उस लाल पत्थर की इमारत को देख, कुछ पुरानी यादें ताजा हो आयीं
वर्ना अब तो शीशे को भी देख, नजर अपने मेँ भी कुछ देख नहीं पायीं
जब उसकी यादों के बादल घिर आते हैं, आँखेँ खुद-ब-खुद बरस जाती हैं
लगता है मानो कल की ही तो बात है, पीछे देखते हुए नज़रें थम जाती हैं
अब आलम यह है कि अपना ही वजूद, कुछ बिखरा-बिखरा लगता है
दिल को कितना समझाया था, एक वो है कि टुकड़े-टुकड़े लगता है
अब तो लबों में ही नहीं, दोनो दिलोँ में ख़ामोशी छाई है
जहां सिर्फ़ दिलों के धड़कनों की, आवाज़-भर आई है
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