परंतु तुलसीदास की आवाज़ भक्तिकाल के तमाम कवियों की आवाज़ से अलग है । इसलिए मैं तुलसीदास की बात भी अलग से ही करना चाहता हूं । तुलसीदास को इस नयी आत्मा की तलाश नहीं है, जिसे सारा भक्तिकाल तलाश रहा था, बल्कि उन्हें उसी पुरानी आत्मा की तलाश थी, जो मुसलमान हमलावरों से जूझ गई थी । और शायद यही वजह है कि सूरदास और जायसी से कमतर रसमय होते हुए भी, वे दोनों से ज़्यादा लोकप्रिय हुए !
तुलसीदास के लिए लड़ाई ख़त्म नहीं हुई थी । इसीलिए उन्होंने किसी आशिक़ को अपना कथानायक नहीं बनाया, बल्कि उन्होंने एक योद्धा को चुना । राम और रावण की लड़ाई सीता के परिचय से पहले ही उस तपोवन में शुरू हो गई थी, जहाँ अयोध्या के दो राजकुमार कंधे से कमाने लटकाए उसकी पवित्र शांति की हिफ़ाजत कर रहे थे । यानी यह बात हमें पहले ही बता दी जाती है कि इस कहानी का नायक एक वीर सिपाही है ।
यह बात भी महत्वपूर्ण है कि तुलसीदास का नायक भी सूरदास के नायक की तरह बच्चा है । यानी तुलसीदास भी सूरदास की ही तरह नयी पीढ़ी से आशा बाँध रहे हैं । परंतु इन दोनों की आशाओं में बड़ा फ़र्क़ है । सूर शांति का ख़्वाब देख रहे हैं और तुलसी लड़ाई का । यानी ‘रामचरित मानस’वास्तव में भक्तिकाव्य के सिलसिले की कड़ी नहीं है, बल्कि वीरगाथा काल का एक अँग है ।
महाकाव्य की परंपरा के अनुसार तुलसीदास ने राजा का कसीदा नहीं लिखा है । ऐसा क्यों है ? ऐसा इसलिए है कि तुलसीदास किसी मुसलमान को राजा मान ही नहीं सकते थे । मुझे दरअसल इसी कसीदे की कमी ने चौंकाया था । इस कसीदे का न होना एक बुनियादी इशारा है और इसी के सहारे हम तुलसीदास की प्रतीक-भाषा को समझने की कोशिश कर सकते हैं ।
मेरे ख़्याल में रावण मुसलमान बादशाह है । सीता हमारी आज़ादी, हमारी सभ्यता और हमारी आत्मा है, जिसे रावण हर ले गया है । परशुराम की कमान राम के हाथ में है । यानी ब्राह्मणों से धर्म की रक्षा नहीं हो सकती है । क्षत्रिय ? मगर सारे राजा-महाराजा तो मुगल दरबार में हैं । तुलसीदास ऊँची जाति के हिंदुओं से मायूस हैं, क्योंकि ऊँची जाति के हिंदू तो मुगल से मिले बैठे हैं।
मगर वे किसी अछूत की नायक नहीं बना सकते थे । इसीलिए उन्होंने एक देवता नायक बनाया। (यह बात बहुत महत्वपूर्ण है कि आर्यपुत्र राम ने भीलनी के जूठे बेर खाये ।) राम की सेना में लक्ष्मण के सिवा ऊँची जाति का एक आदमी भी नहीं है । इन दोनों भाइयों के सिवा राम की सेना में केवल बंदर हैं – नीची जाति के लोग । यानी ऊँची जाति के लोगों से मायूस होकर तुलसीदास ने अछूतों या नीची जाति के हिंदुओं को धर्म की रक्षा के लिए आवाज़ दी ।
लड़ाई हुई । रावण हार गया । सीता मिल गई परंतु नतीजा क्या हुआ ? तुलसी ने देखा कि यह सीता वह नहीं है । इसलिए तुलसी की बसाई हुई अयोध्या ने उस सीता को कुबूल नहीं किया – अग्निपरीक्षा के बाद बी कुबूल नहीं किया, परंतु उसी सीता के बच्चों ने यज्ञ के घोड़े की लगाम पर हाथ डाल दिया । बात फिर बच्चों ही तक आई।यों हम यह देखते हैं कि धार्मिक साहित्य भी एक सामाजिक आधार होता है ।
-राही मासूम रजा
सूचना स्रोत: http://rahimasoomraza.blogspot.in/2008/10/blog-post_2541.html
फोटो स्रोत: http://www.itbhuglobal.org/chronicle/archives/2009/07/play_on_tulsida.php
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