Muhammad Husain Azad described “the tree of Urdu (that) grew in the soil of Sanskrit and (Braj) Bhasha, (and) flourished in the breezes of Persian”. Azad was born in Delhi in a highly educated Persian immigrant family. His mother died when he was four years old. His father‚ Muhammad Baqir was educated at the newly founded Delhi College. Azad was the only son of Muhammad Baqir. Following his father's death and a period of turmoil in Delhi‚ Azad migrated to Lahore in 1861.
Wednesday, July 31, 2013
1911-Delhi:Administrative history
1911 में किंग जॉर्ज पंचम द्वारा ब्रिटिश भारत की राजधानी कलकत्ता (वर्तमान में कोलकाता) से दिल्ली लाने की घोषणा के साथ ही दिल्ली को एक नयी पहचान मिली | उस समय देश की राजधानी से पहले दिल्ली, पंजाब प्रांत की तहसील थी| दिल्ली को राजधानी बनाने के लिए दिल्ली और बल्लभगढ़ जिले के 128 गांवों की जमीन अधिग्रहित की गई थी | इसके अलावा, मेरठ जिले के 65 गांवों को भी शामिल किया गया था| मेरठ जिले के इन गांवों को मिलाकर यमुनापार क्षेत्र बनाया गया |
Tuesday, July 30, 2013
Rakabganj Gurdwara
Located right behind the North Block and Parliament, the historic Rakab Ganj Gurdwara denotes the seat of power for Sikhs in Delhi. It is here that the beheaded body of the ninth Sikh Guru Teg Bahadur was cremated in 1675.
The original shrine is almost 230 years old and part of the notified heritage structures in Delhi. Now, the Gurdwara has a marble facade and is the place from where Sikh matters of Delhi are decided even as Sis Ganj and Bangla Sahib top the list of revered shrines. The Sarai is often used by the devout to stay for a few days.
The shrine's history is related to Guru Teg Bahadur. A disciple of the Guru, Lakhi Shah Vanjara hid his body in haystacks and cotton bales and 'sped off' on a bullock cart from Chandni Chowk. Since then, Rakab Ganj has evoked deep feelings among the Sikhs. It was at this spot that Lakhi Shah Vanjara and his eight sons placed the body of the Guru on a pile of sandalwood and set fire to their entire house to avoid suspicion of the Mughals, who had beheaded him.
In 1783, the Sikh Army defeated the Mughals. The Sikhs wanted a Gurdwara in memory of the Guru in village Raisina (now part of the President's Estate).
The Sikh Review edition of 1980 said, "A copper urn containing the mortal remains of the ninth Sikh Guru was found at the site. The Wazir gave orders for demolition of the mosque and construction of Gurdwara." The name Rakab is derived from the Persian word 'Rukab' meaning stirrups (foot rests) attached to the saddle of horse riders. Dr H.S. Singha, in his book 'Sikh Studies', explains, "They (Lakhi Shah) used to live in a colony of stirrup makers, hence the name Rakab Ganj."
loksabha:100 years of delhi
It was on 12th December, 1911 that Delhi was proclaimed as the new Capital of India (the return of Capital of the country to Delhi from Calcutta) at the Delhi Durbar. Today, Delhi has emerged to become the largest metropolis by area and the second largest by population in the country. Delhi is not only one of the greenest capitals in the world but also boasts of world class infrastructure and many heritage buildings.
Source: http://164.100.47.132/newdebate/15/9/12122011/12To1pm.pdf
MCD's Delhi Town Hall
The British-built Town Hall is three short of 150 years is a landmark in Old Delhi and since then the city fathers continue to ponder whether to turn it into a museum or convert it into a heritage hotel.
The Town Hall, spread over 16 acres in the Victorian-Edwardian style was completed in 1866. Chandni Chowk continues to attract tourists from India and abroad, the idea of making the Town Hall a tourist destination is understandable, especially for those who enjoy studying colonial architecture and appreciate history behind such old buildings.
The place where the Town Hall stands today once formed part of the gardens laid by Shah Jahan's daughter, Jahanara, in which was also situated an amazing 'sarai' (inn). While the hall itself was used as municipal offices, it housed a public library and a European club as well.
Source of Photo:
Back of card says "Clock Tower and Town Hall Chandni Chowk the Biggest trade Centre Built at a Cost of Rs 2800/-, after the Meeting." Lal Chand & Sons, Delhi. Made in Saxony
Photograph contributed by Mr. Ben Collier (benccollier@hotmail.com) from the Estate of Frances Anna Goheen. She was born in Mahabaleschwar, India on 30 March 1891 to a missionary family.
rashtrapati bhavan architecture
राष्ट्रपति भवन की एक अन्य विशेषता इसके खंभों में भारतीय मंदिरों की घंटियों का प्रयोग है। यह सर्वविदित है कि मंदिरों की घंटियां हमारी सामासिक संस्कृति, खासकर हिंदू, बौद्ध तथा जैन परंपराओं का अभिन्न अंग है। इन घंटियों का हेलेनिक शैली के वास्तुशिल्प के साथ मिश्रण, वास्तव में भारतीय और यूरोपीय डिजाइनों के सम्मिश्रण का एक बेहतरीन उदाहरण है। खास बात यह है कि इस तरह की घंटियां नार्थ ब्लॉक, साउथ ब्लाक तथा संसद भवन में मौजूद नहीं हैं। यह उल्लेख करना रोचक होगा कि राष्ट्रपति भवन के खंभों में इस तरह की घंटियों के प्रयोग का विचार कर्नाटक के मुदाबिदरी नामक स्थान पर स्थित एक जैन मंदिर से प्राप्त हुआ।
स्मृति और देश: अज्ञेय
लोग कभी-कभी पूछते हैं कि इक्कीसवीं सदी में-कम्प्यूटरों की सदी में-कविता की जरूरत क्या होगी? हमारी स्मृति का परिदृश्य ही हमारे उत्तर में विश्वास का बल भरता है-कि अगर हमें तब अपनी ही कोई जरूरत होगी तो कवन की-काव्य के रचना-कर्म की-भी जरूरत होगी। जब-और अगर-हमने अपने को ही गैर-ज़रूरी बना दिया होगा तब की बात दूसरी है। और वह बात दूसरों के करने की है, न कवि के, न सहृदय के।
Sunday, July 28, 2013
Shivaji: Hindu Idol
अगर हम अपने आदर्श के रूप में छत्रपति शिवाजी महाराज रखें तो हम हिंदू राज्य की रक्षा के लिए उनकी वीरता का स्मरण करेंगे । ऐसे में उनका सामर्थ्य, शिवाजी की शक्ति, भगवा ध्वज के समरूप है । हमें भगवा ध्वज की ओर देखने से जिस इतिहास का स्मरण होता है, जो प्रेरणा प्राप्त होती है वहीं हमें शिवाजी महाराज के जीवन से मिलती है । शिवाजी ने भगवा ध्वज, जो सही में धूल-धूसरित था, को उठाया । हिंदू पदपादशाही को दोबारा पुर्नस्थापित किया तथा मरणशील हिंदुत्व को पुर्नजीवित किया । अगर आप किसी एक व्यक्ति को आदर्श बनाने चाहते हो तो फिर शिवाजी को इस रूप में रखें ।
Ageya-Poems
नत हूँ मैं सबके समक्ष, बार-बार मैं विनीत स्वर
ऋण : स्वीकारी हूँ-विनत हूँ।
मैं मरूँगा सुखी
मैंने जीवन की धज्जियाँ उड़ाई हैं।
(जन्म-दिवस: अज्ञेय)
संवेदना ने ही विलग कर दी
हमारी अनुभूति हमसे।
यह जो लीक हमको मिली थी-
अंधी गली थी।
(इशारे ज़िंदगी के: अज्ञेय)
राम का क्या काम यहाँ? अजी राम का नाम लो।
चाम, जाम, दाम, ताम-झाम, काम- कितनी
धर्म-निरपेक्ष तुकें अभी बाकी हैं।
जो सधे, साध लो, साधो-
नहीं तो बने रहो मिट्टी के माधो।
(जियो, मेरे: अज्ञेय)
उर्दू साहित्य की भारतीय आत्मा-राही मासूम रज़ा
यह ग्यारवीं या बारहवीं सदी की बात है कि अमीर खुसरू ने लाहौरी से मिलती-जुलती एक भाषा को दिल्ली में पहचाना और उसे हिंदवी का नाम दिया। उन्नीसवीं सदी के आरंभ तक यही हिंदवी देहलवी, हिंदी, उर्दू-ए-मु्अल्ला और उर्दू कहीं गई । अब लिपि का झगड़ा खड़ा नहीं हुआ था, क्योंकि यह तो वह ज़माना था कि जायसी अपनी अवधी फ़ारसी लिपि में लिखते थे और तुलसी अपनी अवधी नागरी लिपि में ।
लिपि का झगड़ा तो अँग्रेज़ी की देन है । मैं चूँकि लिपि को भाषा का अंग नहीं मानता हूँ, इसलिए की ऐसी बातें, जो आले अहमद सुरूर और उन्हीं की तरह के दूसरे पेशेवर उर्दूवालों को बुरी लगती हैं, मुझे बिल्कुल बुरी नहीं लगतीं।
भाषा का नाम तो हिंदी ही है, जाहे वह किसी लिपि में लिखी जाए। इसलिए मेरा जी चाहता है कि कोई सिरफिरा उठे और सारे हिन्दी साहित्य को पढ़कर कोई राय कायम करे। अगर मुसहफी उर्दू के तमाम कवियों को हिंदी का कवि कहते हैं (उनकी किताब का नाम तजकरए-हिंदी का कवि कहते हुए शरमाएँ मैं उर्दू लिपि का प्रयोग करता हूँ, परंतु मैं हिन्दी कवि हूँ। और यदि मैं हिंदी का कवि हूँ तो मेरे काव्य की आत्मा सूर, तुलसी, जायसी के काव्य की आत्मा से अलग कैसे हो सकती है यह वह जगह है, जहाँ न मेरे साथ उर्दू वाले हैं और न शायद हिंदीवाले। और इसीलिए मैं अपने बहुत अकेला-अकेला पाता हूँ ? परंतु क्या मैं केवल इस डर से अपने दिल की बात न कहूँ कि मैं अकेला हूँ । ऐसे ही मौक़ों पर मज़रूह सुलतानपुरी का एक शेर याद आता है: मैं अकेला ही चला था जानिवे-मंज़िल मगर। लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया ।
और इसीलिए मैं हिम्मत नहीं हारता ! और इसीलिए बीच बज़ार में खड़ा आवाज़ दे रहा हूँ कि मेरे पुरखों ग़ालिब और मीर के साथ सूर, तुलसी और कबीर के नाम भी आते हैं। लिपि के झगड़े में मैं अपनी विरासत और अपनी आत्मा को कैसे भूल जाऊँ न मैं एक लिपि की तलवार से अपने पुरखों का गला काटने को तैयार हूँ और न मैं किसी को य हक देता हूँ कि वह दूसरी लिपि की तलवार से मीर, ग़ालिब और अनीस के गर्दन काटे । आप खुद ही देख सकते हैं कि दोनों तलवारों के नीचे गले हैं मेरे ही बुजुर्गों के।
हमारे देश का आलम तो यह है कि कनिष्ट की शेरवानी को मुसलमानों के सर मार के हम हिंदू और मुसलमान पहनावों की बातें करने लगते हैं घाघरे में कलियाँ लग जाती हैं तो हम घाघरों को पहचानने से इंकार कर देते हैं और मुगलों-वुगलों की बातें करने लगते हैं, परंतु कलमी आम खाते वक़्त हम कुछ नहीं सोचते ऐसे वातावरण में दिल की बात कहने से जी अवश्य डरता है, परंतु किसी-न-किसी को तो ये बातें कहनी ही पड़ेगी।
बात यह है कि हम लोग हर चीज़ को मज़हब की ऐनक लगाकर देखते हैं। किसी प्रयोगशाला का उद्घाटन करना होता है, तब भी हम या मिलाद करते हैं या नारियल फोड़ते हैं तो भाषा इस ठप्पे से कैसे बचती और साहित्य पर यह रंग चढ़ाने की कोशिश क्यों न की जाती चुनांचे उन्नीसवीं सदी के आखिर में या बीसवीं सदी के आरंभ में हिंदी, हिंदू हिंदुस्तान का नारा लगाया गया। इस नारे में जिन तीन शब्दों का प्रयोग हुआ है, वे तीनों ही फ़ारसी के हैं हिंदी कहते हैं, हिंदुस्तानी को, हिंदू काले को। और हिंदुस्तान हिंदुओ के देश को।
यानी हिंदू शब्द किसी धर्म से ताल्लुक नहीं रखता। ईरान और अरब के लोग हिंदुस्तानी मुसलमानों को भी हिंदू कहते हैं यानी हिंदू नाम है हिंदुस्तानी क्रीम का। मैंने अपने थीसिस में यही बात लिखी थी तो उर्दू के एक मशहूँर विद्वान् ने यह बात काट दी थई। परंतु मैं भी यह बात फिर कहना चाहता हूँ कि हिंदुस्तान के तमाम लोग धार्मिक मतभेद के बावजूद हिंदू है। हमारे देश का नाम हिंदुस्तान है। हमारे क़ौम का नाम हिंदू और इसलिए हमारी भाषा का नाम हिन्दी । हिंदुस्तान की सीमा हिन्दी की सीमा है।
यानी मैं भी हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान का नारा लगाता हूँ, परंतु मैं यह नारा उस तरह नहीं लगाता, जिस तरह वह लगाया जा रहा है। मैं एक मुसलमान हिंदू हूँ । कोई विक्टर ईसाई हिंदू होगा और मातादीन वैष्णव या आर्यसमाजी हिंदू ! इस देश में कई धर्म समा सकते हैं, परंतु एक देश में कई क़ौमें नहीं समा करतीं ! परंतु यह सीधी-सी बात भी अब तक बहुत से हिंदुओं (हिंदुस्तानियों) की समझ में नहीं आ सकी है।
हमें धर्म की यह ऐनक उतारनी पड़ेगी। इस ऐनक का नंबर गलत हो गया है् और अपना देश हमें धुँधला-धुँधला दिखाई दे रहा है।हम हर चीज़ को शक की निगाह से देखन लगे हैं। ग़ालिब गुलोहुलुल का प्रयोग करता है और कोयल की कूक नहीं सूनता, इसलिए वह ईरान या पाकिस्तान का जासूस है ? हम आत्मा को नहीं देखते । वस्त्र में उलझकर रह जाते हैं। वे तमाम शब्द जो हमारी जबानों पर चढ़े हुए हैं, हमारे हैं। हमारे हैं।
एक मिसाल लीजिए। ‘डाक’ अँग्रेज़ी का शब्द है। ‘खाना’ फारसी का। परंतु हम ‘डाकखाना’ बोलते हैं। यह ‘डाकखाना’ हिंदी का शब्द है। इस ‘डाकघर’ या कुछ और कहने की क्या ज़रूरत ? अरब की लैला काली थी। परंतु उर्दू गज़ल की लैला का रंग अच्छा-खासा साफ़ है। तो इस गोरी लैला को हम अरबी क्यों मानें ? लैला और मजनूँ या शीरीं और फरहाद का कोई महत्त्व नहीं है। महत्त्व है उस कहानी का, जो इन प्रतीकों के जरिए हमें सुनाई जा रही है। परंतु हम तो शब्दों में उलझ कर रह गए हैं। हमने कहानियों पर विचार करने का कष्ट ही नहीं उठाया है। मैं आपकों वही कहानियाँ सुनाना चाहता हूँ ।
मैं आपको और मौलाना नदवी आले अहमद सुरूर और डॉक्टर फ़रीदी को यह दिखालाना चाहता हूँ कि मीर, सौदा, ग़ालिब और अनीस, सुर, तुलसी और कबीर ही के सिलसिले की कड़ियाँ हैं। फ़ारसी के उन शब्दों को कैसे देश निकाल दे दिया जाय, जिनका प्रयोग मीरा, तुलसी और सूर ने किया है ? ये शब्द हमारे साहित्य में छपे हुए हैं। एक ईंट सरकाई गई, तो साहित्य की पूरी इमारत गिर पड़ेगी।
मैं शब्दों की बात नहीं कर रहा हूँ। साहित्य की बात कर रहा हूँ। यह देखने का कष्ट उठाइए कि कबीर ने जब मीर बनकर जन्म लिया तो वे क्या बोल और जब तुलसी ने अनीस के रूप मे जन्म लिया तो उस रूप में उन्होंने कैसा रामचरित लिखा।
VS Naipaul:Hindu temples
"मुझे लगता है यदि आप 10 वीं शताब्दी या उससे पूर्व के इतने सारे हिंदू मंदिरों को विकृत, विरूपित देखते हैं तो आपको इस बात का आभास होता है कि कुछ भयानक हुआ था। मुझे लगता है कि उस अलग-थलग संसार की सभ्यता उन आक्रमणों से प्राणघातक रूप से घायल हुई और पुराना संसार नष्ट हो गया। यह समझने वाली बात है। प्राचीन हिंदू भारत को नष्ट कर दिया गया।"
- वी. एस. नायपॉल, नोबेल पुरस्कार प्राप्त साहित्यकार
“I think when you see so many Hindu temples of the 10th century or earlier disfigured, defaced, you realise that something terrible happened. I feel the civilisation of that closed world was mortally wounded by those invasions… the old world is destroyed. That has to be understood. Ancient Hindu India was destroyed.”
- VS Naipaul
Source: http://archive.tehelka.com/story_main1.asp?filename=hub041704Sufism.asp
Photo: (Ruins of Krishna Temple, Vijayanagara - victim of Islamic vandalism)
Source: http://www.defence.pk/forums/members-club/202151-hinduism-talibanism-did-hindus-destroyed-buddhist-jain-temples-10.html#ixzz2aK7CRwZ1
Photo: (Ruins of Krishna Temple, Vijayanagara - victim of Islamic vandalism)
Source: http://www.defence.pk/forums/members-club/202151-hinduism-talibanism-did-hindus-destroyed-buddhist-jain-temples-10.html#ixzz2aK7CRwZ1
Delhi Durbar: First Film of India
सन 1911 में जॉर्ज पंचम के तीसरे दिल्ली दरबार का पहली बार फिल्मांकन किया गया था और उसे हीरालाल, बॉर्न एंड शेफर्ड, गौमोंत, इम्पीरियल बॉयोस्कोप, एस. एन. पाटनकर और जे. एफ़. मदान ने फिल्माया था .
सन 1911 में अन्दायी बोस और देबी घोष ने तम्बुओ में ओरोरा फिल्म कंपनी की शुरुआत की.
1911 The Durbar of George V in Delhi is India first extensively filmed even and is shot by Hiralal Sen, Bourne & Shepherd, Gaumont, Imperial Bioscope, S.N. Patankar and J.F. Madan
1911 Andai Bose and Debi Ghose start the Aurora Film Company, with screenings in tents.
Angkor Wat Hindu Temple
Maybe Akshardham is the largest Hindu temple that is active (puja is performed) today or maybe they are just referring to the size of the temple complex (100 acres adjacent to the Yamuna bed), but the height of the main Akshardham monument inside the Delhi complex is 141 feet (the tallest tower inside Meenakshi Temple in Madurai is 160 feet), whereas the height of the main Angkor Wat structure from the ground to the top of the central tower is 699 feet and the entire temple complex is spread over about 500 acres.
Wednesday, July 24, 2013
Nitish Kumar:Bihar Midday meal tragedy
मैं तो डॉक्टर हूं नहीं.
-नीतीश कुमार, मुख्यमंत्री, बिहार
(छपरा के मिड डे मील मर्डर के नौ दिन बाद एक प्रेस कांफ्रेंस में सरकार के देरी से एक्शन सवाल पर)
Movies-Delhi
Rang De Basanti (2006)
Khosla ka Ghosla (2006)
Oye Lucky Lucky Oye (2008)
Love Aaj Kal (2009)
Delhi 6 (2009)
Band Baaja Baraat (2010)
Do Dooni Char (2010)
No One Killed Jessica (2011)
Delhi Belly (2011)
Ibn Batuta-Delhi
Ibn Batuta, a venal and ignorant Arab traveller, gives us an account of his sojourn in India in the 14th century. The land is ruled by foreigners with Arab names and offices. They are the conquerors and occupiers and remind the native population, reduced to silence or invisibility, of it every day. Batuta is given Hindu slave girls to do with as he will. In Delhi he sees the daily slaughter of decapitated and mutilated bodies strewn at the door of the palace of the ‘Sultan’ to deter others from transgressing his will. They were dark ages indeed.
-Farrukh Dhondy
Source: http://archive.tehelka.com/story_main1.asp?filename=hub041704Sufism.asp
History of Name of Delhi
'दिल्ली' या 'दिल्लिका' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम बिजोलिया में प्राप्त शिलालेखों पर पाया गया, जिसका समय 1170 इसवी निर्धारित किया गया। शायद 1316 इसवी तक यह हरियाणा की राजधानी बन चुकी थी।
736 ई. में तोमर राजपूतों द्वारा दिल्ली या ढिल्लिका के नाम से एक नए नगर को बसाया गया। भारत के इतिहास में दिल्ली का उल्लेख महाभारत काल से ही मिलता है। महाभारत काल में दिल्ली का नाम इन्द्रप्रस्थ था। दूसरी शताब्दी के 'टालेमी' के विवरण में ट्राकरूट पर मौर्य शासकों द्वारा बसाई गई नगरी 'दिल्ली' नाम से उल्लिखित है। बाद में मौर्य, गुप्त, पाल आदि अनेक राजवंशों का दिल्ली पर शासन रहा। दिल्ली शहर की स्थापना के सन्दर्भ में कई कथाएँ प्रचलित हैं।
पाँच प्रस्थों में एक इन्द्रप्रस्थ के अस्तित्व का प्रत्यक्ष साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। अन्य चार प्रस्थ-पानीपत, सोनीपत, बागपत और तिलपत थे। इन्हीं पाँचों स्थानों पर प्रसिद्ध महाभारत का युद्ध लड़ा गया था। इस प्रदेश को खण्डप्रस्थ और योगिनीपुर के नाम से भी जाना जाता था। बाद के काल में यह क्षेत्र मौर्य, गुप्त, पाल आदि शासकों के अधीन रहा। इन्द्रप्रस्थ के गौतवंशीय राजाओं के परवर्ती मयूर वंश के अन्तिम कन्नौज शासक राजा दिलू द्वारा इस प्रदेश को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया गया।
दिल्ली का नाम राजा ढिल्लू के "दिल्हीका"(800 ई.पू.) के नाम से माना गया है,जो मध्यकाल का पहला बसाया हुआ शहर था,जो दक्षिण-पश्चिम बॉर्डर के पास स्थित था, जो वर्तमान में महरौली के पास है। यह शहर मध्यकाल के सात शहरों में सबसे पहला था, इसे योगिनीपुरा के नाम से भी जाना जाता है,जो योगिनी(एक् प्राचीन देवी) के शासन काल में था। इस प्रदेश को खण्डप्रस्थ और योगिनीपुर के नाम से भी जाना जाता था।
कुछ पुस्तकों में यह भी उल्लिखित है कि प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व एक राजा 'ढिलू' के नाम पर इसका नाम दिल्ली पड़ा, जो बाद में देलही, देहली, दिल्ली आदि नामों से जाना गया। भारत के इतिहास में दिल्ली का उल्लेख महाभारत काल से ही मिलता है। महाभारत काल में दिल्ली का नाम इन्द्रप्रस्थ था। दूसरी शताब्दी के 'टालेमी' के विवरण में ट्राकरूट पर मौर्य शासकों द्वारा बसाई गई नगरी 'दिल्ली' नाम से उल्लिखित है। बाद में मौर्य, गुप्त, पाल आदि अनेक राजवंशों का दिल्ली पर शासन रहा।
दिल्ली शहर की स्थापना के सन्दर्भ में कई कथाएँ प्रचलित हैं। दिल्ली को भारतीय महाकाव्य महाभारत में प्राचीन इन्द्रप्रस्थ, की राजधानी के रूप में जाना जाता है। उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ तक दिल्ली में इंद्रप्रस्थ नामक गाँव हुआ करता था। पाँच प्रस्थों में एक इन्द्रप्रस्थ के अस्तित्व का प्रत्यक्ष साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। अन्य चार प्रस्थ-पानीपत, सोनीपत, बागपत और तिलपत थे। इन्हीं पाँचों स्थानों पर प्रसिद्ध महाभारत का युद्ध लड़ा गया था। जातकों के अनुसार इंद्रप्रस्थ सात कोस के घेरे में बसा हुआ था। पांडवों के वंशजों की राजधानी इंद्रप्रस्थ में कब तक रही यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता किंतु पुराणों के साक्ष्य के अनुसार परीक्षित तथा जनमेजय के उत्तराधिकारियों ने हस्तिनापुर में भी बहुत समय तक अपनी राजधानी रखी थी।
मौर्यकाल के पश्चात लगभग 13 सौ वर्ष तक दिल्ली और उसके आसपास का प्रदेश अपेक्षाकृत महत्त्वहीन बना रहा। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की देखरेख में कराये गये खुदाई में जो भित्तिचित्र मिले हैं उनसे इसकी आयु ईसा से एक हजार वर्ष पूर्व का लगाया जा रहा है, जिसे महाभारत के समय से जोड़ा जाता है, पुरातात्विक रूप से जो पहले प्रमाण मिलते हैं उन्हें मौर्य-काल (ईसा पूर्व 300) से जोड़ा जाता है।
1966 में प्राप्त अशोक का एक शिलालेख(273-300 ई पू) दिल्ली में श्रीनिवासपुरी में पाया गया। राजा हर्ष के साम्राज्य के छिन्न भिन्न होने के पश्चात उत्तरी भारत में अनेक छोटी मोटी राजपूत रियासतें बन गईं और इन्हीं में 12 वीं शती में पृथ्वीराज चौहान की भी एक रियासत थी जिसकी राजधानी दिल्ली बनी।
दिल्ली के जिस भाग में क़ुतुब मीनार है वह अथवा महरौली का निकटवर्ती प्रदेश ही पृथ्वीराज के समय की दिल्ली है। वर्तमान जोगमाया का मंदिर मूल रूप से इन्हीं चौहान नरेश का बनवाया हुआ कहा जाता है। एक प्राचीन जनश्रुति के अनुसार चौहानों ने दिल्ली को तोमरों से लिया था जैसा कि 1327 ई. के एक अभिलेख से सूचित होता है, यह भी कहा जाता है कि चौथी शती ई. में अनंगपाल तोमर ने दिल्ली की स्थापना की थी। इन्होंने इंद्रप्रस्थ के क़िले के खंडहरों पर ही अपना क़िला बनवाया।
सिरी की गणना आमतौर पर दिल्ली के दूसरे शहर के रूप में होती है, किंतु यह मुस्लिम विजेताओं द्वारा भारत में स्थापित पहला पूर्णत: नया शहर था। दिल्ली का आरम्भिक नाम इन्द्रप्रस्थ था। महाभारत में पाण्डवों की राजधानी के रूप में इसकी चर्चा है। यमुना तट पर अवस्थित यह नगर वर्तमान फ़िरोज़शाह कोटला स्टेडियम एवं हुमायूँ के मक़बरे के बीच अवस्थित था।
1206 इसवी के बाद दिल्ली सल्तनत की राजधानी बनी जिसमें खिलज़ी वंश, तुग़लक़ वंश, सैयद वंश और लोधी वंश समते कुछ अन्य वंशों ने शासन किया। ख़िलजी शासन (1290-1321) के दौरान दिल्ली पर मंगोल लुटेरों ने आक्रमण कर इसके असुरक्षित उपनगरों को ध्वस्त कर दिया। 1303 में अलाउद्दीन ने इसके चारों ओर 1.7 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में एक नया वृत्ताकार क़िलाबंद शहर बनवाया ताकि मंगोल पुन आक्रमण कर उपनगरों व बगीचों को ध्वस्त न कर सकें।
क़ुतुब-लालकोट संकुल के विपरीत जो शहर देहली-ए-कुहना (पुरानी दिल्ली) कहलाता था, प्रारंभ में लश्कर या लश्करगाह (सैनिक छावनी) के नाम से जाना गया। लालकोट के साथ जुड़ी इस चारदीवारी से घिरी नगरी को बाद में सिरी नाम दिया गया तथा इसे ख़िलजी राजधानी (दारुल ख़िलाफ़ा) के रूप में जाना गया। इसकी परिधि की दीवार लगभग 1.5 किलोमीटर लंबी थी और उसमे कई मीनार व दरवाज़े बने हुए थे।
फोटो स्त्रोत: http://www.oldindianphotos.in/search/label/Delhi
Tuesday, July 23, 2013
Ambedkar: hero-worship:Indian journalism
Indian journalism is all that plus something more. It is written by drum-boys to glorify their heroes. Never has the interest of country been sacrificed so senselessly for the propagation of hero-worship. Never has hero-worship become so blind as we see it in India today. There are, I am glad to say, honourable exceptions. But they are too few, and their voice is never heard.
-B R Ambedkar
Ranade, Gandhi and Jinnah: Address delivered on the 101st birthday celebration of Mahadev Govind Ranande held on the 18.01.1943 in the Gokhale Memorial Hall, Poona
भारतीय पत्रकारिता ज्यों दिखती है, उससे कुछ अधिक है। इसे ढोल पीटने वाले अपने नायकों को महिमामंडित करने के लिए कलम घिसते हैं । नायक पूजा के प्रचार के लिए कभी भी देशहित को इतनी बेवकूफी से दांव पर नहीं लगाया गया । कभी भी भारत में नायक पूजा इतनी अंधी नहीं बनी जितना आज हम भारत में देख रहे हैं । मुझे यह बात कहते हुए खुशी है कि इसके अपवाद भी हैं । पर ऐसों की संख्या बहुत कम है और उनकी आवाज कभी सुनी नहीं जाती ।
-भीमराव आंबेडकर
-भीमराव आंबेडकर
Tulsidas: Rahi Masoom Raza
परंतु तुलसीदास की आवाज़ भक्तिकाल के तमाम कवियों की आवाज़ से अलग है । इसलिए मैं तुलसीदास की बात भी अलग से ही करना चाहता हूं । तुलसीदास को इस नयी आत्मा की तलाश नहीं है, जिसे सारा भक्तिकाल तलाश रहा था, बल्कि उन्हें उसी पुरानी आत्मा की तलाश थी, जो मुसलमान हमलावरों से जूझ गई थी । और शायद यही वजह है कि सूरदास और जायसी से कमतर रसमय होते हुए भी, वे दोनों से ज़्यादा लोकप्रिय हुए !
तुलसीदास के लिए लड़ाई ख़त्म नहीं हुई थी । इसीलिए उन्होंने किसी आशिक़ को अपना कथानायक नहीं बनाया, बल्कि उन्होंने एक योद्धा को चुना । राम और रावण की लड़ाई सीता के परिचय से पहले ही उस तपोवन में शुरू हो गई थी, जहाँ अयोध्या के दो राजकुमार कंधे से कमाने लटकाए उसकी पवित्र शांति की हिफ़ाजत कर रहे थे । यानी यह बात हमें पहले ही बता दी जाती है कि इस कहानी का नायक एक वीर सिपाही है ।
यह बात भी महत्वपूर्ण है कि तुलसीदास का नायक भी सूरदास के नायक की तरह बच्चा है । यानी तुलसीदास भी सूरदास की ही तरह नयी पीढ़ी से आशा बाँध रहे हैं । परंतु इन दोनों की आशाओं में बड़ा फ़र्क़ है । सूर शांति का ख़्वाब देख रहे हैं और तुलसी लड़ाई का । यानी ‘रामचरित मानस’वास्तव में भक्तिकाव्य के सिलसिले की कड़ी नहीं है, बल्कि वीरगाथा काल का एक अँग है ।
महाकाव्य की परंपरा के अनुसार तुलसीदास ने राजा का कसीदा नहीं लिखा है । ऐसा क्यों है ? ऐसा इसलिए है कि तुलसीदास किसी मुसलमान को राजा मान ही नहीं सकते थे । मुझे दरअसल इसी कसीदे की कमी ने चौंकाया था । इस कसीदे का न होना एक बुनियादी इशारा है और इसी के सहारे हम तुलसीदास की प्रतीक-भाषा को समझने की कोशिश कर सकते हैं ।
मेरे ख़्याल में रावण मुसलमान बादशाह है । सीता हमारी आज़ादी, हमारी सभ्यता और हमारी आत्मा है, जिसे रावण हर ले गया है । परशुराम की कमान राम के हाथ में है । यानी ब्राह्मणों से धर्म की रक्षा नहीं हो सकती है । क्षत्रिय ? मगर सारे राजा-महाराजा तो मुगल दरबार में हैं । तुलसीदास ऊँची जाति के हिंदुओं से मायूस हैं, क्योंकि ऊँची जाति के हिंदू तो मुगल से मिले बैठे हैं।
मगर वे किसी अछूत की नायक नहीं बना सकते थे । इसीलिए उन्होंने एक देवता नायक बनाया। (यह बात बहुत महत्वपूर्ण है कि आर्यपुत्र राम ने भीलनी के जूठे बेर खाये ।) राम की सेना में लक्ष्मण के सिवा ऊँची जाति का एक आदमी भी नहीं है । इन दोनों भाइयों के सिवा राम की सेना में केवल बंदर हैं – नीची जाति के लोग । यानी ऊँची जाति के लोगों से मायूस होकर तुलसीदास ने अछूतों या नीची जाति के हिंदुओं को धर्म की रक्षा के लिए आवाज़ दी ।
लड़ाई हुई । रावण हार गया । सीता मिल गई परंतु नतीजा क्या हुआ ? तुलसी ने देखा कि यह सीता वह नहीं है । इसलिए तुलसी की बसाई हुई अयोध्या ने उस सीता को कुबूल नहीं किया – अग्निपरीक्षा के बाद बी कुबूल नहीं किया, परंतु उसी सीता के बच्चों ने यज्ञ के घोड़े की लगाम पर हाथ डाल दिया । बात फिर बच्चों ही तक आई।यों हम यह देखते हैं कि धार्मिक साहित्य भी एक सामाजिक आधार होता है ।
-राही मासूम रजा
सूचना स्रोत: http://rahimasoomraza.blogspot.in/2008/10/blog-post_2541.html
फोटो स्रोत: http://www.itbhuglobal.org/chronicle/archives/2009/07/play_on_tulsida.php
Lohia-English
मेरी समझ में वे लोग बेवकूफ हैं जो अंग्रेजी के चलते हुये समाजवाद कायम करना चाहते हैं| वे भी बेवकूफ हैं जो समझते हैं कि अंग्रेजी के रहते हुये जनतंत्र भी आ सकता है| हम तो समझते हैं कि अंग्रेजी के होते यहाँ ईमानदारी आना भी असंभव है| थोड़े से लोग इस अंग्रेजी के जादू द्वारा करोड़ों को धोखा देते रहेंगे|
- डॉ॰ राममनोहर लोहिया
The capital of culture-Amjad Ali Khan
सन् 1957 में जब मैं पहली बार अपने पिता और गुरु हाफिज अली खान के साथ दिल्ली रहने के लिए आया था तो आज की तुलना में जनसंख्या कमतर थी । उन दिनों पुरानी दिल्ली में ट्राम चला करती थी और प्रमुख पड़ावों में चांदनी चौक, घन्टा घर और जामा मस्जिद हुआ करते थे. मैं अपने पिता के साथ नमाज पढ़ने के लिए खासकर शुक्रवार के दिन जामा मस्जिद जाता था ।
मध्य प्रदेश से आने के कारण मैं लाल किला, पुराना किला, कुतुब मीनार, तीन मूर्ति भवन और निश्चित रूप से राष्ट्रपति भवन जैसे कई ऐतिहासिक स्मारकों से मंत्रमुग्ध था.
-अमजद अली खान
When I first came to Delhi to live with my father and guru, Haafiz Ali Khan, in 1957, the population was sparse, compared with today. In those days trams traversed Old Delhi, and among the noteworthy destinations were Chandni Chowk, Ghanta Ghar and Jama Masjid. I used to visit Jama Masjid with my father, especially on Fridays, for namaaz.
Coming from Madhya Pradesh, I was blown away by the many historical monuments like the Red Fort, Purana Qila, Qutub Minar, Teen Murti Bhavan and, of course, Rashtrapati Bhavan.
-Amjad Ali Khan
-Amjad Ali Khan
Source: http://week.manoramaonline.com/cgi-bin/MMOnline.dll/portal/ep/theWeekContent.do?tabId=13&contentId=14590515&programId=10350717&categoryId=-1073908146&BV_ID=@@@
Photo: http://urbanruralfabric.blogspot.in/2011/04/image-of-cityfrom-delhi-metro.html
Nariman: worshiping our conquerors
हम भारतीयों को अपने विजेताओं को पूजने की प्रवृत्ति है। इसी कारण शासित और शासक के बीच की खाई और चौड़ी होती है ।
-फली एस नरीमन, भारत के पूर्व अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल
We Indians have this habit of worshiping our conquerors. That is what furthers the gap between the governed and the governing.”
-Fali S. Nariman, former additional solicitor general of India (The Week, 29 July 2013)
Monday, July 22, 2013
Rahi Masoom Raza:Nationality
हिंदुस्तान का हर नागरिक हिंदू है, चाहे वह सिख हो, ईसाई हो या मुसलमान. कौमें देशों से बनती हैं धर्मों से नहीं........
-डॉ. राही मासूम रजा
स्त्रोत: http://drmandhatarai.blogspot.in/
Firaq: Hindu Woman
उर्दू के प्रख्यात शायर स्वयं फिराक गोरखपुरी कहते हैं कि रूप की रुबाईयों में नि:स्संदेह एक भारतीय हिन्दू स्त्री का चेहरा है, चाहे रुबाईयाँ उर्दू में क्यों न लिखी गई हों। रूप की भूमिका में वे लिखते हैं -" मुस्लिम कल्चर बहुत ऊंची चीज है, और पवित्र चीज है, मगर उसमें प्रकृति, बाल जीवन, नारीत्व का वह चित्रण या घरेलू जीवन की वह बू–बास नहीं मिलती, वे जादू भरे भेद नहीं मिलते जो हिन्दू कल्चर में मिलते हैं। कल्चर की यही धारणा हिन्दू घरानों के बर्तनों में, यहाँ तक कि मिट्टी के बर्तनों में, दीपकों में, खिलौनों में, यहाँ तक कि चूल्हे चक्की में, छोटी छोटी रस्मों में और हिन्दू की सांस में इसी की ध्वनियाँ, हिन्दू लोकगीतों को अत्यन्त मानवीय संगीत और स्वार्गिक संगीत बना देती है।
बाबुल मोर नइहर छुटल जाए
ऊ डयोढी तो परबत भई, आंगन भयो बिदेस
यह तो हमें गालिब भी नहीं दे सके, इकबाल भी नहीं दे सके, चकबस्त भी नहीं दे सके।
चढती जमुना का तेज रेला है कि जुल्फ़
बल खाता हुआ सियाह कौंदा है कि जुल्फ़
गोकुल की अंधेरी रात देती हुई लौ
घनश्याम की बांसुरी का लहरा है कि जुल्फ़
यह तो हमें गालिब भी नहीं दे सके, इकबाल भी नहीं दे सके, चकबस्त भी नहीं दे सके।
चढती जमुना का तेज रेला है कि जुल्फ़
बल खाता हुआ सियाह कौंदा है कि जुल्फ़
गोकुल की अंधेरी रात देती हुई लौ
घनश्याम की बांसुरी का लहरा है कि जुल्फ़
Mehrauli Archaeological Park
Mehrauli Archaeological Park, behind Qutb Minar. The park's more than 300 ruins date from the 11th-century city of Lal Kot to the 19th-century Mughals. At the highest point in South Delhi, they cluster around a ridge that drains the monsoon rains, which made it a healthy place to settle. This fascinating jumble includes a 12th-century water tank and brilliant blue tiles in Quli Khan's tomb, where East India Company agent Sir Thomas Metcalfe bizarrely set up a country residence in the 1840s. His landscaping remains in the surrounding area, with small pavilions, or "follies," on hilltops.
Politics: Firaq Gorakhpuri
फिराक राजनीति को लंदफंद मानते थे. उनसे कांग्रेस छोड़ने का कारण पूछा गया तो उन्होंने कहा कि लंदफंद मेरे वश की बात नहीं.
English as a source: Nirmal Verma
हमें अंग्रेजी के द्वारा ही विश्व साहित्य को जानने से बचना चाहिए । हमें फ्रेंच, रूसी, चेक, स्पेनिष, जर्मन और स्वीडिश भाषाओं से भी सीधा सम्बन्ध रखना चाहिए, ताकि अनुवाद के सन्दर्भ में हम अपने विवके से काम लेते हुए ऐसे लेखकों और कथ्यों का चुनाव कर सकें जो भारतीय पाठकों की रूचि के अनुरूप हों । अच्छे विश्व साहित्य का चुनाव करते हुए अंग्रेजी पर निर्भरता अनर्थकारी है । यदि हम अंग्रेजी में उपलब्ध चयन तक ही सीमित हो जाएंगे तो निश्चित रूप से हम विश्व साहित्य के बहुत से श्रेष्ठ लेखकों का लेखन नहीं पा सकेंगे । इसलिए जितना शीघ्र हम विश्व साहित्य को अंग्रेजी के झरोखे से देखने का प्रयास छोड़ दें उतना ही अच्छा होगा। हमें अपने बुद्धि विवेक से ही श्रेष्ठ का चयन करना चाहिए ।
-निर्मल वर्मा(संसार में निर्मल वर्मा: गगन गिल)
Sunday, July 21, 2013
Saturday, July 20, 2013
Indian Universities
विश्व में सर्वोत्तम 200 विश्वविद्यालयों की सूची में भारत के एक भी संस्थान का नाम नहीं है। पहले हमारे यहां ऐसा नहीं था। आठवीं सदी ईसापूर्व से शुरू होकर लगभग आठ सौ वर्षों तक तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, वल्लभी, सोमपुरा जैसे प्राचीन विश्वविद्यालय पूरी विश्व शिक्षा प्रणाली पर छाए हुए थे। तेरहवीं सदी में नालंदा विश्वविद्यालय के पतन के साथ, इस प्रणाली के हृस से पूर्व भारत की विशाल शिक्षा प्रणाली को अत्यंत दक्षतापूर्ण माना जाता था। हम में अपनी खोई हुई हैसियत को फिर से पाने की क्षमता है।
फोटो: दिल्ली विश्वविद्यालय
फोटो: दिल्ली विश्वविद्यालय
Delhi Rajputs Coins: dehliwal
Delhi first became the capital of a kingdom under the Tomara Rajputs, who were defeated in the middle of the twelfth century by the Chauhans (also referred to as Chahamanas) of Ajmer. It was under the Tomaras and Chauhans that Delhi became an important commercial centre. Many rich Jaina merchants lived in the city and constructed several temples. Coins minted here, called dehliwal, had a wide circulation.
Edward Thomas has expressed the following views. According to him (JRAS, II, p. 148), the Delhiwals weighed 32 ratis, or the measure of the old Purana of silver of Manu's day. Elsewhere (JRAS, IX, p. 288) he says that the most ancient Indian coins (puch-marked) are in average, 50 grains, the old Varaha silver coins also give an average weight of 50 grains and Rajputa coins also give the average weight of 50 grains. Here he does not mention any weight standard.
Source: The Coinage Of Northern Indian: P.C. Roy, Abhinav Publications
Coin Image: Description: Artist: Amrita Pala (-1195), ruler; Date(s): 1195; Classification(s): coin, Dehliwal, Indian, Sultanate, Delhi/Ajmer/Badon, Bull & Horseman; Acquisition: given by Lyall, R.A., Col., 1945-09-19 [CM.59-1945]
Coin Image: Description: Artist: Amrita Pala (-1195), ruler; Date(s): 1195; Classification(s): coin, Dehliwal, Indian, Sultanate, Delhi/Ajmer/Badon, Bull & Horseman; Acquisition: given by Lyall, R.A., Col., 1945-09-19 [CM.59-1945]
Aristotle: Excellence
“Excellence is never an accident. It is always the result of high intention, sincere effort, and intelligent execution; it represents the wise choice of many alternatives - choice, not chance, determines your destiny.”
-Aristotle
‘‘उत्कृष्टता कभी भी दुर्घटनावश नहीं आती। यह सदैव ऊंचे इरादों, ईमानदारी से प्रयास, बुद्धिमत्ता से निष्पादन का परिणाम होती है; यह बहुत से विकल्पों में से बुद्धिमत्तापूर्ण चयन का प्रतीक होती है—विकल्प, न कि संयोग आपके भाग्य का निर्धारण करता है।’’
-अरस्तू
‘‘उत्कृष्टता कभी भी दुर्घटनावश नहीं आती। यह सदैव ऊंचे इरादों, ईमानदारी से प्रयास, बुद्धिमत्ता से निष्पादन का परिणाम होती है; यह बहुत से विकल्पों में से बुद्धिमत्तापूर्ण चयन का प्रतीक होती है—विकल्प, न कि संयोग आपके भाग्य का निर्धारण करता है।’’
-अरस्तू
Friday, July 19, 2013
Wednesday, July 17, 2013
Tuesday, July 16, 2013
President House of India
राष्ट्रपति भवन के निर्माण से मुख्य वास्तुविद, एडविन लुट्येन्स तथा मुख्य इंजीनियर, ह्यूज कीलिंग के अलावा बहुत से भारतीय ठेकेदार से जुड़े थे। जहां मुख्य इमारत का अधिकांश कार्य एक मुस्लिम ठेकेदार हारून अल रसीद ने किया वहीं फोरकोर्ट का निर्माण सुजान सिंह और उनके पुत्र शोभासिंह ने कराया। हैरत की बात यह है कि इन भारतीयों के नामों का लुट्येन्स की आधिकारिक जीवनी में कहीं उल्लेख नहीं है।
इस भवन के लिए 400000 पौंड की राशि मंजूर की गई थी। परंतु इस इमारत के निर्माण में 17 साल का लम्बा समय लगा, जिससे इसकी लागत बढ़कर 877,136 पौंड (उस समय 12.8 मिलियन) हो गयी। इस इमारत के अलावा, मुगल गार्डन तथा कर्मचारियों के आवास पर आया वास्तविक खर्च 14 मिलियन था। कहा जाता है कि एडविन लुट्येन्स ने कहा था कि इस इमारत के निर्माण में लगी धनराशि दो युद्ध पोतों के निर्माण में लगने वाली धनराशि से कम थी। यह एक रोचक तथ्य है कि जिस भवन को पूरा करने की समय-सीमा चार वर्ष थी, उसे बनने में 17 वर्ष लगे और इसके निर्मित होने के अट्ठारहवें वर्ष भारत आजाद हो गया।
Apart from Edwin Lutyens, the Chief architect and Chief Engineer Hugh Keeling there were many Indian contractors who were involved in the construction of this building. While a Muslim contractor Haroun-al-Rashid did most of the work of the main building the forecourt was built by Sujan Singh and his son Sobha Singh. Surprisingly the names of these Indians did not find a place in the official biography of Lutyens.
The sanctioned amount for the building was earmarked at 400,000 pounds. However the long span of seventeen years required for the construction of the building raised its cost to 877,136 pounds (then Rs. 12.8 million). The actual amount incurred in not only the construction of the building but also the Mughal Garden and the staff quarters amounted to Rs. 14 million. Edwin Lutyens was reported to have remarked that the money invested in the construction of the building was smaller in amount as compared to the cost of two warships.
Nehru on Science Professionals
“You will find in a country technologically developed, how Engineers and Scientists play a far more important role even outside their sphere of Engineering and Science. That is right and that is bound to happen in India.”
-Pt. Jawaharlal Nehru, in his convocation address at IIT Kharagpur in 1956
‘‘आप किसी भी प्रौद्योगिकीय रूप से विकसित देश में देखेंगे कि किस तरह इंजीनियर एवं वैज्ञानिक अपने इंजीनियरी तथा विज्ञान के क्षेत्रों से बाहर भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।’’
-पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान खड़गपुर में 1956 में एक व्याख्यान में
Subscribe to:
Posts (Atom)
First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान
कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...