Friday, April 4, 2014

Khuswant's Delhi (दिल्ली की कहानी, खुशवंत सिंह की जुबानी)



यादे फना फिजूल है, नामोनिशां की फ्रिक
जब हमीं न रहे, तो रहेगा मजार क्या
जिंदगी को लेकर कुछ ऐसा नजरिया रखने वाले प्रसिद्व अंग्रेजी पत्रकार और लेखक खुशवंत सिंह का दिल्ली से दिल-ओ-जान का अटूट नाता रहा, जिसको उनकी मौत की जुदा कर पाई। इस बारे में उनका मानना था कि “यही पर मैंने जिदंगी का अधिकांश हिस्सा बिताया और यही पर मैं मरूंगा।”
दिल्ली शीर्षक वाला ऐतिहासिक उपन्यास लिखने वाले खुशवंत सिंह ने एक हिजड़े के माध्यम से दिल्ली की कहानी बयान की है। इसके अलावा, उनके कथात्तेर साहित्य में शायद ही कोई बात है जो दिल्ली के जिक्र के बिना पूरी होती है।
उनके अनुसार, “सन् 1911 में दिल्ली में बर्तानिया के किंग जाॅर्ज और क्वीन मेरी का ऐतिहासिक दरबार लगा था, जिसमें हिंदुस्तान की राजधानी कोलकता से बदलकर दिल्ली में करने की घोशणा की गई थी। उस दरबार में षिरकत करने उनके मेरे पिता (सुजान सिंह) और दादा भी आए थे। वे दोनों ठेकेदारी के धंधे में थे और तब तक कालका शिमला रेलवे लाइन बिछा चुके थे। उन्होंने सोचा कि दिल्ली राजधानी बनेगी तो इमारतें बनाने के लिए बहुत सारे काम मिल जाएंगे, इसलिए वे सन् 1912 में यहां आ गए और निर्माण में जुट गए।”

अपने बचपन में 6 साल की उम्र से दिल्ली के माॅडर्न स्कूल में पढ़ाई शुरू करने वाले खुशवंत सिंह के मुताबिक, मार्च 1913 तक नई दिल्ली को बनाने की प्राथमिक योजना पूरी हो गई थी। लेकिन 1914 में प्रथम विश्व युद्ध शुरू हो जाने से नई दिल्ली को बनाने का काम खटाई में पड़ता नजर आने लगा। पर जब तक मैं 1920 में अपने पिता के साथ दिल्ली आया तब तक तो नई दिल्ली को बनाने का काम जोरों पर चल रहा था।

नई दिल्ली के बसने के दौर के बारे में खुशवंत कहते है कि उन दिनों हम जहां रहते थे, उसे आजकल ओल्ड हिल कहते हैं, जहां आज का रफी मार्ग है। एक कतार में वहां ठेकेदारों के अपने अपने झोंपड़ीनुमा घर थे। घरों के सामने से एक नैरो गैज रेलवे लाइन जाती थी, जिस पर इम्पीरियल दिल्ली रेलवेज नाम की रेलगाड़ी चला करती थी, जो बदरपुर से कनाट प्लेस तक पत्थर-रोड़ी-बालू भरकर लाया करती थी। यह रेल बहुत ही धीमी गति से हमारे घरों के सामने से गुजरती थी। हम बच्चे हर दिन इसमें मुफ्त सैर किया करते। गार्ड हमें भगाता रहता, पर हम कहां मानने वाले। यही हमारा मनोरंजन का साधन था।

जहां आज संसद भवन की एनेक्सी है, वहां इन दिनों बड़ी-बड़ी आरा मशीनें चलती थीं जिसमें पत्थरों की कटाई होती। सुबह सुबह ही पत्थर काटने की ठक-ठक की आवाजों से हमारी नींद खुल जाती। लगभग साठ हजार मजदूर नई दिल्ली की इमारतों को बनाने में लगे थे। ज्यादातर तो राजस्थानी थे, उन्हें दिहाड़ी के हिसाब से मेहनताना मिला करता था, मर्दों को आठ आठ आना और औरतों को छह आना दिहाड़ी मिला करती थी।

वे बताते है कि राजधानी में पहले सचिवालय बने। साथ ही साथ सड़के बिछानी शुरू की गई। सरकार चाहती थी कि लोग आगे आएं और जमीनें खरीदकर वहां इमारतें बनाएं, पर लोग अनिच्छुक थे। लोग काम करने नई दिल्ली के दफ्तरों में आते और पुरानी दिल्ली के अपने घरों को लौट जाते। यहां तो जंगल ही था सब-रायसीना, पहाड़गंज, मालचा-सब कहीं। गुर्जर ही रहते थे बस यहां। सारी जगह कीकर के जंगल थे, कहीं कहीं तो जंगली जानवर भी।

उनकी जुबान में कहें तो आज भी मुझे बचपन और युवावस्था की वह दिल्ली याद आती है, जिसका अपना ही आकर्षण था। नई दिल्ली की चौड़ी सड़कों के किनारे लगे पेड़ों पर चिडि़यां चहचहाती थीं, कनाट प्लेस के गलियारों में सैर का अपना मजा था, ऐतिहासिक इमारतें कंकरीट के जंगलों में छिपी नहीं थी। मैं सन् 1920 के आसपास यहां आया और तब से यहीं हू। कुल मिलाकर बचपन, जवानी और बुढ़ापे के लगभग पचपन साठ साल मैंने इसी शहर में गुजारे हैं।


वे अपने परिवार और पैतृक व्यवसाय के नई दिल्ली के निर्माण से जुड़े रहने के बारे में बताते है कि मेरे दादा से अधिक मेरे पिता ही दरअसल वास्तविक रूप से निर्माण कार्य में लगे थे। उनके पिता व्यवसाय की ऊपरी देखरेख करते थे। उन्होंने नई दिल्ली की अनेक इमारतें बनाईं, जिनमें प्रमुख थीं-सचिवालयों का साउथ ब्लाॅक, इंडिया गेट (जिसे तब आल इंडिया वाॅर मेमोरियल आर्च कहा जाता था), आॅल इंडिया रेडियो बिल्डिंग (आकाशवाणी भवन), नेशनल म्यूजियम, बड़ौदा हाउस एवं अनगिनत सरकारी बंगले।

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