उर्दू के प्रख्यात शायर स्वयं फिराक गोरखपुरी कहते हैं कि रूप की रुबाईयों में नि:स्संदेह एक भारतीय हिन्दू स्त्री का चेहरा है, चाहे रुबाईयाँ उर्दू में क्यों न लिखी गई हों। रूप की भूमिका में वे लिखते हैं -" मुस्लिम कल्चर बहुत ऊंची चीज है, और पवित्र चीज है, मगर उसमें प्रकृति, बाल जीवन, नारीत्व का वह चित्रण या घरेलू जीवन की वह बू–बास नहीं मिलती, वे जादू भरे भेद नहीं मिलते जो हिन्दू कल्चर में मिलते हैं। कल्चर की यही धारणा हिन्दू घरानों के बर्तनों में, यहाँ तक कि मिट्टी के बर्तनों में, दीपकों में, खिलौनों में, यहाँ तक कि चूल्हे चक्की में, छोटी छोटी रस्मों में और हिन्दू की सांस में इसी की ध्वनियाँ, हिन्दू लोकगीतों को अत्यन्त मानवीय संगीत और स्वार्गिक संगीत बना देती है।
बाबुल मोर नइहर छुटल जाए
ऊ डयोढी तो परबत भई, आंगन भयो बिदेस
यह तो हमें गालिब भी नहीं दे सके, इकबाल भी नहीं दे सके, चकबस्त भी नहीं दे सके।
चढती जमुना का तेज रेला है कि जुल्फ़
बल खाता हुआ सियाह कौंदा है कि जुल्फ़
गोकुल की अंधेरी रात देती हुई लौ
घनश्याम की बांसुरी का लहरा है कि जुल्फ़
यह तो हमें गालिब भी नहीं दे सके, इकबाल भी नहीं दे सके, चकबस्त भी नहीं दे सके।
चढती जमुना का तेज रेला है कि जुल्फ़
बल खाता हुआ सियाह कौंदा है कि जुल्फ़
गोकुल की अंधेरी रात देती हुई लौ
घनश्याम की बांसुरी का लहरा है कि जुल्फ़
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