मुझे जो शिक्षा-दीक्षा मिली, उसमें संतुलन को जीवन कर्म और भाषाभिव्यक्ति के सहज संयम को विशेष महत्व दिया जाता रहा और परिस्थितियों ने एकान्त इतना अधिक दिया कि आत्मनिर्भरता अभ्यास नहीं, चरित्र का अंग बन गई, चिन्तन और अनुभूति कम नहीं हुई पर कोई अनुभूति तत्काल दूसरों पर प्रकट हो ही जानी चाहिए या चेहरे पर झलक आनी चाहिए, सामाजिकता की ऐसी कोई परिभाषा भी सीखने को न मिली।-अज्ञेय (इला-वसुधा डॉलमिया, यशोधरा डॉलमिया)
Wednesday, April 30, 2014
Balance in life (जीवन संतुलन-अज्ञेय)
Tuesday, April 29, 2014
ghazal-2 (कुछ पुरानी यादें ताजा हो आयीं)
उस लाल पत्थर की इमारत को देख, कुछ पुरानी यादें ताजा हो आयीं
वर्ना अब तो शीशे को भी देख, नजर अपने मेँ भी कुछ देख नहीं पायीं
जब उसकी यादों के बादल घिर आते हैं, आँखेँ खुद-ब-खुद बरस जाती हैं
लगता है मानो कल की ही तो बात है, पीछे देखते हुए नज़रें थम जाती हैं
अब आलम यह है कि अपना ही वजूद, कुछ बिखरा-बिखरा लगता है
दिल को कितना समझाया था, एक वो है कि टुकड़े-टुकड़े लगता है
अब तो लबों में ही नहीं, दोनो दिलोँ में ख़ामोशी छाई है
जहां सिर्फ़ दिलों के धड़कनों की, आवाज़-भर आई है
Monday, April 28, 2014
Delhi's presence in Films (फिल्मों में दिल्ली )
सन् 1947 में भारत के विभाजन के साथ एक नए स्वतंत्र राष्ट्र की राजधानी के रूप में दिल्ली के चाल चरित्र में बदलाव आया। पश्चिमी पाकिस्तान से अपने ही देश में शरणार्थी के रूप में आए पंजाबी, नौकरशाह, कलाकार, लेखक और राजनीतिकों के वर्ग की आमद के साथ राजधानी के सामाजिक ढांचे में व्यापक परिवर्तन आया। देश भर से सभी तबकों के व्यक्तियों के अपने भाग्य को आजमाने के लिए दिल्ली आने की प्रवृत्ति, जो आज भी अनवरत रूप से जारी है, के परिणामस्वरूप दिल्ली "लघु भारत" के रूप में परिवर्तित हो गयी।
विभाजन के साथ मुसलमानों के उच्च वर्ग के पाकिस्तान पलायन करने के साथ पुरानी दिल्ली की तहजीब और सामाजिक शिष्टाचार में भी व्यापक परिवर्तन आया। नए उभरते भारत के साथ उसकी राजधानी दिल्ली की संस्कृति भी इंद्रधनुषी हो गई।
स्वतंत्र भारत में पहली बार केंद्र सरकार ने भी संस्कृति के क्षेत्र में प्रवेश किया। सन् 1950 में संस्कृति के क्षेत्र में राष्ट्रीय पहल के रूप में साहित्य, ललित कलाओं सहित दूसरी कलाओं को बढ़ावा देने के उद्देश्य से साहित्य अकादेमी, ललित कला अकादेमी और संगीत नाटक अकादेमी की दिल्ली में स्थापना की गई। उसके बाद राष्ट्रीय नाट्य स्कूल बनाया गया, जिसने रंगमंच कलाकारों और अभिनेता-अभिनेत्रियों को प्रशिक्षित करना शुरू किया। इनमें से कुछ-एक ने फिल्मी दुनिया में भी अपनी धाक जमाईं।
सन् 1950 में दिल्ली में फिल्म पर पहली संगोष्ठी हुई। भारतीय सिनेमा की पहली अभिनेत्री देविका रानी इस संगोष्ठी का सबसे बड़ा आकर्षण थी। इसमें बंबई, कलकत्ता और मद्रास की फिल्मी दुनिया की तत्कालीन सभी नामचीन हस्तियां शामिल हुई। जिसमें देवकी बोस, अहिंद्रा चौधरी, बी सान्याल, पंकज मल्लिक, वी. शांताराम, पृथ्वीराज कपूर, नरगिस, दुर्गा खोटे, राज कपूर, किशोर साहू, विमल राय, अनिल बिस्बास, ख्वाजा अहमद अब्बास, दिलीप कुमार, वासन जैमिनी प्रमुख थे। दिल्ली के प्रतिनिधिमंडल में उदयशंकर, रंजन, कवि नरेंद्र शर्मा थे।
इस जमावड़े में अनेक साहित्यकारों, फिल्म संगीतकारों और सिनेमा के फोटोग्राफरों ने भी हिस्सा लिया। इस संगोष्ठी की शुरुआत पंकज मल्लिक ने अपनी सुरमई आवाज में वेदों के एक गीत से की। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस संगोष्ठी में शामिल कलाकारों के सम्मान में अपने सरकारी निवास पर एक रात्रि भोज दिया। इस संगोष्ठी के आयोजन से पूर्व भारत सरकार ने सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए राष्ट्रीय सम्मान की स्थापना कर दी थी।
इस अखिल भारतीय सांस्कृतिक प्रतियोगिता में सभी भारतीय भाषाओं की फिल्मों ने हिस्सा लिया। पहला पुरस्कार, विमल राॅय को उनकी फिल्म "दो बीघा जमीन" के लिए प्राप्त हुआ।
तब से लेकर अब तक के बरसों के सफर में दिल्ली मुख्यधारा की हिंदी फिल्मों के सबसे बड़े बाजार के रूप में उभरी है।
इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि हिंदी फिल्में आज की दिल्ली की युवा पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करती है। जिनमें हिंदी के साथ अंग्रेजी का समावेश और पंजाबी शब्दों का इस्तेमाल साफ नजर आता है। यहां तक कि फिल्म निर्माताओं और निर्देशकों के फिल्मी कथानक भी देश की एकता की भावना के सामाजिक सरोकारों को दर्शाते हैं।
Sunday, April 27, 2014
Semitic Religion vs Hinduism (हिन्दू बनाम हिन्दू)
हिन्दू जीवन पध्दति से कमतर संप्रदाय क्यों न बने? उदारता, कृपणता में क्यों न बदले? आखिर हिंदुस्तान में अहिंदुओ का मिजाज भी तो सांप्रदायिक है! ईसाइयत और इस्लाम है तो सम्प्रदाय ही, सो उनका मिज़ाज़ भी स्वाभाविक सांप्रदायिक ही है।
असली चुनौती इसी बात की है कि बहुसंख्यक हिंदुओ की मुसलमानों और ईसाइयों की तरह सांप्रदायिक दृष्टि न विकसित हो, नहीं तो उसकी मार से कोई नहीं बचेगा। न हिन्दू, न मुसलमान। फिर हिन्दू मुसलमान हो जाएगा और मुसलमान को छोड़ेगा नहीं जैसे यूरोप मेँ स्पेन में हुआ, जहां ईसाइयों ने ईसाइयत और मौत के सिवाय कोई दूसरा रास्ता नहीं छोड़ा।
फिर अब तक ईसाई बहुल मिजोरम सहित दूसरे उत्तरपूर्व राज्योँ में चर्च से जारी होने वाला सरमन, दिल्ली क़ी ज़ामा मस्जिद से जाऱी होने वाला फतवा हिंदुओं मेँ भी शंकराचार्य को कुछ ऐसा ही करने की वैधता दे देगा फिर जिसके ख़िलाफ़ आवाज़ बुलन्द करने वाला नहीं होगा।
मुसलमान सांप्रदायिक आधार पर वोट दे तो सेक्युलर-टैक्टिकल वोटिंग, हिन्दू 'जाति' के आधार पर वोट दे तो जातिवादी, 'हिन्दू' के नाते दे तो सांप्रदायिक। मुल्ला-मौलवी का फतवा, चर्च का सरमन प्रगतिशील, टीका-आरती पुरातनपंथी।
अब कोई माने या न माने सच्चाई बदल नहीं जाती जैसे भारत में दोनों संप्रदाय, ईसाइयत और इस्लाम, "जातिग्रस्त" हैं पर वैश्विक स्तर पर अपने को जोड़े रखने के लिये दोनों संप्रदायों के नेता इसको मानते नहीं है जबकि दूसरी तरफ़, उसी आधार पर अब चुनावों में मुसलमानों के आरक्षण की मांग हो रही है।
मुसलमानों के लिए एक अलग कानूनी दर्जे की अवधारणा अंग्रेजों की देन है। ऐसा उन्होंने 1937 में मुस्लिम पर्सनल लॉ बनाकर किया। इसलिए यह अंग्रेजों की विरासत है, कोई इस्लामी सिद्धांत नहीं। दरअसल, कानूनी रूप से एक समुदाय को अलग दर्जा देकर अंग्रेज शासकों ने अपना राजनीतिक हित साधा था।
यहाँ तक कि अब तो पिछड़ों के आरक्षण में भी मुसलमानोँ के लिये छेद करने की बात मुलायम ढंग से पेश की जा रही है जबकि घोषित रूप से हिन्दुओँ के अलावा इस्लाम-ईसाइयत तो जाति को मानते ही नहीं। अब लाख टके का सवाल यह है कि मुसलमानों को यादवों के स्थान पर पिछड़ों में शामिल किया जाएगा या उनके अलावा? नहीं तो कल को इन दोनों मेँ ही परस्पर हितों का टकराव होगा।
देश में ईसाइयत की अस्सी फीसदी से ज्यादा आबादी दलित ईसाइयों की है पर चर्च की भीतरी तंत्र में उनका दखल न के बराबर है, जैसा अकाल तख्त साहब की राजनीति में जाट सिखों की आगे महजबी सिख कहीँ नहीं टिकते। इसी तरह इस्लाम में दलित और मझौली जातियों से मतांतरित हुए हिन्दुओं की मतांतरण के पश्चात कैसी स्थिति है, उसका अध्ययन होना चाहिए।
ऐसे में यह लड़ाई हिन्दू बनाम हिन्दू की ही है।
Saturday, April 26, 2014
Media and Dalit (मीडिया की "दलित-रामदेव" ग्रंथि)
बाबा रामदेव के दलित समाज की बहन-बेटी के सम्बन्ध में दिया गये नाकाबिले बर्दाशत बयान और राहुल गांधी के आचरण की तुलना के सवाल को लेकर घद्घदा रहा मीडिया भी भला अलग कहां है ?
मीडिया में दलितों के उपस्थिति अंगुलियों पर गिनी जा सकती है, अगर कोई गलती से एकलव्य बनकर हाशिए की लक्ष्मण रेखा को पार करने का चमत्कार कर भी देता है तो सब हाका लगा कर उसकी सामूहिक शिकार में लग जाते हैं, अगर आज सीधे नहीं मार सकते तो चारित्रिक हनन मेँ लग जाते है।
दलितों की स्टोरी दिखा-दिखा अपने चैनल की टीआरपी बढ़ाने वाले, प्रगतिशीलता मेँ आगे दिखने के नाम पर अपने नाम पीछे से पांडेय, मिश्र और सिंह हटाने वाले चैनल के कर्ता-दर्ताओ से पूछा जाना चाहिए कि दलितों के नाम पर अपनी ब्रांडिंग करने वाले स्टार पत्रकार, जिनमें ज्यादातर को आम आदमी का पत्रकार कहलाने का शौक है, भला मोदी से अलग कहाँ हैं, जिन्होंने कथित रूप से अपनी ब्रांडिंग के चक्कर में बीजेपी के ब्रांड से ज्यादा तरजीह दी है। एक तरह से दोनों का डीएनए अगर एक ही है तो फिर मोदी की आलोचना के क्या मायने।
ऐसे में तो वह दिन दूर नहीं जब दलित साहित्य की तरह दलित पत्रकारिता का भी अलग मुक़ाम होगा और क्यों न हो, नई दिल्ली के जंतर-मंतर पर हरियाणा की दलित बेटियों पर हुए अत्याचार की घटना राजधानी के मुख्यधारा के मीडिया में स्थान क्यों नहीं पा सकी?
है कोई जवाब मीडिया के स्टार रिपोर्टरों के पास या इसके लिए भी वे ठीकरा मोदी के सिर फोड़ने का ही प्रपंच करेगें ?
Friday, April 25, 2014
last rites (चिता पर चैन ?)
चैन तो चिता पर ही मिलता है.…।
सारे राग-द्वेष, आशा-प्रत्याशा, दुख-चिंता चिता के साथ समाप्त हो जाते है, तेरा तुझको अर्पण।
अंतिम समय में शरीर की राख-मिट्टी के साथ मिल जाती है।
रूप-आकार निराकार में विलीन हो जाता है।
कम से कम दृश्यमान संसार की यात्रा का तो अंत हो जाता है।
अगर आगे कोई संसार है तो उसकी यात्रा आरंभ हो जाती है।
रूप-आकार निराकार में विलीन हो जाता है।
कम से कम दृश्यमान संसार की यात्रा का तो अंत हो जाता है।
अगर आगे कोई संसार है तो उसकी यात्रा आरंभ हो जाती है।
Wednesday, April 23, 2014
भारतीय मिश्र संस्कृति-अज्ञेय
भारतीय संस्कृति 'सामासिक-संस्कृति' नहीं है, मिश्र संस्कृति है। संस्कृतियाँ प्रभाव ग्रहण करती हैं। उनमें आदान-प्रदान चलता है इसलिए वे अपनी 'संग्राहता' से 'मिश्रता' को ही उजागर करती हैं। समन्वय-सामंजस्य, विरोधों का मेल, टकराहट-तनाव-संघर्ष यह सब संस्कृति का भीतरी संवादी-स्वर है जो अन्तत: एक मिश्र-संस्कृति का रूप ले लेता है। समाजशास्त्रीय-पुरातात्त्विक खोजों का सार-सर्वस्व यही है कि भारतीय संस्कृति को 'मिश्र-संस्कृति' ही कहा जा सकता है।
-अज्ञेय
स्त्रोत: http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=777&pageno=1
ghazal: Hamsaya jingadi ka (ग़ज़ल: हमसाया जिंदगी का)
तेरे जाने पर भी, हवा में तेरी मौजूदगी है
माना कि दिल उदास है, जुबां खामोश है
इतनी चुप्पी है, आवाज धड़कन की गूँजती है
माना कि तू नहीं है, फिर फिज़ा क्यों मदहोश है
अब क्या कहू बात भला, जो ऐसे ही चुक गयी
जलेगा क्या वह दीपक, जिसकी बाती ही बुझ गयी
कदमों के जिसकी आहट, आँखे दूर से सुन लेती थी
चुपचाप सिसकते दर्द की, क्या टीस उठती है छाती में?
शोरगुल वाली बस्ती में, कभी मौत की चुप्पी होगी
किसने सोचा था ऐसा, किसने जाना था वैसा
अब यह आलम है, हवा भी सहमी सी गुजरती है
किसने माना था होगा ऐसा, किसने कहा था वैसा
वजूद पर तेरे हैरान हूँ, सवालों से दुनिया के परेशान हूँ
हमसाया था जो जिंदगी का, हमसफ़र न बन पाया
अपने ऐतबार पर हैरान हूँ, उसके ना होने से परेशान हूँ
चाहा था खुद से ज्यादा, वही खुदा न हो पाया
(साभार चित्र: कामिनी राघवन)
Tuesday, April 22, 2014
Yamuna river, Delhi
Celebrated as an aquatic form of divinity for thousands of years, the Yamuna is one of India's most sacred rivers. A prominent feature of north Indian culture, the Yamuna is conceptualized as a goddess flowing with liquid love--yet today it is severely polluted, the victim of fast-paced industrial development.
Sunday, April 20, 2014
Ayurveda (आयुर्वेद)
सदियों से भारत को आरोग्य की भूमि के रूप में जाना जाता है। इतिहास में इस बात के पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं कि आरोग्य की परंपरा हमारे देश में वेदों के काल से ही फलती-फूलती रही है। वेदोत्तर काल के दौरान भारत की कुछ बहुत शक्तिशाली स्वास्थ्य सेवा प्रणालियां प्रकाश में आई।
इनमें से सबसे पहली तथा अत्यधिक लोकप्रिय आयुर्वेद नाम की महानतम भारतीय परंपरा है। आयुर्वेद के अलावा, भारत की उपचार संस्कृति ने रसशास्त्र तथा सिद्ध जैसी दूसरी लोकप्रिय प्रणालियों को जन्म दिया।
Saturday, April 19, 2014
Indian media aping west-Govind Singh (पश्चिम का पिछलग्गू भारतीय मीडिया-गोविन्द सिंह)
हमारा मीडिया पूरी तरह से पश्चिम का पिछलग्गू है. उसकी अपनी कोई सोच इतने वर्षों में नहीं बन पाई है. यहाँ तक कि हमारे मीडिया पर परोक्ष नियंत्रण भी उन्हीं का है.
जब हमारे मीडिया के समस्त मानदंड वही तय करता है तो नियंत्रण भी उसी का हुआ. उसे किधर जाना है, किधर नहीं जाना है, यह भी पश्चिम ही तय कर रहा है. यानी भारत के सवा लाख करोड़ रुपये के मीडिया बाजार के नियंत्रण का सवाल है, जिसकी तरफ मीडिया प्रेक्षकों का ध्यान गया है.
हालांकि इसमें केवल पश्चिमी मीडिया का ही दोष नहीं है, हमारे मीडिया महारथी भी बराबर के जिम्मेदार हैं. कई बार ऐसा लगता है कि उनके पास कोई विचार ही नहीं है. वे सिर्फ नक़ल के लिए बने हैं. अमेरिका से कोई विचार आता है तो वे उसे इस तरह से लेते हैं, जैसे गीता के वचन हों.
-गोविन्द सिंह
स्त्रोत: http://haldwanilive.blogspot.in/2014/04/blog-post_8406.html
Friday, April 18, 2014
Misleading media adviser-Uday Sahay
It is naive for any PM to presume that hiring a professional journalist and giving him the required freedom and perks will be enough for creating his positive mass image. The PM of the day needs to understand that he is hiring a professional who will double up as both media adviser and communication executioner and that calls for a team of professionals to be led by a communication chief. Therefore, even to designate him as a media adviser is misleading.
-Uday Sahay
Source: http://bargad.org/2014/04/16/pm-and-media-adviser/
Thursday, April 17, 2014
Calcutta Mint (कोलकाता टकसाल)
भारत सरकार की कोलकाता स्थित टकसाल 1757 में पुराने किले के एक भवन में स्थापित की गई थी जहां आजकल डाक घर (जीपीओ) है। इसे कलकत्ता टकसाल कहा जाता था जिसमें मुर्शीदाबाद नाम से सिक्के ढाले जाते थे।
दूसरी कलकत्ता टकसाल गिलेट जहाज भवन संस्थान में स्थापित की गई और इस टकसाल में भी मुर्शीदाबाद के नाम से सिक्कों का उत्पादन जारी रहा।
तीसरी कलकत्ता टकसाल स्ट्रेंड रोड पर 01 अगस्त, 1829 (चांदी टकसाल) से शुरू की गई। 1835 तक इस टकसाल से निकलने वाले सिक्कों पर मुर्शीदाबाद टकसाल का नाम ढाला जाता रहा।
1860 में चांदी टकसाल के उत्तर में केवल तांबे के सिक्के ढालने के लिए एक 'तांबा टकसाल' का निर्माण किया गया। चांदी और तांबा टकसालों में तांबे, चांदी और सोने के सिक्कों का उत्पादन किया जाता था।
ब्रिटिश राज के दौरान सिक्के ढालने के अलावा कोलकाता टकसाल में पदकों एवं अलंकरणों का निर्माण भी किया जाता था। आज भी यहां पदकों का निर्माण किया जाता है।
स्त्रोत: http://www.pib.nic.in/newsite/hindifeature.aspx?relid=0
Gandhi: Charka (महात्मा गांधी-चरखा)
दक्षिण मुंबई के गामदेवी इलाके में स्थित मणिभवन से ही महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन की शुरूआत की।
स्वदेशी आंदोलन भी यहीं से शुरू हुआ।
1917 से उन्होंने चरखा कातना शुरू किया। तब से लेकर चरखे के संग जब भी वे यहां आये, उनका साथ बना रहा।
ग्वालिया टैंक (अब इसे अगस्त क्रांति मैदान कहा जाता है), यहां से मात्र 100 मीटर दूर है।
गांधी जी ने भारत छोड़ो आंदोलन की शुरूआत यहीं से की थी।
Wednesday, April 16, 2014
Hindi poem: Your companionship (तेरा साथ होना)
तेरे होने से ज्यादा
तेरे साथ की तमन्ना है
वैसे देखो तो
होने और साथ खड़े होने में
कुछ खास फर्क नहीं
पर जानो
तो गिनती सिर्फ
गणित का सवाल नहीं
न साथ खड़े होना
कोई बवाल नहीं
फिर भी
न जाने क्यों
संग होने के ख़्वाहिश है
एक ख़्वाब है
अकेले का
सबके लिए, सबके साथ
लिए हाथों में हाथ
गढ़े एक नया मुहावरा
अपने लिए
सबके लिए
साथ-साथ
गहे
हाथों में हाथ
(अब होने वाली लम्बी लड़ाई में अपनों के साथ होना ही काफी नहीं, उनके साथ खड़े रहना भी उतना ही महत्वपूर्ण है)
Tuesday, April 15, 2014
Monday, April 14, 2014
National Highway eight and liquor shops (राष्ट्रीय राजमार्ग आठ और दारू के ठेके)
राष्ट्रीय राजमार्ग आठ और दारू के ठेके
..............................................................................................................................................देश की राजधानी दिल्ली से वित्तीय राजधानी मुंबई तक बरास्ता गुड़गांव, जयपुर अजमेर, उदयपुर, अहमदाबाद, सूरत और वडोदरा जाने वाले 1,375 किलोमीटर (854 मील) लम्बे राष्ट्रीय राजमार्ग-आठ में आने वाले राजस्थान में प्रमुख शहरों के चौराहों पर दारू के ठेकों की उपस्थिति और उन पर जमा भीड़ देखते ही बनती थी……
अजमेर, राजसमंद, भीलवाड़ा और पाली में करीब पांच लाख मतदाताओं का 'रावत समाज' चार बार के सांसद होने के बावजूद प्रमुख राजनीतिक दलों की उपेक्षा का शिकार!
कुछ चुनिंदा नेताओं की व्यक्तिगत महत्वकांक्षाओं और क्षुद्र स्वार्थों का शिकार "समाज" विचारशून्यता तथा आत्म धिक्कार भाव में।
सामाजिक स्तर पर ऐसे दलों और नेताओं का बहिष्कार और आपसी एकता तथा युवाओं में आत्मविश्वास का भाव जगाने की आवयश्कता ही समय की मांग।
..............................................................................................................................................सामाजिक स्तर पर ऐसे दलों और नेताओं का बहिष्कार और आपसी एकता तथा युवाओं में आत्मविश्वास का भाव जगाने की आवयश्कता ही समय की मांग।
पानी की प्यास से जनता परेशान, नेता फिर भी अनजान
हरिपुर से लेकर धोलीमगरी (रायपुर-जस्साखेड़ा मार्ग) तक मीठे पानी का अभाव।
स्थानीय समाज पेयजल तक की मूलभूत सुविधा से वंचित।
(तीन दिनों में अपने दिल्ली से गॉव की ढाणी के प्रवास में देखा-जाना-समझा, उसका साझा)
Thursday, April 10, 2014
Low mentality people (छोटी सोच- नीचता)
आप छोटी सोच के लोगों से, उनके ही मैदान में जीत नहीं सकते क्योंकि वे कब आपको अपनी नीचता के स्तर पर ले जाकर पटखनी दे देंगे, आपको पता ही नहीं चलेगा।
अब इसमें, आपके सामर्थ्य का कम और सोच का ज्यादा योगदान है, जो आप सोच नहीं सकते, उसे वे अंजाम दे देंगे, सो ऐसे नकारात्मक लोगों को कोस भर पहले से ही प्रणाम उचित रहता है।
दुनियादारी भी निभ जाती है और अपनी स्वयं की रक्षा भी हो जाती है, लगे हाथ।
Wednesday, April 9, 2014
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First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान
कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...