Wednesday, July 10, 2013

ghalib on delhi 1857


यह कोई न समझे कि मैं अपनी बेरौनकी और तबाही के ग़म में मरता हूँ। जो दुःख मुझको है उसका बयान तो मालूम, मगर उस बयान की तरफ़ इशारा करता हूँ।
अंग्रेज़ की कौम से जो इन रूसियाह कालों के हाथ से कत्ल हुए, उसमें कोई मेरा उम्मीदगाह था और कोई मेरा शागिर्द। हिंदुस्तानिओं में कुछ अज़ीज़, कुछ दोस्त, कुछ शागिर्द, कुछ माशूक, सो वे सबके सब ख़ाक में मिल गए। एक अज़ीज़ का मातम कितना सख्त होता है ! जो इतने अज़ीज़ों का मातमदार हो, उसको ज़ीस्त क्योंकर न दुश्वार हो। हाय, इतने यार मरे कि जो अब मैं मरूँगा तो मेरा कोई रोने वाला भी न होगा।
(१८५८ में अपने शागिर्द मुंशी हरगोपाल तफ्ता के नाम लिखी चिट्ठी में ग़ालिब ने ग़दर का हाल बयान किया है।)

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