साथ ही उन्होंने (सुजान सिंह) अपनी खुद की भी कई इमारतें बनाई, जैसे-वेंगर्स से लेकर अमेरिकन एक्सप्रेस तक का कनाॅट प्लेस का एक पूरा का पूरा ब्लाॅक। उन दिनों यह सुजान सिंह ब्लाॅक कहलाता था। रीगल बिल्डिंग, नरेंद्र प्लेस, जंतर मंतर के पास और सिंधिया हाउस भी उन्होंने ही बनाए। ये सब उनकी निजी संपत्तियां थीं। अजमेरी गेट के पास भी कई इमारतें उनकी थीं।
सुजान सिंह ने दूसरे ठेकेदारों के साथ मिलकर विजय चौक और संसद भवन का भी कुछ हिस्सा बनाया। नार्थ ब्लाॅक को सरदार बसाखा सिंह और साउथ ब्लाॅक को सुजान सिंह ने बनाया। उनकी पत्नी के पिता सर तेजा सिंह सेंट्रल पी‐डब्ल्यू‐डी में चीफ इंजीनियर थे। वे पहले भारतीय थे, जिन्हें चीफ इंजीनियर का दर्जा प्राप्त था, वरना तो सिर्फ अंग्रेजों को ही यह पद दिया जाता था। सचिवालयों के शिलापट्टों पर खुशवंत सिंह के पिता और ससुर दोनों के नाम खुदे हुए हैं। इंडिया गेट से राष्ट्रपति भवन की ओर जाने पर नार्थ और साउथ ब्लाॅकों के मेहराबदार ताखों में शिलापट्टों पर एक तरफ नई दिल्ली को बनाने वाले ठेकेदारों के नाम हैं और दूसरी तरफ आर्किटेक्टों और इंजीनियरों का नाम हैं।
खुशवंत सिंह के मुताबिक, कनाॅट प्लेस तो 1919 में ही बनना शुरू हो गया था। कनाॅट प्लेस 1919-1920 में बनना शुरू हुआ और सबसे पहले वेंगर्स की दुकान ही बनी थी। उपर वेंगर्स रेस्तरां और डांस फ्लोर था। वेंगर्स के नीचे वाली दुकान एक पारसी किराएदार के पास थी जो साहब लोगों को चाॅकलेट और शराब बेचा करता था। कनाॅट प्लेस और कनाॅट सर्कस का मास्टर प्लान सर हर्बर्ट बेकर के साथ मिलकर सर एडविन लेंडसियर लटयंस ने बनाया। नई दिल्ली की रूपरेखा का ज्यादा हिस्सा तो लटयंस ने ही बनाया। वायसराय लाॅर्ड हार्डिंग और राजा जाॅर्ज पंचम ने इसे मंजूरी दी। उनकी माने तो राजधानी में सरकारी भवन बनते जा रहे थे, पर कोई भी यहां, कनाट प्लेस, जमीन नहीं खरीद रहा था क्योंकि था तो इलाका बियाबान ही। तिस पर उनके पिता ने ही पहल करते हुए दो रूपए प्रति वर्ग गज से हिसाब से कनाॅट सर्कस में फ्री-होल्ड जमीन खरीदी।
15 अगस्त 1947 और दिल्ली का वर्णन करते हुए वे कहते है कि पंडित जवाहर लाल नेहरू ने जब अपना मशहूर भाषण दिया था, तो मैं संसद के बाहर ही मौजूद था, भारी भीड़ जमा थी। हर तरफ महात्मा गांधी की जय, भारत माता की जय के नारे गूंज रहे थे। उस दिन मैं आधी रात के बाद घर वापस आया था और फिर अगले दिन सुबह लाल किले पर यूनियन जैक को उतारे जाने का नजारा देखने और पंडितजी का भाषण सुनने के लिए चल दिया। देखा कि माउंटबेटन को घोड़ों वाले रथ में बैठाकर लाल किला लाया जा रहा था। दो तीन दिन तक काफी उत्साह का माहौल था, लेकिन मेरे मन में कहीं दुख भी था। मैंने अपना घर गंवा दिया था।
आजादी के बाद राजधानी के स्वरूप में आए परिवर्तन को रेखांकित करते हुए खुशवंत सिंह बताते है कि जिस नई दिल्ली में मेरा बचपन बीता, मैं जवान हुआ, वह तो बहुत खुली-खुली सी थी। लोग तब बहुत थोड़े थे यहां। पुरानी ऐतिहासिक इमारतें दूर से दिखा करती थीं। बाग बगीचे हरे भरे थे।
मेरे ख्याल से बड़ा परिवर्तन 1947 के बाद आया, जब शरणार्थियों के आने से शहर की आबादी साल भर में ही तीन चार गुना बढ़ गई। शहर की शक्ल ही बदल गई। मेरे बचपन और युवावस्था के समय तो दिल्ली एक शांत शहर था। शोर शराबा और चहल पहल तो वाल्ड सिटी में शाहजहांनाबाद में ही सीमित थी। उन दिनों तो पांच मिनटों में ही हम अपनी साइकिलों पर मथुरा रोड से होते हुए गांव देहातों तक पहुंच जाते थे। सफदरजंग और कुतुबमीनार के बीच कोई इमारत नहीं थी। ऐतिहासिक स्मारकों के खूबसूरत खंडहर दूर से ही दिखते थे। दिल्ली का असली रूप तो आजादी के बाद बदला, जब बंटवारे के कारण यहां पंजाबियों का आना शुरू हुआ। आबादी बेतहाशा बढ़ती गई। पहले जो मकबरे दूर दूर से दिखाई देते थे, वे फ्लैटों और बाजारों की भीड़ में खो गए।
अंत में उन्हीं के शब्दो में, यह जरूर है कि अब मैं इसे नहीं पहचान पाता, ठीक वैसे ही जैसे अपनी युवावस्था को याद कर मैं अपने बुढ़ापे को नहीं पहचान पाता।
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