Sunday, April 27, 2014

Semitic Religion vs Hinduism (हिन्दू बनाम हिन्दू)







हिन्दू जीवन पध्दति से कमतर संप्रदाय क्यों न बने? उदारता, कृपणता में क्यों न बदले? आखिर हिंदुस्तान में अहिंदुओ का मिजाज भी तो सांप्रदायिक है! ईसाइयत और इस्लाम है तो सम्प्रदाय ही, सो उनका मिज़ाज़ भी स्वाभाविक सांप्रदायिक ही है।
असली चुनौती इसी बात की है कि बहुसंख्यक हिंदुओ की मुसलमानों और ईसाइयों की तरह सांप्रदायिक दृष्टि न विकसित हो, नहीं तो उसकी मार से कोई नहीं बचेगा। न हिन्दू, न मुसलमान। फिर हिन्दू मुसलमान हो जाएगा और मुसलमान को छोड़ेगा नहीं जैसे यूरोप मेँ स्पेन में हुआ, जहां ईसाइयों ने ईसाइयत और मौत के सिवाय कोई दूसरा रास्ता नहीं छोड़ा।
फिर अब तक ईसाई बहुल मिजोरम सहित दूसरे उत्तरपूर्व राज्योँ में चर्च से जारी होने वाला सरमन, दिल्ली क़ी ज़ामा मस्जिद से जाऱी होने वाला फतवा हिंदुओं मेँ भी शंकराचार्य को कुछ ऐसा ही करने की वैधता दे देगा फिर जिसके ख़िलाफ़ आवाज़ बुलन्द करने वाला नहीं होगा।
मुसलमान सांप्रदायिक आधार पर वोट दे तो सेक्युलर-टैक्टिकल वोटिंग, हिन्दू 'जाति' के आधार पर वोट दे तो जातिवादी, 'हिन्दू' के नाते दे तो सांप्रदायिक। मुल्ला-मौलवी का फतवा, चर्च का सरमन प्रगतिशील, टीका-आरती पुरातनपंथी। 
अब कोई माने या न माने सच्चाई बदल नहीं जाती जैसे भारत में दोनों संप्रदाय, ईसाइयत और इस्लाम, "जातिग्रस्त" हैं पर वैश्विक स्तर पर अपने को जोड़े रखने के लिये दोनों संप्रदायों के नेता इसको मानते नहीं है जबकि दूसरी तरफ़, उसी आधार पर अब चुनावों में मुसलमानों के आरक्षण की मांग हो रही है।
मुसलमानों के लिए एक अलग कानूनी दर्जे की अवधारणा अंग्रेजों की देन है ऐसा उन्होंने 1937 में मुस्लिम पर्सनल लॉ बनाकर किया। इसलिए यह अंग्रेजों की विरासत है, कोई इस्लामी सिद्धांत नहीं। दरअसल, कानूनी रूप से एक समुदाय को अलग दर्जा देकर अंग्रेज शासकों ने अपना राजनीतिक हित साधा था
यहाँ तक कि अब तो पिछड़ों के आरक्षण में भी मुसलमानोँ के लिये छेद करने की बात मुलायम ढंग से पेश की जा रही है जबकि घोषित रूप से हिन्दुओँ के अलावा इस्लाम-ईसाइयत तो जाति को मानते ही नहीं। अब लाख टके का सवाल  यह है कि मुसलमानों को यादवों के स्थान पर पिछड़ों में शामिल किया जाएगा या उनके अलावा? नहीं तो कल को इन दोनों मेँ ही परस्पर हितों का टकराव होगा
देश में ईसाइयत की अस्सी फीसदी से ज्यादा आबादी दलित ईसाइयों की है पर चर्च की भीतरी तंत्र में उनका दखल न के बराबर है, जैसा अकाल तख्त साहब की राजनीति में जाट सिखों की आगे महजबी सिख कहीँ नहीं टिकते। इसी तरह इस्लाम में दलित और मझौली जातियों से मतांतरित हुए हिन्दुओं की मतांतरण के पश्चात कैसी स्थिति है, उसका अध्ययन होना चाहिए।
ऐसे में यह लड़ाई हिन्दू बनाम हिन्दू की ही है।

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