बाबा रामदेव के दलित समाज की बहन-बेटी के सम्बन्ध में दिया गये नाकाबिले बर्दाशत बयान और राहुल गांधी के आचरण की तुलना के सवाल को लेकर घद्घदा रहा मीडिया भी भला अलग कहां है ?
मीडिया में दलितों के उपस्थिति अंगुलियों पर गिनी जा सकती है, अगर कोई गलती से एकलव्य बनकर हाशिए की लक्ष्मण रेखा को पार करने का चमत्कार कर भी देता है तो सब हाका लगा कर उसकी सामूहिक शिकार में लग जाते हैं, अगर आज सीधे नहीं मार सकते तो चारित्रिक हनन मेँ लग जाते है।
दलितों की स्टोरी दिखा-दिखा अपने चैनल की टीआरपी बढ़ाने वाले, प्रगतिशीलता मेँ आगे दिखने के नाम पर अपने नाम पीछे से पांडेय, मिश्र और सिंह हटाने वाले चैनल के कर्ता-दर्ताओ से पूछा जाना चाहिए कि दलितों के नाम पर अपनी ब्रांडिंग करने वाले स्टार पत्रकार, जिनमें ज्यादातर को आम आदमी का पत्रकार कहलाने का शौक है, भला मोदी से अलग कहाँ हैं, जिन्होंने कथित रूप से अपनी ब्रांडिंग के चक्कर में बीजेपी के ब्रांड से ज्यादा तरजीह दी है। एक तरह से दोनों का डीएनए अगर एक ही है तो फिर मोदी की आलोचना के क्या मायने।
ऐसे में तो वह दिन दूर नहीं जब दलित साहित्य की तरह दलित पत्रकारिता का भी अलग मुक़ाम होगा और क्यों न हो, नई दिल्ली के जंतर-मंतर पर हरियाणा की दलित बेटियों पर हुए अत्याचार की घटना राजधानी के मुख्यधारा के मीडिया में स्थान क्यों नहीं पा सकी?
है कोई जवाब मीडिया के स्टार रिपोर्टरों के पास या इसके लिए भी वे ठीकरा मोदी के सिर फोड़ने का ही प्रपंच करेगें ?
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