दिल्ली के आठवें शहर के स्थानीय प्रशासन का इतिहास
वर्ष 1911 में अंग्रेज सरकार ने ब्रिटिश भारत की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने निर्णय किया। यहां आयोजित तीसरे दिल्ली दरबार में सम्राट जाॅर्ज पंचम ने 12 दिसंबर 1911 को इस आशय की घोषणा की कि अब दिल्ली अंग्रेज वाइसराय के आवास और नए प्रशासनिक केंद्र का स्थान होगी। नई राजधानी के स्थान का चयन करने के लिए एक समिति गठित की गई। इस कार्य के लिए अनेक स्थानों को देखा गया और आखिरकार रायसीना पहाड़ी के स्थान को अंग्रेज भारत की नई राजधानी बनाने के लिए चुना गया। एडविन लुटियंस-हर्बर्ट बेकर के नेतृत्व में दूसरे अंग्रेज वास्तुकारों ने आज की नई दिल्ली को बनाया। इस नई दिल्ली का वाइसराय पैलेस (अब राष्ट्रपति भवन), सर्कुलर पिलर पैलेस, जो कि संसद सचिवालय भवन कहलाता था, सहित हरियाली के लिए छोड़े गए खुले स्थान, पार्क, बाग और चौड़ी सड़कें थीं।
नई राजधानी के निर्माण कार्य की विशालता की बड़ी चुनौती को ध्यान में रखते हुए राजधानी के निर्माण कार्य और प्रबंधन की जिम्मेदारी स्थानीय स्तर पर न देते हुए इस कार्य की जिम्मेदारी एक केन्द्रीय प्राधिकरण को देने का निर्णय हुआ। इसी कारण 25 मार्च 1913 को इंपीरियल दिल्ली कमेटी का गठन हुआ जो कि नई दिल्ली नगरपालिका की शुरुआत थी।
फरवरी 1916 में दिल्ली के मुख्य आयुक्त ने रायसीना म्युनिसिपल कमेटी बनाई। 7 अप्रैल 1925 को पंजाब म्युनिसिपल एक्ट के तहत इसका दर्जा बढ़ाकर दूसरे दर्जे की म्युनिसिपलिटी कर कर दिया गया। इस कमेटी में स्थानीय निकाय की ओर से नाम या पद के आधार पर नियुक्त दस सदस्य होते थे। इस तरह गठित पहली कमेटी में पांच पदेन सदस्य और पांच सदस्य नाम के आधार पर नियुक्त किए गए। पहली बार स्थानीय मामलों और समस्याओं पर विचार-विमर्श के लिए सार्वजनिक जीवन से व्यक्तियों को शामिल किया गया। 9 सितंबर 1925 को इस कमेटी को शहर की इमारतों पर कर लगाने की अनुमति दी गई और इस तरह राजस्व की वसूली का पहला स्रोत बना। मुख्य आयुक्त ने इस नागरिक निकाय को कई प्रशासनिक कार्यों की भी जिम्मेदारी सौंपी, जिससे उसकी आमदनी और खर्चे में बढ़ोत्तरी हुई।
22 फरवरी 1927 को कमेटी ने नई दिल्ली का नाम अपनाया गया, इस आशय का एक प्रस्ताव पारित किया और इस कमेटी को नई दिल्ली म्युनिसिपल कमेटी के रूप में नामित किया गया। 16 मार्च 1927 को मुख्य आयुक्त ने इस निर्णय को अनुमोदित कर दिया। 15 फरवरी 1931 को आधिकारिक तौर पर नई राजधानी का श्रीगणेश कर दिया गया। वर्ष 1932 में, नई दिल्ली नगर पालिका प्रथम श्रेणी की म्युनिसिपलिटी बन गई। उसे दी गई समस्त सेवाओं और गतिविधियों को पूरा करने के लिए निरीक्षणात्मक शक्तियां प्रदान की गई। वर्ष 1916 में, यह नगर पालिका नई राजधानी के निर्माण में लगे मजदूरों की स्वच्छता जरूरतों को पूरा करने की जिम्मेदारी निभा रही थी।
जबकि वर्ष 1925 के बाद नगरपालिका के कार्यों में कई गुना की बढ़ोत्तरी हुई। वर्ष 1931 में नई राजधानी की इमारतों, सड़कों, नालियों, चिकित्सा और सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था से जुड़े कार्य भी कमेटी को हस्तांतरित कर दिए गए। फिर इसके बाद, वर्ष 1932 में बिजली वितरण और पानी की आपूर्ति का काम भी इसी नागरिक निकाय को स्थानांतरित कर दिया गया। नई दिल्ली नगर पालिका परिषद अपने अस्तित्व के नब्बे वर्ष में एक ऐसे संगठन के रूप में विकसित हुई है, जिस पर देश की राजधानी को सुंदर बनाए रखने के साथ मूलभूत नागरिक सेवाएं प्रदान करने का दायित्व है।
फरवरी 1980 में कमेटी के स्थान पर प्रशासक के हाथ में इसकी बागडोर दे दी गई। मई 1994 में नए कानून के लागू होने तक प्रशासक के हाथ में इसकी कमान रही। मई 1994 में, पंजाब म्युनिसिपल एक्ट 1911 के स्थान पर एनडीएमसी एक्ट 1994 लागू किया गया और कमेटी का नाम बदलकर नई दिल्ली म्युनिसिपल कांउसिल कर दिया गया। देश की संसद ने इस अधिनियम को पारित किया। केंद्र सरकार ने एनडीएमसी एक्ट 1994 की धारा 418 के तहत सदस्यों के नामांकन तक के लिए एक विशेष अधिकारी नियुक्त किया। नई दिल्ली म्युनिसिपल कांउसिल की पहली बैठक 23 दिसंबर 1995 को हुई। एनडीएमसी एक्ट, 1994 के अनुसार, एक अध्यक्ष के नेतृत्व में एक तेरह सदस्यीय परिषद एनडीएमसी के कामकाज को देखती है। इन 13 सदस्यों में से दो विधान सभा के सदस्य, केंद्र सरकार या सरकार या सरकारी उपक्रमों के पांच अधिकारी, जिन्हें केंद्र सरकार नामित करती है, केंद्र सरकार दिल्ली के मुख्यमंत्री के परामर्श से महत्वपूर्ण व्यक्तियों में से चार सदस्य होते हैं। नई दिल्ली का सांसद भी इसका सदस्य होता है क्योंकि वह इस निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है जो कि आंशिक रूप से या पूरी तरह नई दिल्ली में आता है।
Saturday, December 9, 2017
First colour film_Delhi Durbar_1911_दुनिया की पहली रंगीन फिल्म बनी थी, दिल्ली दरबार में
यह बात जानकर हर किसी को अचरज होगा कि दुनिया की पहली सफल रंगीन छायांकन, हकीकत में 1911 में दिल्ली में हुए राज्यारोहण दरबार में फिल्मायी गयी थी। वह बात अलग है कि वर्ष 2000 तक इसकी रील गायब हो रखी थी। विश्व फिल्म के इतिहास में आम तौर पर दिल्ली दरबार में चार्ल्स अर्बन की उपस्थिति की अनदेखी की जाती है। अर्बन ने दिल्ली दरबार की घटनाओं, अंग्रेज साम्राज्य के उत्कर्ष की घड़ियों और उसके सबसे बड़े दृश्यमान जमावड़े को फिल्मांकन के लिए अपनी कीनेमाक्लोर प्रक्रिया का इस्तेमाल किया। हिंदुस्तान के माध्यम से अंग्रेज राजा और रानी को पहली बार रंगीन छायांकन या किसी तरह की एक फिल्म का भाग बनने के कारण अधिकतर पश्चिमी दुनिया के दर्शकों ने इसे देखा।
इस फिल्म ने कामकाजी तबके के लिए एक सस्ते रोमांचक पिक्चर शो को दुनिया भर के भद्रलोक के लिए एक उपयुक्त मनोरंजन का स्थान दिला दिया। उल्लेखनीय है इसे देखने वाले भद्रलोक में ब्रिटिश शाही परिवार, पोप और जापान के सम्राट तक थे। इसके बावजूद कुछ वर्षों के भीतर ही इस फिल्म का फुटेज गायब हो गया था। वर्ष 2000 में इसकी एक रील, रूस के एक शहर क्रास्नोगोस्र्क में मिली। प्राकृतिक रंगीन फिल्मों की पहली पीढ़ी में फिल्म उत्पादन के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाली इस भव्य फिल्म के केवल दस मिनट का फुटेज ही शेष बचा है।
कीनेमाक्लोर की अंग्रेज शाही परिवार के आयोजनों में भागीदारी बाॅम्बे के विक्टोरिया मेमोरियल के उद्घाटन से शुरू हुई जो कि बाद में जॉर्ज पंचम के राज्यारोहण तक चली। जब तत्कालीन अंग्रेज वाइसराॅय लॉर्ड हार्डिंग ने हिंदुस्तान की प्राचीन राजधानी दिल्ली में नए राजा-सम्राट की मेजबानी की तब अर्बन ने इस फिल्म शूटिंग की।
वर्ष 1911 के दिल्ली दरबार में कुल पांच फर्मों को शूटिंग, जिसे अब डाक्यूमेंटरी फुटेज कहा जाता है, करनी की अनुमति दी गई थी। इनमें से रंगीन शूटिंग करने वाली अर्बन की ही टीम थी। इस टीम ने अंग्रेज राजा और रानी के मुंबई में अपोलो बंदर (जहां पर बाद में गेटवे ऑफ इंडिया बना) में उतरने-जाने तक की फुटेज तैयार की। शाही युगल दम्पति ने लाल किला के उत्तर में बने सलीमगढ़ किले के द्वार पर बने प्रस्तर हाथियों के बीच से होते हुए दिल्ली में प्रवेश किया। जबकि हकीकत में दिल्ली दरबार अनेक परेडों और शाही घोषणाओं की एक श्रृंखला थी, जिसका अंत अंग्रेज सम्राट की दो घोषणाओं के साथ हुआ। इनमें से पहली बंगाल विभाजन की समाप्ति और दूसरी अंग्रेज साम्राज्य की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने की थी।
अगर दिल्ली दरबार को पूरी तरह फिल्माने के साथ उसकी फोटोग्राफी नहीं की गई होती तो वर्ष 1911 के इस दरबार की विशालता का आकलन करना मुश्किल ही नहीं असंभव होता। यहां एकत्र हुए महाराजाओं, चमकदार पीतल के साथ जुटे 34,000 सैनिकों, अंग्रेज वाइसराॅय के दल सहित शाही अमला, जहां अंग्रेज राजा ने 6,100 हीरे से जड़ित् भारत का शाही ताज पहना, मौजूद था। ऐसे में अर्बन के लिए फिल्म शूटिंग के हिसाब से इससे अधिक रंगदार घटना नहीं हो सकती थी।
वर्ष 1912 में पूरे लंदन में अंग्रेज राजा और रानी के हिंदुस्तान के दौरे का 150 मिनट का कार्यक्रम, जो कि तब तक की सबसे लंबा फिल्म शो था, प्रदर्शित किया गया। इसके साथ 48 वाद्य यंत्रों का एक ऑर्केस्ट्रा, गाने वाले 24 व्यक्तियों के एक दल सहित बांसुरी-ड्रम बजाने वाले थे जो कि फिल्म प्रस्तुति का अभिन्न अंग थे।
Saturday, December 2, 2017
Arrival of Rail in Delhi_दिल्ली में रेल आने की कहानी
देश की राजधानी के नागरिकों को आज यह बात जानकार अचरज होगा कि शहर में पर रेलवे लाइन कुछ हद तक एक अकाल राहत योजना के तहत बनी थी। जब दिल्ली में रेल पटरी बिछी तब अकाल के बाद कारोबार मंदा था और कुछ व्यापारी दूसरे शहरों को पलायन कर चुके थे। यहां के स्थानीय कारोबारियों में इस बात को लेकर निराशा थी कि आखिकार क्या उन्हें रेलवे से फायदा होगा?
दिल्ली में ईस्ट इंडिया रेलवे के बनने से कारोबार में नए सिरे से जान आई थी। दिल्ली के समृद्ध खत्री, बनिया, जैन और शेख, जिनके हाथों में शहर की अर्थव्यवस्था और खुदरा व्यापार था, और हस्तकला उद्योग के कर्ता-धर्ताओं की स्वाभाविक रूप से पंजाब-कलकत्ता रेलवे के कारण उपजी सकारात्मक संभावनाओं में रुचि थी।
इस प्रस्ताव पर पहली बार वर्ष 1852 में विचार किया गया था। देश की 1857 की पहली आजादी की लड़ाई के बाद अंग्रेजी भारत सरकार ने रेलवे लाइन के दिल्ली की बजाय मेरठ से निकलने का सुझाव दिया। इससे ब्रिटेन और दिल्ली में निराशा का माहौल बना। अंग्रेज दिल्ली में रेलवे के पक्ष में इस वजह से नहीं थे क्योंकि वे दिल्लीवालों को आजादी के पहले आंदोलन में भाग लेने की सजा देना चाहते थे।
ऐसा इसलिए भी था क्योंकि मूल निर्णय न केवल दिल्ली के सैन्य और राजनीतिक महत्व बल्कि पंजाब जाने वाली दूसरी रेलवे लाइन से भी संबंधित था। ईस्ट इंडिया रेलवे कंपनी के अंग्रेज़ निदेशकों ने इसका विरोध किया, लेकिन तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी का मानना था कि यह रेलवे लाइन पूरी तरह से एक शाही और राजनीतिक महत्व वाली रेललाइन है जो कि एक व्यापारिक रेलवे लाइन से अलग है।
दिल्ली में वर्ष 1863 में एक बैठक हुई, जिसमें यह आग्रह किया गया कि शहर को उसकी रेलवे लाइन से वंचित नहीं किया जाना चाहिए। इस बैठक में कुछ अधिकारियों और सैकड़ों सम्मानित भारतीयों ने हिस्सा लिया। आजादी की पहली लड़ाई के पांच साल बाद जुटी यह एक बड़ी संख्या थी। इन लोगों में मुखर सदस्यों में हिंदू और जैन साहूकार, एक हिंदू, एक मुस्लिम और एक पारसी व्यापारी और पांच मुस्लिम कुलीन शामिल थे।उन्होंने सेक्रेटरी ऑफ स्टेट को दी एक याचिका में कहा कि रेलवे लाइन को हटाने से न केवल शहर का व्यापार प्रभावित होगा बल्कि यह रेलवे के शेयर खरीदने वालों के साथ अन्याय होगा। यह एक महत्वपूर्ण बात थी क्योंकि आमतौर पर चुनींदा भारतीयों ने ही ब्रिटिश भारतीय रेलवे कंपनियों के उद्यमों में निवेश किया था लेकिन यह वर्ष 1863 की बात थी जब यह कहा गया था कि दिल्ली के कुछ पूंजीपतियों ने शेयर खरीदे हैं।
इन व्यापारियों और पंजाब रेलवे कंपनी (जो कि ईस्ट इंडिया रेलवे के साथ दिल्ली में एक जंक्शन बनाना चाहती थी क्योंकि मेरठ अधिक दूरी पर था) के दबाव के नतीजन चार्ल्स वुड ने अंग्रेज वाइसराय के फैसले को पलट दिया। वर्ष 1867 में नए साल की पूर्व संध्या की अर्धरात्रि को रेल की सीटी बजी और दिल्ली में पहली रेल दाखिल हुई। दिल्ली के उर्दू शायर मिर्जा गालिब की जिज्ञासा का सबब इस लोहे की सड़क से दिल्ली शहर की जिंदगी बदलने वाली थी।
Wednesday, November 29, 2017
Sunday, November 26, 2017
पद्मिनी का तो बहाना है_Anti Hindu vemon on the name of padmani
न्यूज़ वेबसाइट स्क्रॉल से "पद्मिनी" पर जेएनयू से इतिहास में पीएचडी कर रही रुचिरा शर्मा के लेख को स्वेच्छा से हटा दिया है, जिसमें रुचिरा ने एक दूसरे राजपूत राजा को "पद्मिनी" के जौहर का कारण बताया था.
वैसे एक पक्षीय इतिहास बताता यह कोई पहला लेख नहीं है, एक दूसरे लेख में अपने चाचा-ससुर को मार कर गद्दी पर काबिज अलाउद्दीन खिलजी को "रियाया का सुल्तान" बताने वाली लेखिका यह बात छिपा जाती है कि अलाउद्दीन खिलजी ने ही इस्लामी कानून के नाम पर जजिया देने में असमर्थ हिन्दू प्रजा को बाज़ार में गुलाम के रूप बेचने को सबसे पहली बार 'मान्यता' प्रदान की थी. बाकि मालिक काफूर से खिलजी के संबंध के लिए गूगल सर्च पर पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है, उसके चरित्र को जानने के लिए.
वैसे जवाहर लाल नेहरु ने भी "भारत एक खोज में" राघव चेतन की खिलजी से दक्षिणा के लालच में मंथरा की भूमिका निभाने की बात का उल्लेख किया है, जिसने मेवाड़ से निर्वासित होने के बाद दिल्ली दरबार में जाकर काम-पिपासु खिलजी को पद्मिनी का सौन्दर्य बताकर चित्तौड़ पर आक्रमण के लिए उकसाया था.
Saturday, November 25, 2017
Delhi in British Maps_अंग्रेज़ नक्शों की दिल्ली
भारत में वर्ष 1757 में प्लासी की लड़ाई में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को हराने के बाद अंग्रेज व्यापारिक कंपनी ईस्ट इंडिया को यह बात समझ आई कि यहां की भूमि के प्रबंधन और राजस्व संग्रह के लिए भौगोलिक नक्शे उपयुक्त नहीं है। इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में भारतीय सर्वेक्षण विभाग ने बंगाल से राजस्व सर्वेक्षण करने का काम शुरू किया।
वर्ष 1882 में थॉमस ओलिवर ने दिल्ली के राजस्व सर्वेक्षणों का आरंभ किया, जिन्हें 1870-72 में सुधारा गया। उस समय की दिल्ली क्षेत्र का फैलाव अंबाला, हिसार, लुधियाना और फिरोजपुर तक था। सर्वेक्षण (नक्शे बनाने का काम) का संबंध सामान्य रूप से भूमि को नापना और तदनुसार उन्हें कागज पर चित्रित करना है जिससे कि पृथ्वी की सतह की विशेषताओं की पहचान जहां तक ईमानदारी से संभव हो मानचित्र पर पैमाने की सीमाओं के भीतर चित्रण करना है।
ईस्ट इंडिया कंपनी की सैनिक आवश्यकताओं का ध्यान रखने के लिए वर्ष 1905 में बनी एक सर्वेक्षण समिति ने भारतीय सर्वेक्षण विभाग की नीति और कार्य के स्वरूप को तय किया। इसी क्रम में समिति ने भारतीय सर्वेक्षण विभाग से राजस्व सर्वेक्षण करने के कार्य को स्थानांतरित करते हुए यह जिम्मेदारी प्रांतीय प्रशासन पर डाल दी।
जब अंग्रेज बंगाल, अवध से होते हुए भारत की पश्चिम दिशा की ओर बढ़े तो यमुना नदी से आगे के नए जिलों के सीमांकन के काम की जिम्मेदारी फ्रांसिस व्हाईट को सौंपी गई। यह अंग्रेज सर्वेक्षक वर्ष 1805-06 में कर्नल बॉल की सैन्य ब्रिगेड के साथ रेवाड़ी के आगे के सैनिक अभियानों में नक्शे बनाने का काम कर रहा था। उसने अपने इसी काम को मूर्त रूप देते हुए इस भूभाग के लिए “दिल्ली, हांसी और जयपुर का त्रिभुज” शीर्षक से एक नक्शा बनाया।
फिर उसने वर्ष 1807 में दिल्ली के पड़ोस का नक्शा तैयार किया। यह हाथ से बनाया गया नक्शा है जिसकी मूल प्रति भारतीय सर्वेक्षण विभाग, देहरादून में सुरक्षित है। यह एक दिलचस्प नक्शा है जो कि आज की राजधानी के कई गांवों और स्थानों को दिखाता है, जैसे तालकटोरा, रकाबगंज, जंतर मंतर, चिराग दिल्ली और महरौली। फिर शाहजहांबाद की दिल्ली है। यह नक्शा जामा मस्जिद का एकदम सटीक अक्षांश-28 डिग्री, 38 मिनट 40 सेकंड का बताता है। दिल्ली का यह मानचित्र एक मील के लिए 0.79 इंच के पैमाने के आधार पर तैयार किया गया था। इस मानचित्र में उत्तर-पश्चिम की दिशा से शाहजहानाबाद में आने वाली नहर का भी चित्रण किया गया है। इसी तरह, वर्ष 1850 के आसपास बनाया गया शाहजहांबाद का एक मानचित्र है, जिसमें चांदनी चौक के उत्तर में बनी लगभग सभी गलियां और कूचों तथा बड़े बगीचों को दिखाया गया है, जिनकी जगह अब पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन है।
ऐसे ही, 1912 का दिल्ली का एक मानचित्र उल्लेखनीय है। इस नक्शे को भारतीय सर्वेक्षण विभाग ने गृह विभाग के लिए बनाया था जो कि 1870-72 के दिल्ली के सर्वेक्षणों और गृह राजस्व सर्वेक्षणों के आधारित था। इसी नक्शे के आधार पर वर्ष 1913 में अंग्रेजों की नई राजधानी नयी दिल्ली का प्रस्तावित लेआउट सरकार को प्रस्तुत किया गया था। उल्लेखनीय है कि 1905 में बनी समिति ने बहुरंगी रूपरेखा वाले मानचित्रों के निर्माण के लिए भी आधुनिक मानदंड निर्धारित किए थे। भारतीय सर्वेक्षण विभाग ने इन आधुनिक मानदंडों के आधार पर वर्ष 1912 में पहली बार एक इंच के एक मील के पैमाने पर दिल्ली और उसके आस-पास के इलाकों का सर्वेक्षण किया।
Saturday, November 11, 2017
Food habits of kayastha_कायस्थों का खाना-खजाना
किसी समय एक कहावत प्रचलित थी, "दिल्ली की बेटी, हिसार की गाय, करम फूटे से बाहर जाय।"
इस करम फूटने की आशंका और कारणों में से दिल्ली शहर के खान-पान की अपनी रवायत भी एक महत्वपूर्ण कारण रहा होगा, इसमें शक की गुंजाइश कम है। दिल्ली के मूल निवासी जितने अपने चटोरपन के लिए मशहूर थे, उतनी ही दिल्ली उन खान पदार्थों के वैशिष्ट्य और विविधता के लिए, जिनकी लज्जत ने खानेवालों में यह कद्रदानी पैदा की।
दिल्ली में कायस्थ घरों में बड़ा उम्दा खाना बनता था। अगर इसके ऐतिहासिक कारण देखें तो शाहजहांबाद में रहने वाले कायस्थ और खत्री समुदायों के मुगल दरबारों में काम करने के कारण उनकी भाषा, संस्कृति और खान-पान में मुस्लिम प्रभाव था। माथुरों में यह विशेष रूप से दृष्टिगोचर होता जो कि भोजन के बेहद शौकीन थे और नए व्यंजनों को बनाने में अपार खुशी महसूस करते थे।
"दिल्ली शहर दर शहर" पुस्तक में निर्मला जैन लिखती है कि दिल्ली में कुछ जातियों को छोड़कर बहुसंख्या शाकाहारी जनता की ही थी, इसलिए अधिक घालमेल उन्हीं व्यंजनों में हुआ। मांसाहारी समुदायों में प्रमुखता मुस्लिम और कायस्थ परिवारों की थी। विभाजन के बाद सिख और पंजाब से आनेवाले दूसरे समुदायों के लोग भी बड़ी संख्या में इनमें शामिल हुए। सामिष भोजन के ठिकाने मुख्य रूप से कायस्थ और मुस्लिम परिवारों में या जामा मस्जिद के आसपास के गली-बाजारों तक सीमित थे।
दरअसल खान-पान की संस्कृति का गहरा सम्बन्ध हर समुदाय के इतिहास और भूगोल से होता है। लम्बी आनुभविक प्रक्रिया से गुजरकर मनुष्य अपने खान-पान की रवायतें विकसित करता है जो उसके संस्कार का हिस्सा हो जाती हैं। "दिल्ली जो एक शहर है" पुस्तक में महेश्वर दयाल बताते हैं कि दिल्ली के माथुर कायस्थों के यहां गोश्त की एक किस्म बड़ी स्वादिष्ट बनती थी जिसे शबदेग कहा जाता था। गोश्त को कई सब्जियों में मिलाकर और उसके अंदर विभिन्न पर खास मसाले डालकर घंटो धीमी आंच पर पकाया जाता था। मछली के कोफ्ते (मरगुल), और अदले, पसंदे रोज खाए जाते थे।
"दिल्ली का असली खाना" में प्रीति नारायण बताती है कि माथुरों ने बकरे के मांस या जिगर की तर्ज पर शाकाहारी व्यंजन तैयार किए। दाल को भीगोकर और फिर पीसकर पीठी तैयार की जाती थी, जिससे दाल की कलेजी और दाल का कीमा बनाया जाता था। किसी भी सब्जी से कोफ्ते तो कच्चे हरे केले से केले का पसंदा बनाया जाता था।
यहां पर कायस्थ घरों में अरहर, उदड़ और मसूर की दाल भी बहुत उम्दा बनती थी। अरहर और उड़द की दाल धुली-मिली मिलवां भी बनाते थे और खिलवा भी। खिलवां अरहर और उड़द की दाल में एक-एक दाना अलग नजर आता था। कायस्थ घरों में बेसन के टके-पीसे भी सब्जी के तौर पर बनाए जाते थे। बेसन का एक गोल रोल-सा तैयार करके उसे उबालकर उसके गोल-गोल टके पीसे काट कर उसकी रसेदार सब्जी बनाते थे-जो बड़ी स्वादु होती थी।
इतना ही नहीं, राजधानी में कायस्थ परिवारों में विवाह की तैयारियों का श्रीगणेश परिवार की महिलाओं के मंगोड़ियों बनाकर होता था। मसूल की दाल, कायस्थों में बड़ी उम्दा बनाई जाती थी और उसे स्वादिष्ट समझा जाता था कि यहीं से वह कहावत मशहूर हुई "यह मुंह और मसूर की दाल।"
Sunday, November 5, 2017
Maharaja Surajmal_ हिंदू हितकारी, महाराजा सूरजमल
महाराजा सूरजमल अठारहवीं सदी के भारत का निर्माण करने वाले प्रमुख व्यक्तियों में से एक थे। उनके जन्म ऐसे समय में हुआ जब दिल्ली की राजनीति में भारी उथल-पुथल हो रही थी तो देश विनाशकारी शक्तियों की जकड़न में था। विदेशी लुटेरों नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली ने उत्तर भारत में बहुत बड़ी संख्या में हिन्दुओं को मार डालने के साथ उनके तीर्थों-मंदिरों को भी नष्ट कर दिया था। इन बर्बर आक्रांताओं को रोकने वाला कोई नहीं था। श्रीविहीन हो चुके मुगल, न तो दिल्ली का तख्त छोड़ते थे और न अफगानिस्तान से आने वाले आक्रांताओं को रोक पाते थे। ऐसे अंधकार में महाराजा सूरजमल का जन्म उत्तर भारत के इतिहास की एक अद्भुत घटना थी।
दिल्ली के यमुना पार क्षेत्र शाहदरा के एक पार्क में सूरजमल की छोटी समाधि बनी हुई है। सूरजमल सोसाइटी ने दिल्ली सरकार की मदद से इस समाधि को अच्छा स्वरूप देते हुए पत्थरों से सुसज्जित किया। यह पार्क उस क्षेत्र में स्थित है, जहां कभी युद्ध क्षेत्र हुआ करता था। आज भी यहां नाले के अवशेष देखे जा सकते हैं। यहां कांटेदार झाड़ियां भी दिखती हैं जो कि सूरजमल के समय भी थी। इस क्षेत्र की भूआकृति आज भी जस की तस है, केवल इसके आसपास कुछ निर्माण हुआ है। यह समाधि भरतपुर राज्य के खजाने में सुरक्षित रखे सूरजमल के दांत पर बनाई गई। मथुरा के नजदीक गोवर्धन में कुसुम सरोवर में भी सूरजमल की स्मृति में एक सुंदर छत्तरी बनी हुई है।
बदनसिंह के पुत्र तथा उत्तराधिकारी सूरजमल (1756-63) जाट शासकों में सर्वाधिक शक्तिशाली सिद्ध हुए तथा उनके शासनकाल में जाट समुदाय, जो कि किसान होने के साथ ही वीर और सदैव युद्ध के लिए तैयार थे, की शक्ति अपने चरम पर पहुँच गई। महाराजा सूरजमल का राज्य आर्यावर्त के केन्द्र में था। एक योग्य कूटनीतिज्ञ व सेनापति होने के साथ-साथ वह अपने समय का महान निर्माता भी थे। उनके राज्य का प्रशासनिक मुख्यालय भरतपुर था तो डीग दूसरी राजधानी। सूरजमल ने 1730 में डीग में सुदृढ़ दुर्ग और ऊंचे रक्षा प्राचीर सहित बुर्जों का निर्माण करवाया। डीग में सुन्दर एवं विशाल बगीचों से शहर का सौन्दर्यीकरण किया जाना, सूरजमल की सबसे महत्वपूर्ण कलात्मक देन थी, जो आज भी जाटों के इस महानायक की गौरवपूर्ण स्मृति के रूप में जीवित है।
सूरजमल ने दिल्ली के एक बर्खास्त वजीर इमाद-उल-मुल्क से धन प्राप्त किया था, जो कि अब इस जाट प्रमुख का सहयोगी बन गया था। उल्लेखनीय है कि युवराज के रूप में सूरजमल की वैधता जयपुर के महाराज सवाई जयसिंह ने अपने अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर प्रदान की थी।
वर्ष 1761 में पानीपत में अफ़ग़ान लुटेरे अहमद शाह अब्दाली और मराठों के बीच हुए युद्ध से पूर्व महाराजा सूरजमल ने सैनिक तथा आर्थिक साधन मराठा सेनापति भाऊ की सेवा में प्रस्तुत किए थे, परन्तु उन्हें ग्रहण करने के बजाय उसने उनके प्रति अप्रच्छन्न तिरस्कार दिखाया। इससे ज्यों ही सूरजमल दिल्ली से चले गए, त्यों ही वास्तविकता भाऊ के सामने आ गई। अब्दाली को रसद रूहेला प्रदेश से प्राप्त हो रही थी और भाऊ की सेना के लिए भोजन सामग्री सूरजमल देते रहे थे। भाऊ की नासमझी के कारण यह अक्षय स्त्रोत अब सूख गया। अतः कोई आश्चर्य नहीं कि मराठों को पानीपत में खाली पेट रहकर लड़ना पड़ा।
14 जनवरी 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई मराठों की पूरी पराजय थी और युद्व से बचे हुए एक लाख मराठे बिना शस्त्र, बिना वस्त्र और बिना भोजन सूरजमल के राज्य-क्षेत्र में पहुंचे। सूरजमल और रानी किशोरी ने प्रेम और उत्साह से उन्हें ठहराया और उनका आतिथ्य किया। हर मराठे सैनिक या अनुचर को मुफ्त खाद्य सामग्री दी गई। घायलों की तब तक शुश्रूषा की गई, जब तक कि वे आगे यात्रा करने योग्य न हो गए।
"हिस्ट्री आॅफ मराठा" में अंग्रेज़ इतिहासकार ग्रांट डफ ने मराठे शरणार्थियों के साथ सूरजमल के बरताव के बारे में इस प्रकार लिखा है-जो भी भगोड़े उसके राज्य में आए, उनके साथ सूरजमल ने अत्यंत दयालुता का बरताव किया और मराठे उस अवसर पर किए गए जाटों का व्यवहार को आज भी कृतज्ञता तथा आदर के साथ याद करते हैं। नाना फड़नवीस ने एक पत्र में लिखा है कि सूरजमल के व्यवहार से पेशवा के चित्त को बड़ी सान्त्वना मिली।
विदेशी यात्री फादर फ्रांस्वा ग्जाविए वैंदेल ने अपनी पुस्तक "मेम्वार द ल इंदोस्तान" (हिंदुस्तान के संस्मरण) में लिखा है कि यह तब जब कि उनकी शक्ति सचमुच इतनी थी कि यदि सूरजमल चाहता, तो एक भी मराठा लौटकर दक्षिण नहीं जा सकता था। जब हिन्दुस्तान के नवाब तथा अन्य शक्तिशाली मुस्लिम शासक उनके अपने ही इलाकों को लूटने और उजाड़ने के लिए अब्दाली के मनमौजी संग्रामों (अपने खर्च पर) सम्मिलित होने को विवश हुए थे, तब भी सूरजमल को अपने घर में बैठे यह पता था कि ऐसे प्रचंड शत्रु से अपने राज्य-क्षेत्र की रक्षा कैसे करनी करनी है।
Tuesday, October 31, 2017
Monday, October 30, 2017
Saturday, October 21, 2017
Rahim_khankhana_Abdulभारतीय मुस्लिम परंपरा के प्रतीक रहीम
आज इस बात से कम व्यक्ति ही वाकिफ है कि दक्षिणी दिल्ली के बारापुला पुल के ऊपर से नीचे की ओर दिखने वाली लाल गुम्बद की इमारत अब्दुल रहीम खान का मकबरा है। निजामुद्दीन इलाके के सामने मथुरा रोड के पूर्व में बना यह मकबरा एक विशाल चौकोर इमारत है जो मेहराबी कोठरियों वाले एक ऊंचे चबूतरे पर बनी हुई है। हुमायूं के मकबरे की तर्ज पर बनी इस दोमंजिला इमारत की प्रत्येक दिशा में एक ऊंचे और गहरे मध्यवर्ती मेहराब और हर मंजिल में पिछली तरफ उथले मेहराब बने हैं।
"दिल्ली और उसका अंचल" पुस्तक के अनुसार, इस मकबरे के अन्दर का हिस्सा विशेष रूप से अन्दरूनी छतों पर सुन्दर डिजाइनों सहित उत्कीर्ण और चित्रमय पलस्तर से अलंकृत किया गया है। बीच में दुहरे गुम्बद के आस-पास कोनों में छतरियां और बगलों के मध्य में दालान, खुले हाल, तैयार किए गए हैं।
रहीम अकबर के संरक्षक बैरम खां के बेटे थे, जिन्होंने अकबर और जहांगीर दोनों के दरबार में अपनी सेवाएं दी।17 दिसम्बर 1556 ईस्वी में लाहौर में रहीम का जन्म हुआ था। उनके पिता की अपने परिवार के साथ मक्का के लिए जाते हुए पाटन में एक अफगान ने हत्या कर दी, जिसके कारण रहीम से सिर से पिता का साया उठ गया। उसके बाद रहीम अकबर के संरक्षण में रहे और उन्होंने अपने जीवन में काफी उतार-चढ़ाव देखे, जो कम लोगों को देखने को मिलते हैं।
रहीम युद्ध-वीर, कुशल राजनीतिज्ञ, योग्य शासन-प्रबंधक, दानवीर, बहुभाषाविद् तथा उच्च कोटि के कलाकार थे। 1573 ईस्वी गुजरात विजय के पश्चात् उनकी प्रशंसा में अबुल फजल अपनी किताब "मुनशियात अबुल फजल" में लिखता है, इंसाफ की बात तो यह है तुमने अद्भुत वीरता दिखाई। तुम्हारे हौंसले की बदौलत फतह संभव हो पाई। बादशाह ने प्रसन्न होकर बहुत शाबाशी और “खानखाना” की बपौती पदवी तुम्हें दी।
अलबेरूनी ओर अबुल फजल के पश्चात् रहीम ही ऐसे तीसरे मुसलमान थे, जिन्होंने देश की एक जीवित जाति (हिन्दू) के साहित्य का इतना विशद तथा सहानुभूतिपूर्ण अध्ययन किया था।
रहीम को उस काल की सामाजिक तथा साहित्यिक प्रवृत्तियों का प्रतिनिधि कवि माना जा सकता है। रहीम अरबी, फारसी, तुर्की और संस्कृत के विद्वान थे। इतना ही नहीं, उनके काव्य के कुछ नमूने देखने से यह पता चलता है कि अवधी और ब्रजभाषा पर उनका पूर्ण अधिकार था।
"अब्दुर्रहीम खानखाना" पुस्तक में समर बहादुर सिंह लिखते हैं कि ऐसे वातावरण में रहकर भारत की ही मिट्टी में बने रहीम के उदार दिल में हिन्दी-संस्कृत के प्रति अपार अपनापन तथा ममत्व उमड़ आना स्वाभाविक ही था।
कविता के सच्चे ग्राहक होने के नाते कवियों के प्रति रहीम की उदारता इतिहास का विषय बन गयी है। कहते हैं कि उन्होंने गंग कवि को केवल एक छंद पर 36 लाख रूपया पुरस्कार दिया था। रहीम की स्वाभाविक उदारता से परिचित कवि गंग ने एक दिन दोहे में खानखाना से प्रश्न कियाःसीखे कहां नवाज जू ऐसी देन,ज्यों-ज्यों कर ऊंचे करो, त्यों-त्यों नीचे नैन।खानखाना ने तुरंत इसके उत्तर में यह दोहा पढ़ाःछेनदार कोऊ और है भेजत सो दिन-रैनलोग भरम हम पर धरें, याते नीचे नैन
रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी पुस्तक "संस्कृति के चार अध्याय" में लिखा है कि यह समझना अधिक उपयुक्त है कि रहीम ऐसे मुसलमान हुए हैं जो धर्म से मुसलमान और संस्कृति से शुद्ध भारतीय थे।
उसकी मृत्यु सन् 1626-27 में हुई।
Wednesday, October 18, 2017
Hindi Literature_society_diwali_हिन्दी साहित्य-समाज और दीपावली
Gaganendranath Tagore (India, 1867-1938) The Illumination of the Shadow, watercolour |
साहित्य समाज का दर्पण होता है पर इस दर्पण को देखने की दृष्टि भाषा देती हैं। जबकि भाषा की गहराई और विचार को वहन करने की क्षमता लोकजीवन से उसके जुड़ाव से प्रकट होती है। लोकजीवन समाज के रहन-सहन, संस्कार, पर्व-त्यौहार से बनता है और साहित्य के रूप में शब्द इन्हीं सबको एक स्थान पर पिरोकर उसे चिरस्थायी बना देते हैं।
साहित्य में जहाँ अक्षर, अविद्या के तमस को हटाकर विद्या की ज्योति जलाते हैं वहीँ दीपावली जीवन में निराशा, असफलता के अँधेरे के क्षणिक होने और संघर्ष के बाद अंत में प्रकाश के आलोकित होने का प्रतीक पर्व है। हिंदी साहित्य और दीपावली का अंतर-संबंध भी कुछ ऐसा ही है, जो कि पाठक के रूप में व्यक्ति और समूह के रूप में समाज को सकारात्मकता और भविष्य के प्रति आस्था को दृढ़ करता है।
Saturday, October 14, 2017
History of Metcalf House_मेटकॉफ हाउस का सफर
दिल्ली के कश्मीरी गेट बस अड्डे से बाहरी रिंग रोड से होते हुए मजनू का टीला की ओर आगे बढ़ने पर पहली लाल बत्ती पार करके ही बाएं हाथ पर ऊंचाई पर एक बहुत ही आलीशान कोठी बनी हुई है, जिसे मुगलों के जमाने में देश की आजादी की पहली लड़ाई से पहले थॉमस मेटकाफ (1795-1853) ने अपने रहने के लिए बनवाया था जो कि अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के दरबार में अंग्रेज गवर्नर जनरल का आखिरी ब्रिटिश रेसिडेंट (1835-53) था। 1835 में सिविल लाइन्स के पास औपनिवेशिक शैली में बनाया गया यह पहला घर टाउन हाउस कहलाता था।
इसका बाहरी हिस्सा बड़ा आकर्षक था क्योंकि इसके चारों ओर एक बरामदा था। यह बरामदा बहुत ऊंचा तथा 20 फुट से 30 फुट तक चौड़ा था और इसकी छतों को थामने वाले पत्थर के शानदार स्तम्भों की संख्या बहुत अधिक थी। परन्तु वास्तविक रूप से प्रशंसनीय इसका आंतरिक भाग था। इसकी संगमरमर की मेजें बड़ी सुन्दर और सुथरी लगती थी। इसकी दीवारों पर ऐतिहासिक घटनाओं से सम्बद्व दृश्य और प्रख्यात नर-नारियों के चित्र लगे थे। चांदी के बने कलमदान, कागज काटने के चाकू और घड़ियां इसके कमरों को आकर्षक और रमणीक रूप प्रदान करते थे। इस घर के उत्तर पूर्व की ओर का एक कमरा विशेष महत्ता का था। इसे नेपोलियन दीर्घा कहा जाता था क्योंकि इसे नेपोलियन बोनापार्ट की, जिसका थाॅमस बड़ा प्रशंसक था, स्मृति को समर्पित किया था। पुस्तक खानों में नेपोलियन के जीवन और कृतित्व से सम्बन्धित पुस्तकें और एक संगमरमर की पीठिका पर नेपोलियन की संगमरमर की मूर्ति रखी रहती थी। एक और कमरे में पुस्तकालय था, जो 25000 से अधिक पुस्तकों का उत्कृष्ट संग्रह के लिए उल्लेखनीय था।
1857 के पहले भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में मैटकाफ हाउस को लूटा गया और बुरी तरह से जलाया गया। अंग्रेजों के दिल्ली पर दोबारा कब्जे के बाद इस घर का स्वामित्व उसके बेटे उसके बाद थियोफिलस मेटकाफ को मिल गया जो कि तत्कालीन अंग्रेज सेना का अफसर था।उसके बाद इस स्थान के कई मालिक बने।
जब अंग्रेजों ने कलकत्ता से अपनी राजधानी दिल्ली स्थानांतरित की तब 1920-1926 की अवधि में यह स्थान केन्द्रीय विधान मंडल की कांउसिल आॅफ स्टेट का गवाह रहा। बाद में, इस भवन का उपयोग संघीय लोक सेवा आयोग और स्वतन्त्रता के उपरांत गठित भारतीय प्रशासनिक सेवा प्रशिक्षण स्कूल द्वारा किया गया। यहां पर 1947 में एक आईएएस प्रशिक्षण स्कूल स्थापित किया गया था जहां आपातकालीन युद्ध सेवा के अफसरों को प्रशिक्षित किया गया था। बाद में 1949 में नियमित अफसरों के पहले बैच (जो कि नयी प्रतियोगी परीक्षाएं उत्तीर्ण कर के आया था) यहां प्रशिक्षित किया गया।
सन् 1958 में इस स्कूल को मसूरी ले जाने का निश्चय किया गया। इस निर्णय के साथ ही मैटकाफ हाउस के उतार-चढ़ाव पूर्व इतिहास का एक और अध्याय समाप्त हो गया। अब यह स्थान रक्षा मंत्रालय के अधीन है, जहां पर उसके कई सहायक कार्यालय हैं।
Saturday, October 7, 2017
Hindi to English Highway_भाषायी राजमार्ग
हिंदी प्रदेशों के गांवों, कस्बों और शहरों की पगडंडी से देश की राजधानी के भाषायी राजमार्ग पर आने में अक्सर व्यक्ति चोटिल-घायल होते हैं तो कुछ बदनसीब हमेशा के लिए विकलांग को जाते हैं!
सबसे दर्दनाक तो इस सफ़र में हमेशा के लिए ख़त्म हो जाने वाले होते हैं, जिनकी कहीं कोई गिनती नहीं होती!
भारत से इंडिया के इस भाषाई परिवर्तन की मार पंथिक मह्जबों में मतांतरण से कम त्रासदीपूर्ण नहीं है, क्यों ठीक कहा न ?
फिर चाहे दिल्ली पहुंचना हो या मुंबई...
wall of old city of delhi_पुरानी दिल्ली की दीवार_फसील
मुगल बादशाह शाहजहां ने 1639 में दिल्ली में एक नया शहर बसाने का फैसला किया। नतीजन लाल किला और शाहजहानाबाद दस साल में बनकर पूरा हुआ। सात मील के दायरे में फैले हुए इस नए शहर की तीन तरफ एक मोटी और मजबूत दीवार बनी थी। महेश्वर दयाल की पुस्तक "दिल्ली जो एक शहर है" के अनुसार, शाहजहानाबाद की दीवार 1650 में पत्थर और मिट्टी की बनाई गई थी, जिस पर तब पचास हजार रूपए का खर्चा आया। यह 1664 गज चौड़ी और नौ गज ऊंची थी और इसमें तीस फुट ऊंचे सत्ताईस बुर्ज थे।
1857 देश की आजादी की पहली लड़ाई में बादशाह बहादुर शाह जफर की हार के बाद दिल्ली अंग्रेजों के गुस्से और तबाही का शिकार बनी। फरवरी 1858 में अंग्रेज सैनिक अधिकारियों ने शहर की दीवार को ध्वस्त करने का आदेश दिया। तत्कालीन कमिश्नर जाॅन लॉरेंस इस को पूरी तरह एक गलत फैसला मानता था। उसने दिल्ली में सात मील लंबी दीवार को उड़ाने के लिए अपर्याप्त बारूद होने की बात कही। फिर आदेश को पूरा करने के लिए मजदूरों ने एक-एक करके हाथ से दीवार के पत्थरों को हटाया। यह एक तरह से जानबूझकर देरी के लिए अपनाई रणनीति हो सकती है, क्योंकि वर्ष के अंत में सुप्रीम गर्वनमेंट ने उसकी बातों को स्वीकार कर लिया और दीवार को कायम रखने का फैसला किया।
जबकि पश्चिम और उत्तर दिशा की दीवार के विपरीत दक्षिण-पश्चिमी तरफ की दीवार, असलियत में एक रूकावट थी तथा 1820 के दशक में इसके कुछ हिस्सों को ध्वस्त कर दिया गया।
मार्च 1859 में "दिल्ली गजट" ने यह खबर छापी कि महल के अंदर गोला-बारूद से उड़ाने का काम हो रहा है। लाॅर्ड कैनिंग ने इसके एक साल बाद वास्तुकला या ऐतिहासिक महत्व की पुरानी इमारतों को संरक्षित किए जाने का आदेश जारी किया पर तब तक काफी देर हो चुकी थी। 1861 में रेलवे लाइन बिछाने के हिसाब से शहर की दीवार में बने काबुली गेट और लाहौरी गेट के बीच शहर की दीवार को तोड़ दिया गया।
फिर अंग्रेजों ने भारतीय शहरों की प्रकृति, भारतीयों के दोबारा आजादी की लड़ाई छेड़ने के भय और शहरों में नए निर्माण की जगह बनाने के लिए पुराने शहर के केंद्रों को खत्म करने की बातों का ध्यान करते हुए नए शहरों की योजना बनाई।
1872 में दिल्ली को एक सुंदर शहर बनाने की चाहत रखने वाला अंग्रेज कमीश्नर कर्नल क्रेक्रॉफ्ट पुराने शहर की दीवार को अराजकतावाद की निशानी मानता था। 1881 में नगर पालिका ने लाहौरी दरवाजे की दोनों ओर रास्ते बनाते हुए दिल्ली गेट को नष्ट करने का इरादा बनाया। तत्कालीन अंग्रेज कमांडर-इन-चीफ ने इस पर आपत्ति व्यक्त की क्योंकि वह कश्मीरी गेट और उससे सटी दीवारों को ऐतिहासिक महत्व की वजह से बचाना चाहता था।
1911 में अंग्रेजों के अपनी राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली लाने के साथ ही एडवर्ड लुटियन को शाहजहांनाबाद के बाहर नई दिल्ली बनाने का दायित्व सौंपा गया। वह (लुटियन) तो वायसराय भवन से लेकर जामिया मस्जिद तक एक सीधी सड़क निकालना चाहता था, जो पुरानी दिल्ली की दीवार और बाजारों से होते हुई गुजरती। लेकिन उसकी इस योजना को अंग्रेज राजा की स्वीकृति नहीं मिलने के कारण ऐसा नहीं हो सका।
Thursday, October 5, 2017
Kazuo Ishiguro_Nobel Prize for literature_काजुओ इशिगुरो, इस साल के नोबल साहित्य पुरस्कार विजेता
यह हैरानी की बात है कि तुम्हारी सबसे मूल्यवान स्मृतियां तेजी से विस्मृत होने लगती है। लेकिन मैं ऐसा नहीं होने देता हूं। मैं स्मृतियों को सबसे अधिक सहेजकर रखता हूं, मैं उन्हें कभी मिटने नहीं देता...
-काजुओ इशिगुरो, इस साल के नोबल साहित्य पुरस्कार विजेता, नेवर लेट मी गो में
Sunday, October 1, 2017
Individualism in Indian Intellact_भारतीय बौद्धिकता
पश्चिम से उधारी की परंपरा वाली आज देश की कथित आधुनिक भारतीय बौद्धिकता के बौद्धिकों के अपने-अपने अलग चर्च हैं.
हर चर्च का एक अलग पादरी है!
सो, ईसाई पंथ की तरह एक कैथोलिक प्रोटोस्टेंट के गिरजे में नहीं जा सकता तो सीरियन चर्च दूसरे पंथ को अपने बराबर नहीं मानता.
सो, जनता तो किसी गिनती में ही नहीं है.
सो, जो जितना ऊँचा है वह उतना अकेला है.
Selective Memory Loss_रतौंदी
"सभी मंदिर जाने वालों को महिलाओं के साथ छेड़खानी करने वाला" बताने वाले बयान को देने वाला भला नवरात्रि में गुजरात के कुछ हिन्दू मंदिरों में क्यों गया?मंदिर जाने वाले हिन्दू को लेकर मन-मत बदल गया या मजबूरी आन पड़ी!मंदिर के मारे, मस्जिद-चर्च भी छूट गए!धर्मनिरपेक्षता जो कराये थोड़ा, पहले एक प्रधान मंत्री ने मंदिर का ताला खोला फिर दूसरे ने देश के संसाधनों पर पहला हक़ जमात वालों का बता दिया.हे भगवान, माफ़ करना नहींओह माय गॉड! पार्डन हिम. कॉन्फेशन बॉक्स में 'गलती' की माफ़ी मांग लेंगे.वैसे देसी हिंदी में इसके लिए "थूक कर चाटना" का एक मुहावरा है. (०११०२०१७)
Saturday, September 30, 2017
Rajendra Prasad_Mahtma Gandhi_राजेन्द्र प्रसाद के गांधी
आजादी के बाद लोकप्रिय अर्थ में बेशक जवाहर लाल नेेहरू को महात्मा गांधी को उत्तराधिकारी माना गया हो पर सच्चाई यही है कि देश के पहले राष्ट्रपति डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद सरकार में गांधी के आचरण-व्यवहार के जीवंत प्रतीक थे।
इसी जुड़ाव के बारे में 17 अप्रैल 1950 को भंगी काॅलोनी, नई दिल्ली में अखिल भारतीय हरिजन कार्यकर्ताओं की सभा में राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने कहा था कि महात्मा गांधी जी के साथ जब से रहने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ तब से उनकी आज्ञा के मुताबिक उनके बताये हुये रास्ते पर चल कर आप लोगों की जो थोड़ी बहुत सेवा करने का मौका मिला उसे मैंने किया।
महात्मा गांधी जी ने हमें यह सिखाया था कि यह काम सबसे महत्व का है। यह स्थान भी जो आप के सम्मेलन के लिए चुना गया है वह भी एक महत्व का स्थान है। महात्मा गांधी जी ने यहां बहुत दिन बिताये थे और वे भी ऐसे समय में बिताये थे जब कि देश के भाग्य का फैसला होने वाला था। यहां बहुत से ऐसे फैसले किये गये जिन से देश के भाग्य का निर्णय हुआ। मैं कोशिश करूंगा कि यहां एक ऐसा स्मारक बने जो केवल ईट पत्थर का स्मारक न रहे बल्कि ऐसा स्मारक, एक शिक्षा संस्था, हो जो यहां के लोगों के दिलों में वह चीज पैदा करे जिस से आप की सच्ची सेवा हो।
इतना ही नहीं, गांधी के राम से जुड़ाव को लेकर राजघाट पर बलिदान दिवस (30/01/1951) पर राजेन्द्र प्रसाद ने कहा था कि महात्मा जी ने देश को बहुत कुछ बताया, देश को बड़ी शक्ति दी। पर महात्मा जी ने स्वयं वह शक्ति कहां से पायी जिसको उन्होंने सारे देश में और सारे संसार में इस तरह से वितरित किया? वह मानते थे कि और बार बार कहते थे और लिखते थे कि उनकी सारी शक्ति ईश्वर की दी गई है; राम नाम की शक्ति है और उसी राम नाम के बल से उन्होंने जो कुछ किया वह किया और अन्तिम शब्द भी जो उनके मुंह से निकला वह था-हे राम। महात्मा गांधी जी ने अपनी सारी जिन्दगी में जो तपस्या की थी जो काम किया था उसे उन्होंने संसार के लिये दे दिया और साथ ही साथ अन्त में उनके सामने ईश्वर का नाम लेेते हुए वह इस शरीर को छोड़ कर जो इसी स्थान पर अग्नि में जल कर भस्म हो गया फिर ईश्वर में जाकर मिल गये।
वहीं एक विश्वविद्यालय के समारोह में उन्होंने कहा था कि भारत वर्ष ने विजय प्राप्त की है क्योंकि साम्राज्य के विरोध में भी अपने आन्दोलन में महात्मा गांधी ने अहिंसा के उस सिद्वांत का पालन किया जिसका प्रचार वह अपने सारे जीवन में करते रहे थे। उनका इसके लिए जैसा आग्रह था वैसी अहिंसा में श्रद्वा आज किसी व्यक्ति की नहीं है जो इस आदर्श को उसी बल और श्रद्वा से संसार के सामने रख सके। जब तक यह उस श्रद्वा और विश्वास के साथ नहीं रखा जाता है तब तक उसका वह प्रभाव नहीं होगा जो महात्मा गांधी के शब्दों का हुआ करता था।
Monday, September 25, 2017
Sunday, September 24, 2017
Durga_prostitute_दुर्गा_वेश्या
ऐसी दोगली बौद्धिकता को नमन!
शरीर के पोलियो का तो ईलाज है पर मानसिक पोलियो के शिकार के विकार का वमन...
देवी दुर्गा को रक्षा मंत्री बताने पर उपराष्ट्रपति की कुल परंपरा पूछी जा रही है जबकि दुर्गा को वेश्या बताने वाले दिल्ली विश्वविद्यालय के अध्यापक 'मंडल' को पिछड़ा वर्ग का बताकर बचाव किया जा रहा है.
समाज के वन्दनीय प्रतीकों की अवमानना करना कौन-सी परंपरा और कुल वंश का गुण है, भला इसका परिचय तो समूचे विश्व को मिलना चाहिए.
Saturday, September 23, 2017
पगले सरदार की "नई दिल्ली"_Delhi of Khushwant Singh
प्रसिद्व अंग्रेजी पत्रकार और लेखक खुशवंत सिंह का दिल्ली से चोली-दामन का साथ रहा है। जिंदगी को बिंदास तरीके से जीने के हिमायती खुशवंत ने अपनी आखिरी सांस भी नई दिल्ली में ही ली। उनका सोचना था कि “यही पर मैंने जिदंगी का अधिकांश हिस्सा बिताया और यही पर मैं मरूंगा।” इस तरह दिल्ली की मौजूदगी न केवल उनके व्यक्तित्व में बल्कि कृतित्व में भी दिखती है।
"दिल्ली" नाम का उनका उपन्यास इस महानगर की ऐतिहासिक यात्रा को आधुनिक दौर तक की झांकी पेश करता है। इस फंतासी की किताब में एक किन्नर (हिजड़े) के जरिए दिल्ली की दास्तान कही गई है।
अपने बचपन में 6 साल की उम्र से दिल्ली के माॅडर्न स्कूल में पढ़ाई शुरू करने वाले खुशवंत सिंह के अनुसार, मैं 1920 में अपने पिता के साथ दिल्ली आया तब तक तो नई दिल्ली को बनाने का काम जोरों पर चल रहा था। नई दिल्ली के अंग्रेजी साम्राज्य की राजधानी बनने की कहानी बताते हुए वे कहते हैं कि सन् 1911 में दिल्ली में बर्तानिया के किंग जाॅर्ज और क्वीन मेरी का ऐतिहासिक दरबार लगा था, जिसमें हिंदुस्तान की राजधानी कोलकता से बदलकर दिल्ली में करने की घोषणा की गई थी। उस दरबार में शिरकत करने उनके मेरे पिता (सुजान सिंह) और दादा भी आए थे। वे दोनों ठेकेदारी के धंधे में थे और तब तक कालका शिमला रेलवे लाइन बिछा चुके थे। उन्होंने सोचा कि दिल्ली राजधानी बनेगी तो इमारतें बनाने के लिए बहुत सारे काम मिल जाएंगे, इसलिए वे सन् 1912 में यहां आ गए और निर्माण में जुट गए।
नई दिल्ली में आबादी की बसावट का उल्लेख करते हुए खुशवंत कहते है कि उन दिनों हम जहां रहते थे, उसे आजकल ओल्ड हिल कहते हैं, जहां आज का रफी मार्ग है। एक कतार में वहां ठेकेदारों के अपने अपने झोंपड़ीनुमा घर थे। घरों के सामने से एक नैरो गैज रेलवे लाइन जाती थी, जिस पर इम्पीरियल दिल्ली रेलवेज नाम की रेलगाड़ी चला करती थी, जो बदरपुर से कनाट प्लेस तक पत्थर-रोड़ी-बालू भरकर लाया करती थी। यह रेल बहुत ही धीमी गति से हमारे घरों के सामने से गुजरती थी। हम बच्चे हर दिन इसमें मुफ्त सैर किया करते।गार्ड हमें भगाता रहता, पर हम कहां मानने वाले। यही हमारा मनोरंजन का साधन था।
आज की संसद के बारे में वे बताते है कि जहां आज संसद भवन की एनेक्सी है, वहां इन दिनों बड़ी-बड़ी आरा मशीनें चलती थीं जिसमें पत्थरों की कटाई होती। सुबह-सुबह ही पत्थर काटने की ठक-ठक की आवाजों से हमारी नींद खुल जाती। लगभग साठ हजार मजदूर नई दिल्ली की इमारतों को बनाने में लगे थे। ज्यादातर तो राजस्थानी थे, उन्हें दिहाड़ी के हिसाब से मेहनताना मिला करता था, मर्दों को आठ आठ आना और औरतों को छह आना दिहाड़ी मिला करती थी।
उनके अनुसार, राजधानी में पहले सचिवालय बने। साथ ही साथ सड़के बिछानी शुरू की गई। सरकार चाहती थी कि लोग आगे आएं और जमीनें खरीदकर वहां इमारतें बनाएं, पर लोग अनिच्छुक थे। लोग काम करने नई दिल्ली के दफ्तरों में आते और पुरानी दिल्ली के अपने घरों को लौट जाते। यहां तो जंगल ही था सब-रायसीना, पहाड़गंज, मालचा-सब कहीं। गुर्जर ही रहते थे बस यहां। सारी जगह कीकर के जंगल थे, कहीं कहीं तो जंगली जानवर भी।
वे अपने परिवार और पैतृक व्यवसाय के नई दिल्ली के निर्माण से जुड़े रहने के बारे में बताते है कि मेरे दादा से अधिक मेरे पिता ही दरअसल वास्तविक रूप से निर्माण कार्य में लगे थे। उनके पिता व्यवसाय की ऊपरी देखरेख करते थे। उन्होंने नई दिल्ली की अनेक इमारतें बनाईं, जिनमें प्रमुख थीं-सचिवालयों का साउथ ब्लाॅक, इंडिया गेट (जिसे तब आल इंडिया वाॅर मेमोरियल आर्च कहा जाता था), आॅल इंडिया रेडियो बिल्डिंग (आकाशवाणी भवन), नेशनल म्यूजियम, बड़ौदा हाउस एवं अनगिनत सरकारी बंगले। साथ ही उन्होंने (सुजान सिंह) अपनी खुद की भी कई इमारतें बनाई, जैसे-वेंगर्स से लेकर अमेरिकन एक्सप्रेस तक का कनाॅट प्लेस का एक पूरा का पूरा ब्लाॅक। उन दिनों यह सुजान सिंह ब्लाॅक कहलाता था। रीगल बिल्डिंग, नरेंद्र प्लेस, जंतर मंतर के पास और सिंधिया हाउस भी उन्होंने ही बनाए। ये सब उनकी निजी संपत्तियां थीं। अजमेरी गेट के पास भी कई इमारतें उनकी थीं।
सुजान सिंह ने दूसरे ठेकेदारों के साथ मिलकर विजय चौक, संसद भवन का भी कुछ हिस्सा बनाया। नार्थ ब्लाॅक को सरदार बसाखा सिंह और साउथ ब्लाॅक को सुजान सिंह ने बनाया। उनकी पत्नी के पिता सर तेजा सिंह सेंट्रल पी‐डब्ल्यू‐डी में चीफ इंजीनियर थे। वे पहले भारतीय थे, जिन्हें चीफ इंजीनियर का दर्जा प्राप्त था, वरना तो सिर्फ अंग्रेजों को ही यह पद दिया जाता था। सचिवालयों के शिलापट्टों पर खुशवंत सिंह के पिता और ससुर दोनों के नाम खुदे हुए हैं। इंडिया गेट से राष्ट्रपति भवन की ओर जाने पर नार्थ और साउथ ब्लाॅकों के मेहराबदार ताखों में शिलापट्टों पर एक तरफ नई दिल्ली
को बनाने वाले ठेकेदारों के नाम हैं और दूसरी तरफ आर्किटेक्टों और इंजीनियरों का नाम हैं।
Saturday, September 16, 2017
Metro Rail changes Delhi Character_सूरत से सीरत तक बदली मेट्रो ने
देश में मेट्रो का सामाजिक परिवर्तन के वाहक के रूप में मूल्यांकन किया जाता है। इस मूल्यांकन का आधार दिल्ली के समाज को लोकतांत्रिक बनाने, मेट्रो की महिला यात्रियों को अलग स्थान देकर सशक्त बनाने और रोजमर्रा की जिंदगी में आवाजाही के लिए उसका का प्रयोग करने वाली जनसंख्या के व्यवहार को सभ्य बनाने सरीखे कदम हैं। इन सभी बातों का दिल्ली के भौतिक वातावरण पर प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रूपों में असरकारी प्रभाव पड़ा है। कुछ समय बाद दिल्ली मेट्रो से पहले की राजधानी की कल्पना करना सहज नहीं होगा।
कैब्रिज युनिवर्सिटी प्रेस से छपी पुस्तक "ट्रैक्स आॅफ चेंजः रेलवेज एंड एवरीडे लाइफ इन कोलोनियल इंडिया" पुस्तक में रितिका प्रसाद ने दिल्ली मेट्रो के बनने से राजधानी के भूगोल, इतिहास, समाज में आए परिवर्तन और भारतीय रेल से अंर्तसंबंध को रेखांकित किया है।
पुस्तक के अनुसार, राजधानी में मेट्रो रेलवे पटरियों, स्टेशनों, तटबंधों, पुलों, सिगनलों और क्रॉसिंगों के बढ़ते नेटवर्क ने औपनिवेशिक भारत के परिदृश्य को स्थायी रूप से बदल दिया है। यही कारण है कि दिल्ली मेट्रो स्टेशन पहचान के नए निशान हैं तो मेट्रो के खंभे ठिकाने तक पहुंचने का नया जरिया बन चुके हैं। जबकि इस प्रक्रिया में मेट्रो के जमीन से ऊंचाई पर बने पुलों के रास्तों ने महानगर के क्षितिज को परिवर्तित कर दिया है। कुतुब मीनार के करीब से गुजरती मेट्रो लाइन के रास्ते को दोबारा केवल इसलिए बनाना पड़ा क्योंकि उससे जनता के शहर के इतिहास का अभिन्न भाग वाले ऐतिहासिक स्मारक को देखने के दृश्य के बाधित होने का खतरा था।
रितिका प्रसाद रेल और जमीन के सौदे की बात पर लिखती है कि भारतीय रेल की तरह, मेट्रो सीधे जमीन की खरीद नहीं करता है। दरअसल, असली फर्क यह है कि दिल्ली मेट्रो को अपने लिए किए जाने वाले भूमि अधिग्रहण का भुगतान करना होता है। जबकि इसके विपरीत, ब्रिटिश भारत में रेलवे की मालिकान अंग्रेज कंपनियों के लिए शासन सीधे हस्तक्षेप करके इंपीरियल हुकूमत से निशुल्क भूमि मुहैया करवाता था। इस कदम से अंग्रेज रेल कंपनियों की बुनियादी ढांचा खड़ा करने की लागत में कमी आती थी और उनके मुनाफे की संभावना बढ़ती थी।
किताब बताती है कि दिल्ली मेट्रो के कुछ मामलों में, असली सवाल मूल्यांकन या मुआवजा न होकर विरासत है, खासकर उन क्षेत्रों में जहां भूमिगत लाइनों के लिए खुदाई करनी होती है। रेल निर्माण को कई मामलों में जैसे पुरातात्विक अवशेषों या 1857 की पहली आजादी की लड़ाई के ठीक बाद की महत्वपूर्ण धार्मिक इमारते, जो कि सचमुच मेट्रो के रास्ते में आई, उससे दिल्ली मेट्रो को कोई दिक्कत नहीं हुई। इसका कारण यह था कि मेट्रो के निर्माण में ऐतिहासिक इमारतों की तुलना में विरासत वाले स्मारकों को प्राथमिकता दी गई। कुल मिलाकर धार्मिक तीर्थस्थानों की बजाय ऐतिहासिक इमारतों की चिंता की गई है। विडंबना यह है कि मेट्रो की हेरिटेज लाइन को लेकर अधिक सवाल खड़े हुए हैं, जिसका उद्देश्य दिल्ली के ऐतिहासिक स्मारकों को सुलभ बनाना है। विडंबना यह है कि दिल्ली के ऐतिहासिक स्मारकों को सुलभ बनाने के उद्देश्य वाली मेट्रो की हेरिटेज लाइन को लेकर अधिक सवाल खड़े हुए हैं।
रितिका प्रसाद के अनुसार, कुछ भिन्न करने की इच्छा से पूर्ववर्ती प्रौद्योगिकियों के संबंध में नई तकनीक के आयात की जरूरत समझने की बात सामने आई। रेलवे के प्रभाव का पता लगाने की दिशा में एक सूत्र मिला और वह था दिल्ली में एक सदी से अधिक की अवधि के अंतर वाले दो परिवहन क्रांतियों के बीच सादृश्य खोजने का। यह प्रयास फलदायी सिद्व हुआ, जिससे रोजमर्रा के उपयोग में नई तकनीक के ऐतिहासिक अर्थ के उपयोग की बात सामने आई।
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