नत हूँ मैं सबके समक्ष, बार-बार मैं विनीत स्वर
ऋण : स्वीकारी हूँ-विनत हूँ।
मैं मरूँगा सुखी
मैंने जीवन की धज्जियाँ उड़ाई हैं।
(जन्म-दिवस: अज्ञेय)
संवेदना ने ही विलग कर दी
हमारी अनुभूति हमसे।
यह जो लीक हमको मिली थी-
अंधी गली थी।
(इशारे ज़िंदगी के: अज्ञेय)
राम का क्या काम यहाँ? अजी राम का नाम लो।
चाम, जाम, दाम, ताम-झाम, काम- कितनी
धर्म-निरपेक्ष तुकें अभी बाकी हैं।
जो सधे, साध लो, साधो-
नहीं तो बने रहो मिट्टी के माधो।
(जियो, मेरे: अज्ञेय)
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