Monday, March 31, 2014
Sunday, March 30, 2014
Corporate View of General Elections: People's participation to Talent Show (जन भागीदारी से टैलेंट शो तक)
लोकतंत्र में नागरिकों की समान-भागीदारी का प्रतीक आम चुनाव कॉर्पोरेट के चलते 'सबसे बड़ा टैलेंट शो' (हीरो होण्डा के विज्ञापन की टैग लाइन-नया इंडियन देश का सबसे बड़ा टैलेंट शो) हो गया है।
अब वह दिन दूर नहीं जब आपको टीवी शो की तरह मतदान केंद्र पर जाकर मत डालने की बजाय एसएमएस, फेसबुक लाइक और ट्विटर पर फॉलो करने को कहा जाएगा।
विज्ञापन का लिंक: https://www.youtube.com/watch?v=mOPd-ah7XPI
Hindi Women Journalist in Delhi (दिल्ली का पत्रकारिता संसार और महिलाएं)
कुछ दिन पहले प्रेस क्लब में एक परिचित पर अब अपरिचित महिला पत्रकार, जो अब एक माँ भी बन चुकी है, को सिगरेट के छल्लो को हवा में उड़ाते देखा तो मानो आँखो को यकीं ही नहीं हुआ।
पत्रकारिता के अपने आरंभिक दिनों में इस लड़की को देखकर मुझे हमेशा फ़िल्म हीरोइन नंदा, अब दिवंगत, का अनायास स्मरण हो आता था। लगता था कि अब भी हिंदी पत्रकारिता में सक्रिय महिलाओं में 'स्त्री' अंश शेष है।
फिर राजधानी में २०-२३ साल की पत्रकारिता को करीब से देखने पर ध्यान आया कि पता नहीं क्यों एक राज्य विशेष की लड़कियों को दिल्ली के पत्रकारिता संसार में आकर अपना पेशेवर कैरियर संवारते- संवारते घर परिवार के संस्कार छोड़ देती है। अब आप इसे मध्यम वर्गीय चेतना भी कह सकते हो और कामरेडों के ख्याल से मध्यम वर्गीय स्त्री विरोधी नजरिया भी।
शायद ऐसी लड़कियां जिन्होंने अपने जिले से बाहर कदम नही रखा, वे देश की राजधानी की चकाचौंध में खो गयी, विलीन हो गया उनका मूल व्यक्तित्व और रह गया महानगर का फोटोकॉपी जीवन, जिसमें घर-गॉव की मीठी की सौंधी खुशबू और देस का रंग गायब था।
साथ ही जीवन के उत्तरार्ध में सभी को इसकी कीमत चुकाते हुए भी देखता हूँ, किसी का परिवार नहीं बसा, किसी का बसा तो वैवाहिक जीवन क्षणभंगुर रहा, कोई निसंतान है तो कोई मानो सबसे अलग रहने को मजबूर।
पता नहीं यह उनकी बदनीयती का परिणाम है या नियति का। आधुनिकता संसार में एकल की दौड़ में छूटा घर-परिवार, न इधर के रहे न उधर कुछ रहा।
Saturday, March 29, 2014
Urdu-Bangladesh (उर्दू-बांग्लादेश)
पूर्व पाकिस्तानी लोग उर्दू समझ तो सकते थे लेकिन बोल नहीं सकते. इसलिए एक डर था कि पाकिस्तान बंगाली भाषा दबाना चाहता था क्योंकि वो पूर्व पाकिस्तान को उपनिवेश बनाना चाहता था."अब्दुल गफ़्फ़ार चौधरी, अमार भायेर रोक्तो रांगानो गीत के लेखक
वर्ष १९४७ में अविभाजित हिंदुस्तान के विभाजन के बाद पाकिस्तान के गवर्नर जनरल मोहम्मद ने २१ मार्च १९४८ को ढाका के रेस कोर्स मैदान में घोषणा की थी कि पूरे पाकिस्तान की आधिकारिक भाषा उर्दू होगी. जबकि असल में पाकिस्तान के किसी भी सूबे की भाषा उर्दू नहीं थी. पंजाब में पंजाबी, सिंध में सिंधी, नॉर्थवेस्ट फ्रंटियर प्रॉविंस में पश्तो और पूर्व पाकिस्तान में बंगाली भाषा बोली जाती थी.
पाकिस्तान के 56 प्रतिशत लोग बंगाली थे, हम लोग बहुसंख्यक समुदाय थे. पूर्व पाकिस्तानी लोग उर्दू समझ तो सकते थे लेकिन बोल नहीं सकते. इसलिए एक डर था कि पाकिस्तान बंगाली भाषा दबाना चाहता था क्योंकि वो पूर्व पाकिस्तान को उपनिवेश बनाना चाहता था.जिन लोगों ने बंगाली भाषा के लिए आंदोलन किया उन्हें देशद्रोही, कम्यूनिस्ट, भारत समर्थक और यहां तक कि इस्लाम के ख़िलाफ़ तक बताया गया.
पाकिस्तान सरकार ने पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के साहित्य, संस्कृति पर प्रतिबंध लगाने की बात कही. रविंद्रनाथ ठाकुर और नज़़रुल इस्लाम जैसे महान कवियों, सारे बंगाली साहित्य को इस्लाम विरोधी बताया गया. ऐसा तो अंग्रेज़ों के राज में भी नहीं हुआ.
Mahabharata and Ramayana: Nirmal Verma (महाभारत और रामायण-निर्मल वर्मा)
महाभारत और रामायण के बिना भारतीय संस्कृति के मूल चरित्र के संबंध में कुछ भी कहना सारहीन होगा। किसी जाति की एपिक-गाथाएँ और महाकाव्य अपनी प्रभाव शक्ति में उसके ‘धर्मग्रंथों’ से कम महत्वपूर्ण नहीं होते। भारतीय परंपरा में तो एक को दूसरे से अलग करना ही असंभव होगा। रामायण और महाभारत की काव्यात्मकता उतनी ही प्रखर और ओजपूर्ण है, जितनी उनकी आध्यात्मिक गहनता (यह आकस्मिक नहीं है, कि गीता का प्रवचन युद्ध की छाया तले दिया गया था, किसी तपोवन के मनोरम परिवेश में नहीं)।
भारतीय संस्कृति की ये महान् काव्य रचनाएँ न तो ओल्ड टेस्टामेंट और कुरान की तरह निरी धर्म-पुस्तकें और आचार-संहिताएँ हैं, न ग्रीक महाकाव्यों-ईलियड और ओडिसी- की तरह ‘सेक्यूलर’ साहित्यिक कृतियाँ हैं। वे दोनों हैं और दोनों में से एक भी नहीं हैं।
वे मनुष्य को उसकी समग्रता में, उसके उदात्त और पाशविक, गौरवपूर्ण और घृणास्पद, उजले और गँदले- उसके समस्त पक्षों को अपने प्रवाह में समेटकर बहती हैं। कला में सौंदर्य का आस्वादन और सत्य की बीहड़ खोज कोई अलग-अलग अनुभूतियाँ न होकर एक अखंडित और विराट अनुभव का साक्ष्य बन जाती है।
-निर्मल वर्मा (दूसरे शब्दों में)
Without You (तुम्हारे बिन)
तुम्हारे बिन
अब दिन भी बरस लगते हैं
पर मन में
तुम्हारा स्थान अक्षुण्ण है
अब इस नश्वर संसार से
भले ही दूर हो
पर प्यार से भला कहाँ !
जो अब भी पहुँचाता संदेशे
जब भी तुम्हारी याद आती है
अनायास ही आँखे भर आती हैं
शायद इसी को रोना कहते है
सहसा अपने को छूने पर
रगों में तुम्हारे होने का अहसास होता है
तिस पर आई मुस्कान
मेरे सारे दुख हर लेती है
Self: doubt to destruction-Nirmal Verma (आत्म-आत्मा-उन्मूलन-निर्मल वर्मा)
फ्रांस की सबसे मौलिक अन्तर्दृष्टिसंपन्न चिन्तक सिमोन वेल कहा करती थीं कि आधुनिक जीवन की सबसे भयानक, असहनीय और अक्षम्य देन ‘आत्मा-उन्मूलन’ का बोध है। यह एक ऐसा वेस्टलैंड, आन्तरिक मरुस्थल है, जहाँ मनुष्य के समस्त संरक्षण स्थल-ईश्वर, परंपरा अतीत, प्रकृति-जो एक समय उसके आत्म को गठित और रूपायित करते थे, उससे छूटते जाते हैं। वह स्वयं अपने आत्म से निर्वासित हो जाता है, जो आत्म-उन्मूलन की चरमावस्था है।अजीब बात है कि यह चरमावस्था, जो अपने में काफी ‘एबनॉर्मल’ है आज हम भारतवासियों की सामान्य अवस्था बन गयी है। आत्म-उन्मूलन का त्रास अब ‘त्रास’ भी नहीं रहा, वह हमारे दैनिक जीवन का अभ्यास बन चुका है। अक्सर वही चीज़ जो सर्वव्यापी है, हमें आँखों से दिखायी नहीं देती।
ऊपर की बीमारियाँ दिखायी देती हैं, किन्तु जो कीड़ा हमारे अस्तित्व की जड़ से चिपका है, जिससे समस्त व्याधियों का जन्म होता है-आत्मशून्यता का अन्धकार उसे शब्द देने के लिए जिस आत्मबोध की जरूरत है, हम आज उससे भी वंचित हो गए हैं।
-निर्मल वर्मा (आदि, अन्त और आरम्भ)-
Friday, March 28, 2014
Thursday, March 27, 2014
Poem= Dharamvir Bharati (क्योंकि सपना है अभी भी-धर्मवीर भारती)
...क्योंकि सपना है अभी भी
इसलिए तलवार टूटी अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशाएं
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध धूमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
...क्योंकि सपना है अभी भी!
तोड़ कर अपने चतुर्दिक का छलावा
जब कि घर छोड़ा, गली छोड़ी, नगर छोड़ा
कुछ नहीं था पास बस इसके अलावा
विदा बेला, यही सपना भाल पर तुमने तिलक की तरह आँका था
(एक युग के बाद अब तुमको कहां याद होगा?)
किन्तु मुझको तो इसी के लिए जीना और लड़ना
है धधकती आग में तपना अभी भी
....क्योंकि सपना है अभी भी!
तुम नहीं हो, मैं अकेला हूँ मगर
वह तुम्ही हो जो
टूटती तलवार की झंकार में
या भीड़ की जयकार में
या मौत के सुनसान हाहाकार में
फिर गूंज जाती हो
और मुझको
ढाल छूटे, कवच टूटे हुए मुझको
फिर तड़प कर याद आता है कि
सब कुछ खो गया है - दिशाएं, पहचान, कुंडल,कवच
लेकिन शेष हूँ मैं, युद्धरत् मैं, तुम्हारा मैं
तुम्हारा अपना अभी भी
इसलिए, तलवार टूटी, अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशाएं
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धूंध धुमिल
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
... क्योंकि सपना है अभी भी!
फ़ोटो स्रोत: http://67.52.109.59:8080/emuseum/view/objects/asitem/search$0040/2/title-asc/designation-asc?t:state:flow=d5a7627d-7568-49f4-ac03-5f1421be5b33
Wednesday, March 26, 2014
Nirmal Verma-Death feast (निर्मल वर्मा-तर्पण के भोजन पर)
"आप सोचते हैं, ये अपनी भूख मिटाने आए हैं..वे उन तृष्णाओं को चुगने आते हैं, जो लोग पीछे छोड़ जाते हैं। ये न आते, तो जिन्हें आप साथ लाए हैं..उनकी प्रेतात्मा भूखी-प्यासी भटकती रहती...आप क्या सोचते हैं-देह के जलने के बाद मन भी मर जाता है? आपको मालूम नहीं, कितना कुछ पीछे छूट जाता है। आप सौभाग्यवान हैं कि मैंने बुलाया और ये आ गए..कभी-कभी तो लोग घंटों बाट जोहते रहते हैं और ये कहीं दिखाई नहीं देते।"
-निर्मल वर्मा, तर्पण के भोजन को खाने आए गिद्धों के बारे में (अंतिम अरण्य)
Pakistani flags in Banglaesh
ट्वेंटी-ट्वेंटी वर्ल्ड कप क्रिकेट के आयोजक बांग्लादेश क्रिकेट बोर्ड ने अपने देशवासियों के विदेशी झंडों के फहराने पर रोक लगाई है।
गौरतलब है कि हाल में हुए एशिया कप में बांग्लादेशियों के पाकिस्तानी झंडा लहराने को लेकर काफी हो हल्ला मचा था ।
बांग्लादेश क्रिकेट बोर्ड ने देश के ४४ स्वतंत्रता दिवस के आयोजन से पहले यह आदेश जारी किया है।
हमसे तो बांग्लादेश ही भला !
Tuesday, March 25, 2014
Sunday, March 23, 2014
Double standards of Communists-Dharmvir Bharati (धर्मवीर भारती-कम्युनिस्ट दोमुंही नीति)
यह कहना अधिक उचित होगा कि मार्क्सवाद नहीं बल्कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और उसकी राजनीति हमें भारतीय जनता की आशाओं, आकांक्षाओं और संघर्षो से दूर, स्टालिन और मोलोतोव की विदेश नीतियों की मानसिक गुलामी लगने लगी थी।1942 में जब सारा देश अंग्रेजों के खिलाफ उठ खड़ा हुआ था उस समय ये लोग अंग्रेजों को रूसियों का साथी मानकर अंग्रेज सरकार को जनान्दोलन दबाने में मदद कर रहे थे। वे जनता की बात करते थे पर किस काल्पनिक जनता की, यह हमारी समझ में नहीं आता था। हमारी गली मुहल्ले की जो जनता थी उसका दर्द हम जानते थे।और शायद इसीलिए हम मार्क्स की मूल स्थापना कि "गरीब अमीर की नाबराबरी मिटनी चाहिए" इससे सहमत थे, पर ये भारतीय कम्युनिस्ट जो बेसिर पैर की जनवादी राजनीति और जनवादी साहित्य नीति बघार रहे थे, वह हमारे लिए अड्डेबाजी में मजाक का विषय बन गयी थी।उन्होंने उसी समय एक ओर सत्ता और प्रतिष्ठान का संरक्षण स्वीकार करने और दूसरी ओर जनसंघर्ष की बातें करने की जो दोमुंही नीति अपनायी थी उसका दुष्प्रभाव अभी तक स्पष्ट लक्षित होता था।-धर्मवीर भारती (धर्मवीर भारती की साहित्य साधना)
Gopal Singh Nepali-China (गोपाल सिंह नेपाली-चीन)
1962 के भारत चीन युद्ध के समय अपनी रचनाओं से जब हुंकार भरा तो चीन के रेडियो ने उन्हें बहुत बुरा-भला कहा किंतु वनमैन आर्मी की उपाधि से विभूषित कवि गोपाल सिंह नेपाली ने अपनी रचनाओं से संपूर्ण राष्ट्र के जनमानस को चीन के विरुद्ध उद्वेलित करते हुए लिखा-
शंकर की पुरी, चीन ने सेना को उताराचालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा।
तुम सा लहरों में बह लेता, तो मैं भी सत्ता गह लेताईमान बेचना चलता तो मैं भी महलों में रह लेतातुम राजनीति में लगे रहे, यहाँ लिखने में तल्लीन कलममेरा धन है स्वाधीन कलम।ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार सेचर्खा चलता है हाथों से शासन चलता है तलवार से।
Purana qila-Dharamvir Bharati (पुराना क़िला-धर्मवीर भारती)
[भारत के स्वातन्त्र्योत्तर इतिहास का सबसे पहला और सबसे बड़ा हादसा था-अक्तूबर 1962 में चीन का आक्रमण। उसने न केवल सारे देश को हतप्रभ कर दिया था, हमारी दु:खद पराजय ने अब तक पाले हुए सारे सपनों के मोहजाल को छिन्न-भिन्न कर दिया था और मानो एक ही चोट में नेहरू युग की सारी विसंगतियाँ उजागर हो गयी थीं और खुद नेहरू, जिन्हें सारा देश प्यार करता था, पक्षाघात से पीड़ित पड़े थे। विचित्र यह था कि इस भयानक शून्य को किन्हीं नये मूल्यों से या आदर्शों से भरने की चिन्ता करने के बजाय चिन्ता थी ‘नेहरू के बाद कौन?’ और सिसायत के खेल खेले जाने लगे थे। उस सारी भयावह परिस्थितियों में उभरा था यह बिंब-सन् ’63 में। कई महीनों के दौरान लिखी गयी थी यह कविता-‘पुराना क़िला’।]खा...मो..श !बोलो मत...एक भी आवाज़, एक भी सवाल, लबों की हल्की-सी जुम्बिश भी नहीं नहीं,एक हल्की-सी दबी हुई सिसकी भी नहीं !हर दीवार के कान हैंऔर दीवार के इस पार का हर कानदीवार के उस पार चुगलखोर मुँह बन जाता हैजहाँ शहंशाहहकीमों, नजूमियों, खोजों और नक्शानवीसों से घिरेअपनी ज़िंदगी की आख़िरी रात गुजार रहे हैं !ख़बरदार !हिलो मत !सजदे में झुकने वाला हर धड़ दुआ माँगते हुएसिर से अलग कर दिया जाएगाशहंशाह को भरोसा नहीं कि कौन दुआ माँगने वालाअपने लबादे में खंजर छुपा कर लाया हो !किले के बाहर रौंदी हुई फसलें, बिछी हुई लाशें, जले हुए गाँव, भुखमरे लोग :क्या तुम्हारी दुआ उन्हें लगी जो शहंशाह को लगेगी ?मौत किले के आँगन में आ चुकी हैऔर शहंशाह के नक्शानवीस अभी तजवीजें पेश कर रहे हैंकि किले की दीवारें ऊँची कर दी जाएँखाइयों में खौलता पानी दौडा दिया जाएफाटकों पर जहर-बुझे नेजे जड़ दिये जाएँअँधेरा, बिल्कुल अँधेरा कर दिया जाएअँधेरा घुप !कौन है जो चादर, अगरबत्ती, बेले के फूल और चिराग लाया हैसाजिश ! खतरा ! दौड़ो दौड़ो अलमबरदारोखंजर से टुकड़े-टुकड़े कर दो ये चादर, ये गजरे, ये चिरागमान लिया कि इस अभागिन के बाप, भाई, प्रेमी और बेटेशहंशाह की खामख्याली से ऊबड़खाबड़ घाटियों में जाकर खेत रहेपर इसे क्या हक है कि यहउनके मजार पर इस अँधेरी रात चिराग रक्खेउस टिमटिमाती रोशनी में मौत कोशहंशाह के कमरे तक जाती हुई पगडंडी दीख गयी तो ?न एक चिरागन एक जुम्बिशन एक आवाज़ख़ा मो श !कौन है जो अँधेरे में मुट्ठियाँ कसेहोठ भींचे एक शब्द के लिए छटपटाता है...ख़ ब र दा र...बा अदब...बा मुलाहिजा...रास्ता छोड़ोपीछे हटोजानते नहीं कौन जा रहे हैं ?हँसो मत बेअदब !दु:ख की घड़ी हैदीवाने-खास के खासुलखास विदूषक कतार बाँधे अपने गाँव लौट रहे हैं।ये हैं जिन्होंने दरबार को हर संकट में राहत दीकत्लगाह में लुढ़कते हर विद्रोही सिर कोइन्होंने गेंद की तरह उछाल कर दरबार को हँसायारियाया के आँसुओं से अभिनन्दन पिरोयेखिंची हुई खालों को ढोलक पर मढ़कर तुकबन्दियाँ बजायींअगर मरते वक्त भी ये जहाँपनाह से शिरोपेच और अपनी दक्षिणा लेने गयेतो इन पर खीजो मत-तरस खाओ !तुम्हें क्या मालूम कि ये बरसों पहले अपने कुटुम्बियोंपड़ोसियों और गाँववालों की फरियाद लेकर आये थेजहाँपनाह को असलियत बताने !इनके भयभीत देहातीपन ने जहाँपनाह की दिलबस्तगी कीऔर तब से ये भयभीत बने रहे दिलबस्तगी की खातिरहँसो मतइनके जरीदार दुपट्टों और बड़ी पागों पर !ये बड़े लोग हैं-छोटा-सा मुँह लेकर अपने गाँवों को लौटते हुएइनसे इनके कुटुम्बी, पड़ोसी, गाँववाले पूछेंगेकि क्या तुमने शहंशाह को असलियत बतायीतो ये किसमें मुँह छिपायेंगे बिना इन पागों और जरीदार दुपट्टों केपीछे हटो नामसझोकौन बेदर्द है जोमखौल में इनके दुपट्टे खींचता है, पगड़ी उछालता है !बा...अदबबा...मुलाहिजा !एक धुपधुपाती हुई बेडौल मोमबत्तीखुफिया सुरंगों, जमीदोज तहखानों, चोर-दरवाजों और टेढ़े-मेढ़े जीनों पर घुमायी जा रही हैदीवारों पर खुदे ये किसके पुराने नाम फिर से दर्ज किये जा रहे हैं ?ये उन अमीर उमरावों के नाम हैं जिन्होंने कभीमुहरें और पुखराजबच्चों के मुँह से छीने हुए कौरनीलम और हीरेऔरतों के बदन से खसोटे हुए जेवरचमड़े की मुहरबन्द थैलियों में भर करशहंशाह को पेशेनजर किये थे !उनसे किले की दीवारें मजबूत की गयींउनसे बेगमात के लिए बिल्लौरी हौज बनेउनसे दीवानखानों के लिए फानूस ढलवाये गयेउनसे मरमरी फर्शों पर इत्र का छिड़काव हुआउनसे इन्साफ के घंटे के लिए ठोस सोने की जंजीर ढलवायी गयीऔर अब उन तमान बदनीयत अमीर उमरा के नामकत्ल का परवाना भेजा जा रहा हैताकि खुदा के सामने पेशी के वक्तपाक नीयत शहंशाह के जमीर परकोई दाग न छूट जाएएक धुपधुपाती हुई मोमबत्तीबिल्लौरी हम्मामों, अन्धी सुरंगों, खुशनुमा फानूसों, खौफनाक तहखानोंइत्र धुले फर्शों, चोरदरवाजों में से घुमायी जा रही हैदीवारों पर खुदे पुराने नामों की शिनाख्त के लिएउनमें शहंशाह के हमप्याला हमनेवाला जिगरी दोस्तों के नाम हैं !गजर बजेगा मायूस आवाज मेंऔर सहर होते ही महल का मातमकदा खोल दिया जाएगा !लटके हुए काले परदे, खुली हुई पवित्र पुस्तकें !लोग मगर ज्यादा मुस्तैद हैं ताजपोशी के सरंजाम मेंपायताने बैठे हुए लोगों का मातम में झुका हुआ सिरताज पहनने के लिए उठने का अभ्यास करना चाहता है !मगर बादशाह ने हाथ के इशारे से लुहार बुलवाये हैंवे ताज को पीट-पीट कर चौड़ा कर रहे हैंकल सुबह जब ताज पहनने के लिए सिर एक-एक कर आएँगेतब ताज कहीं बड़ा लगेगा और सिर बहुत छोटेऔर एक-एक कर इन सिरों से ताजऔर इन धड़ों से सिर उतार दिये जाएँगेकल सुबह शहंशाह न होगापर बाद मदफन उस पुरमजाक बादशाह कायह आखिरी मजाक अदा होगाजिसे देख करहँसते-हँसते लोटपोट हो जाएगी वह तमाशबीन रियायाजो हँसना खिलखिलाना जाने कब का भूल चुकी है !या मेरे परवरदिगारमुझ पर रहम कर !बदनसीब खुसरू की आँखों में दागी गर्म सलाखों सेजियादा तकलीफेदेह है इस बेडौल असलियत को अपनी आँखों देखनाऔर इसके बाबत कुछ भी न कर पाना !काश कि मैं भी अपनी निगाहें फेर सकतामगर मैं क्या करूँ कि तूने मुझे निगाहें दीं कि मैं देखूँऔर मैं तेरे देने को झुठला नहीं पाता !मौत किले के आँगन में घूम रही हैऔर वे हैं कि अभी किले की दीवारें ऊँची कर रहे हैंखाइयों के पास कँटीले झाड़ बोये जा रहे हैं जिनकी जड़ेकब्र में दफन नौजवानों की पसलियों में फूटेंगीओ !तूने मुझे क्यों भेज दिया इस पुराने किले में इस अँधेरी रात :जहाँ मैं छटपटा रहा हूँउस बेचैन चश्मदीदी पुकार की तरह जिसे एक-एक शब्द के लिएमोहताज कर दिया गया हो !खा...मो..श !खबरदा...र !!
Saturday, March 22, 2014
Friday, March 21, 2014
Bahadhur Shah Zafar (न किसी की आँख का नूर हूँ: बहादुर शाह जफ़र)
न किसी की आँख का नूर हूँ, न किसी के दिल का क़रार हूँ
जो किसी के काम न आ सका, मैं वो एक मुश्ते-गुबार हूँ
न तो मैं किसी का हबीब हूँ, न तो मैं किसी का रकीब हूँ
जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ, जो उजड़ गया वो दयार हूँ
पए-फातिहा कोई आए क्यों, कोई चार फूल चढाये क्यों
कोई आके शम'अ जलाए क्यों, मैं वो बेकसी का मज़ार हूँ
मेरा रंग-रूप बिगड़ गया, मेरा यार मुझसे बिछड़ गया
जो चमन खिजां में उजड़ गया, मैं उसी की फस्ले-बहार हूँ
Wednesday, March 19, 2014
Colour of Grief (दुख का रंग)
दंगों में प्रभावित गुजराती मुसलमानों की पीड़ा से सदैव द्रवित होने वाले व्यक्तियों, संगठनों और दलों को इस्लामी जेहादियों की कट्टरता के शिकार तथा अपने देश में ही शरणार्थी कश्मीरी पंडितों का संताप क्यों नहीं दिखता ?
वैसे रक्त का रंग तो दोनों का लाल ही है पर एक के लिए खून जोर मारता है और दूसरे के लिए पानी हो जाता है, यह स्थान दोष है या इतिहास बोध की कमी या फिर रतौंधी रोग?
भला दुख का भी कोई रंग होता है?
चित्र: मंजीत बावा (टू-लिव )
Tuesday, March 18, 2014
Monday, March 17, 2014
1857 revolt-Durgadas Bandopadhyay
Most of the sources regarding the 1857 Uprising were written by British officials and civilians. From the Indian side we have more or less nothing as regards their experiences of the ‘event’.
The only exception is the memoir of Durgadas Bandopadhyay, which was published in Bengali in the 1920s. The first-ever translation of this memoir ensures a wide readership of a unique and valuable resource.
Durgadas, an assistant attached with the 8th Irregular Cavalry Regiment, provides a ‘loyalist account’ of 1857, describing the causes and the course of the Mutiny as well as his own personal role in the ‘great event’.
Most of the memoirs by the sahibs and memsahibs concentrate on three epic centres of the ‘Mutiny’ — Delhi, Lucknow and Kanpur. Durgadas’ story shifts the geographical focus to Rohilkhand, and provides detailed portrayals of the rebel leaders — a feature missing in the accounts of British officers.
Sunday, March 16, 2014
Micro to Macro dynamics (व्यष्टि से समष्टि का जुड़ाव)
कोई भी पर्व, सामाजिकता के उत्सव का ही प्रतीक है और परिवार उस सामूहिकता की पहली इकाई है. सो, ऐसे में परिवार की उपस्थिति स्वाभाविक रूप से उत्सवधर्मिता का अभाव का भाव को जन्म देता है. तिस पर भी पर्व के भाव को अभाव में न परिवर्तित करके उसे समभाव के साथ लेते हुए व्यष्टि को समष्टि से जोड़ना ही श्रेयस्कर है.
Holi-Kubernath Rai (होली-निषाद: -कुबेरनाथ राय)
उत्तर भारतीय त्योहार होली की विशिष्ट भंगिमा का मूल स्रोत निषाद स्वभाव ही है। दिन के लिए खाने को हो तो कल की फिक्र करने वाला जोरू का भाई!
'होली' त्योहार के अंदर, जिसे अब भी कुछ लोग चतुर्थ वर्ण का त्योहार कहते हैं। उस दिन चांडाल-स्पर्श पुण्य माना जाता है। ऐसा मानसिक भावात्मक खुलापन वाला त्योहार, निषाद संस्कारों की ही उपज है।
यह आदिम निषाद उनके संस्कारों में जब प्रबल और उन्मत्त हो उठता है तो ये भी दो बीघा बेचकर होली-दीवाली के दिन 'चमर नट' या नर्तकी का नाच कराते हैं, दावतें देते हैं और स्वयं भी छानते-फूँकते-पीते हैं।
-कुबेरनाथ राय (निषाद बाँसुरी)
Saturday, March 15, 2014
1857-Jawaharlal Nehru (1857-जवाहरलाल नेहरू)
1857 में ब्रिटेन की तरफ़ से क्रूरता के कहीं अधिक उदाहरण मिलते हैं, जिनको बयान तक नहीं किया गया है. ब्रिटेन की तरफ़ से होने वाली क्रूरता संगठित ब्रिटिश अफ़सरों की तरफ़ से होती थी जबकि इसी दौरान असंगठित लोगों की तरफ़ से की गई क्रूरता को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया है.
-जवाहरलाल नेहरू ('विश्व इतिहास की झलक' पुस्तक में)
Diary-Nirmal Verma (डायरी-निर्मल वर्मा)
मेरे साथ कुछ ऐसा होता है कि दिल्ली के बाहर जाते ही, जब मेरा बाकी लिखना छूट जाता है, अर्से से छूटी हुई डायरी शुरू हो जाती है। क्या यह एक तरह की क्षति-पूर्ति है, घर के अभाव को बेघर अनुभवों से भरने की लालसा ?
अगर ये यात्रा हैं, तो वे स्थानों की न होकर ‘मन’ की हैं, अन्त:-प्रक्रियाओं का लेखा-जोखा, जिन्हें मैंने कच्चे माल की तरह ही प्रस्तुत करना चाहा है। जो मेरा अतीत है, वह इन डायरियों का वर्तमान है इसलिए पुरानी पोथियों से उतारकर इन्हें दुबारा से टीपते हुए मेरा काल-बोध बार-बार हिचकोले खाने लगता है हम वर्तमान में अपने को दुबारा से व्यतीत कर रहे हैं, कि वर्तमान के इस क्षण में-जब मैं डायरी टीप रहा हूं-मैं एक दूसरा वर्तमान जी रहा हूँ। कभी-कभी तो मुझे गहरा अचरज होता था कि क्या यह सचमुच मेरे साथ घटा था, जिसे मैं टीप रहा हूं ?
-निर्मल वर्मा (धुंध से उठती धुन)
Friday, March 14, 2014
Secular word-Constitution
The founders of the Constitution deemed it appropriate to use the concept of secularism without spelling out its meaning. The word ‘secular’ was made part of the preamble of the Indian Constitution during the Emergency (1975-77). However, the word was left undefined.
During the Emergency, former Prime Minister Indira Gandhi made the word ‘secular’ part of the preamble of the Constitution but did not define it. When the Janata Party came to power in 1977 an attempt was made to define ‘secular republic’ to mean a ‘republic’ in which there is equal respect for all religions’. The Janata government had a majority in the Lok Sabha but was in a minority in the Rajya Sabha where it was voted down by the Congress.
Holi Festival in Metros (महानगरों में त्यौहार: होली)
जब तक दिल्ली में कुमाउंनी लोगों की बिरादरी गोल मार्केट से लेकर सरोजिनी नगर तक के सरकारी क्र्वाटरों में सीमित थी, वे अपनी होली परंपरागत ढंग से मना पाते थे, अब नहीं।
दिल्ली और मुंबई में बसे बिहारी अपना विशेष पर्व छठ मनाने के लिए अपने गांव-घर लौटने को ललकते हैं और भारतीय रेल को उनके लिए विशेषगाडि़यां चलानी पड़ती हैं। तो लोगों के अपने क्षेत्र और अपनी बिरादरियों से कट जाने तथा हर नगर, हर मोहल्ले में अनेक क्षेत्रों के लोगों के बस जाने के बाद हम अपने त्योहार परंपरागत ढंग से मनाने की और उनका अर्थ और संदर्भ बनाए रखने की स्थिति में रह नहीं गए हैं। फिर हमारी तथाकथित आधुनिकता ने हमारे लिए त्योहारों समेत हर परंपरागत चीज को पूरी तरह पिछड़ेपन से जोड़ दिया है। तो आज महानगरों में होली का उत्साह कहीं नजर आता है तो झोंपड़पट्टियों में ही। अपने मध्यवर्गीय मोहल्ले में मैंने इधर होली का रंग वर्ष प्रति वर्ष और अधिक फीका होता हुआ पाया है।मनोहर श्याम जोशी (आज का समाज)
Sunday, March 9, 2014
Saturday, March 8, 2014
Mughal Delhi to British Delhi (शाहजहांनाबाद से नई दिल्ली तक), Sandhya Times (06.03.2014)
शाहजहां सन् 1638 में आगरा से राजधानी को हटाकर दिल्ली ले आया और दिल्ली के सातवें नगर शाहजहांनाबाद की आधारशिला रखी । इसका प्रसिद्व दुर्ग लालकिला यमुना नदी के दाहिने किनारे पर शहर के पूर्वी छोर पर स्थित है सन् 1639 में बनना शुरू हुआ और नौ साल बाद पूरा हुआ । इसी लालकिले की प्राचीर से आजादी मिलने के बाद पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपना भाषण दिया था । सन् 1650 में शाहजहां ने अपनी विशाल जामे मस्जिद का निर्माण पूरा करवाया जो कि भारत की सबसे बड़ी मस्जिद है ।
जब अंग्रेजों ने 1857 के बाद दिल्ली पर दोबारा कब्जा किया तो इमारतों को नेस्तानाबूद कर दिया और उनकी जगह सैनिक बैरकें बना दी । इसी तरह, जामा मस्जिद और शाहजहांनाबाद के दूसरे हिस्सों को भी समतल कर दिया गया । इस तरह न केवल सैकड़ों रिहाइशी हवेलियों बल्कि शाहजहां की दौर की अकबराबादी मस्जिद भी को जमींदोज कर दिया गया । शहर में रेलवे लाइन के आगमन के साथ जहांआरा बेगम द्वारा चांदनी चैक के निर्मित बागों में भी इमारतें खड़ी कर दी गई और इस तरह शाहजहांनाबाद का स्थापत्य और शहरी स्वरूप हमेशा के लिए बदल गया ।
बीसवीं शताब्दी के अंत में भारत की अंग्रेजी हुकूमत ने दिल्ली के वजूद को राजधानी के तौर पर दोबारा कायम करने का फैसला लिया और इसलिए शाहजहांनाबाद और रिज के साथ उत्तरी छोर तक के कश्मीरी गेट इलाके में अस्थायी राजधानी बनाई गई । वाइसराय लाज, जहां अब दिल्ली विश्वविद्यालय है, के साथ अस्पताल, शैक्षिक संस्थान, स्मारक, अदालत और पुलिस मुख्यालय बनाए गए । एक तरह से, अंग्रेजों की सिविल लाइंस को मौजूदा दिल्ली के भीतर आठवां शहर कहा जा सकता है।
एडवर्ड लुटियंस के दिशानिर्देश में बीस के दशक में नियोजित और निर्मित दिल्ली की शाही सरकारी इमारतों, चौड़े-चौड़े रास्तों और आलीशान बंगलों को एक स्मारक की महत्वाकांक्षा के साथ बनाया गया था।
सन् 1947 में मिली आजादी के साथ हुए देश विभाजन के समय राजधानी होने के कारण दिल्ली में बेहतर ढांचागत सुविधाएं और अवसर थे । इस वजह से अपने ही देश में शरणार्थी बने नागरिकों ने भारी तादाद में दिल्ली में ही डेरा जमाया । सन् 1955 तक आते आते पुराना किले के इर्दगिर्द की जगह भरने लगी थी ।
पहले दिल्ली में एक मुख्य आयुक्त होता था जो कि पूरे प्रांत का कामकाज देखता था आजादी के बाद दिल्ली को भाग सी के तहत दर्जा देते हुए एक पृथक विधानसभा दी गई । सन् 1956 में राज्य पुर्नगठन आयोग की सिफारिशों के परिणमस्वरूप दिल्ली एक केंद्र शासित प्रदेश बन गई।
आज प्रमुख पर्यटक स्थलों पर बिकने वाले पोस्टकार्ड में तस्वीरें बदल चुकी है । अब लालकिला, कुतुब मीनार और इंडिया गेट की जगह मेट्रो रेल, अक्षरधाम मंदिर और बहाई मंदिर ने ले ली है । सन् 2002 में दिल्ली मेट्रो रेल कारपोरेशन की शाहदरा और तीस हजारी के बीच पहली बार चली मेट्रो रेल ने राजधानी के सार्वजनिक परिवहन की सूरत और सीरत दोनों बदल दी है। दिल्ली परिवहन निगम की बसों से पहले राजधानी में सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था के नाम पर ग्वालियर के सिंधियाओं की कंपनी जीएनआईटी ग्वालियर ऐंड नार्थ इंडिया टांसपोर्ट कंपनी की प्राइवेट बसें थी ।
आज मेट्रो का यह नेटवर्क बढ़कर 139 स्टेशनों के 190 किलोमीटर तक फैल चुका है, जहां 200 से अधिक ट्रेनें प्रतिदिन करीब 18 लाख यात्रियों को सुबह छह बजे से रात के ग्यारह बजे तक अपनी मंजिलों पर पहुंचाती है । आज दिल्ली मेट्रो राजधानी की सीमा से बाहर निकलकर नोएडा, गुड़गांव और गाजियाबाद तक पहुंच चुकी । एक तरह से मेट्रो ने करीब एक शताब्दी से उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम और पुराने शहर में बंटी दिल्ली को एक सूत्र में पिरो दिया है ।
प्रतिष्ठित मासिक पत्रिका रीडर्स डाइजेस्ट के ब्रिटिश संस्करण में (जुलाई 2011) नई दिल्ली स्थित स्वामीनारायण अक्षरधाम को 21 वीं सदी के सात आश्चर्यों में से एक के रूप में चयनित किया । केवल पांच साल में बनकर तैयार हुए और 100 एकड़ में फैले स्वामीनारायण अक्षरधाम परिसर का शुभारंभ नवंबर 2005 को हुआ। इसका मुख्य मंदिर मुख्य रूप से राजस्थान के गुलाबी बलुआ पत्थर से बनाया गया है और इसकी संरचना में लोहे का प्रयोग नहीं किया गया है । 141 फीट ऊंचे, 316 फुट चैड़े और 356 फुट लंबे इस मंदिर में प्रस्तर की अद्भुत हस्तकला दर्शनीय है । अब तक 25 लाख से अधिक आगंतुक इस लुभावनी कला और स्थापत्य कला के प्रतीक से अभिभूत होने के साथ समाज में शांति और सद्भाव को बढ़ावा देने वाले एक मूल्य आधारित जीवन के वैश्विक संदेश का प्रचार से प्रेरित है ।
रीडर्स डाइजेस्ट के शब्दों में, ताजमहल निर्विवाद रूप से भारत की वास्तुकला का प्रतीक था पर अब इस मुकाबले में अक्षरधाम मंदिर एक नया प्रतिद्वंदी है । जबकि बहाई मंदिर भारतीय धार्मिक सहिष्णुता का एक और प्रतीक है । मजेदार बात यह है कि सन् १८४४ में अपने उद्भव के साथ ही बहाई धर्म भारत से जुड़ा हुआ है । अनेकता में एकता का प्रचार करने वाले बहाउल्लाह इस धर्म में दीक्षित होने वाले सबसे पहले 18 व्यक्तियों में से एक व्यक्ति भारतीय था। सन् 1986 में दिल्ली में बने बहाई मंदिर (लोटस टेम्पल) में प्रतिदिन औसतन दस हजार पर्यटक आते हैं । आज बहाउल्लाह के नैतिक संदेश को देश में एक हजार से अधिक स्थानों पर बच्चों की कक्षाओं के माध्यम से फैलाया जा रहा है।
गालिब की जुबान में कहे तो दिल्ली की हस्ती मुनहसर कई हंगामों पर थी ।किला, चांदनी चौक, हर रोजा बाजार मस्जिद ए जामा का, हर हफते सैर जमना के पुल की, हर साल मेला फूल वालों का।ये पांचों बातें अब नहीं फिर कहो,दिल्ली कहां।
Friday, March 7, 2014
Word Power (शब्द-संबल)
पाठकों के शब्द ही संबल है.…लिखना सार्थक हो जाता है, अगर किसी एक पाठक के मन को भी बात छू गयी नहीं तो बाकी तो शब्दों का मकड़जाल है, जिसमें लिखने वाला ही जकड़ कर बस रह जाता है.… विचार को आगे करना, आखिर जीवन भी तो दूसरे को सिरा आगे बढ़ाने से ही बढ़ता है.…मैदान में ताली बजने वालों के महत्व से भला कौन इंकार कर सकता है
Bhāskarācārya
Bhāskarācārya, India’s celebrated mathematician and astronomer, was born in year 1114 in a family of scholars who cultivated Jyotisa as a family tradition for several generations. He mastered all the traditional branches of learning and made valuable contributions to mathematics and astronomy through his writings. Comprehensive treatment of the subject, careful organization of the material, lucid exposition and high poetic quality of his works made them near-canonical in the subsequent centuries. Bhāskarācārya works were studied throughout the country and several commentaries were composed on them.
Development Model of Bihar? (मॉडल-मॉडल का खेल)
यह तो ऐसे ही है कि देश-विदेश में 'बिहारी' सफल है पर बिहार का अगर कोई मॉडल है तो वह असफल और इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है, राज्य से बड़े पैमाने पर पढ़े-लिखों से लेकर गरीब-गुरबा का पलायन।
आखिर पूरी दुनिया में गर्जना करने वाले 'बिहारी' अपने घर में क्यों 'अबोल' हो जाते है।
अब इसका उत्तर और कोई नहीं स्वयं बिहारी ही दे सकते हैं कि बिहार में ऐसा 'क्यों' है?
Thursday, March 6, 2014
Tuesday, March 4, 2014
lines in lyrics
तेरे दामन से दूर जाना, इतना आसान कहाँ थाजब तेरा साया बिछड़ा, वजूद मेरा भी लापता थाअब दिल की दुश्वारियाँ को, कैसे -क्या बयान करुँ,जब तलक था तेरे साथ, मैं और मेरा साया एक थाजिंदगी तेरी याद, मरघट में सबसे ज्यादा आईपहले पता होता, कम से कम आँखे तो न भिगोते
Monday, March 3, 2014
Urdu and Indian Muslim (आधा गाँव-उर्दू)
भाषा संबंधी इस नज़रिये को चुनौती देकर राही मासूम रज़ा ने बड़े साहस का काम किया है। रज़ा अपने उपन्यास "आधा गाँव" में इस धारणा का बिना किसी लागलपेट के खण्डन करते हैं कि उर्दू भारत के सारे मुसलमानों की आम भाषा है।उपन्यास में पूरी साफगोई से यह बात स्पष्ट होती है कि आम मुसलमान जहाँ रह गया वहाँ की स्थानीय भाषा ही उसकी भाषा बन गयी, उर्दू केवल अभिजातवर्ग की ही भाषा है।मुस्लिम लीग के कुलीन चरित्र का यहां भण्डाफोड़ होता है। उपन्यास से इसकी कुछ बानगियाँ पेश की जा सकती हैं, जैसे फुन्नन मियाँ और वाहिद मियाँ के बीच का यह संवाद -''ई का भाई, तू हियाँ कइसे बइठ गयो?''''अरे, त कहीं अउर बैठ जाओ।''''क्यों बैठ जाऊँ मैं कहीं और।'' वाजिद दा ठेठ उर्दू में बोलने लगे।''हई ल्यौ, तूं त लग्यो उर्दू बोले।''यहाँ 'तूं त लग्यो उर्दू बोले' में जो तंज है, वह लीग के अभिजातवर्गीय चरित्र की बखिया उधेड़ता है। ऐसा ही तंज तन्नू द्वारा लीग के प्रचारको को दिये गये जवाब में मिलता है - ''आप लोगों ने तो उर्दू को मुसलमान कर दिया है।'' यानि उर्दू अभिजातवर्ग की भाषा है, केवल मुस्लिम अभिजातवर्ग की भाषा नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो उर्दू का आभिजात्य केवल मुसलमानों तक ही सीमित नहीं है। वह भारत के किसी भी धर्म के कुलीनों की भाषा हो सकने का माद्दा रखती है। आगे तन्नू व्यंग्य करता है - ''पाकिस्तान बनने के बाद आप इस उर्दू को यहां छोड़ जायेंगे या अपने साथ ले जायेंगे?'' जब परशुराम एम.एल.ए. बन जाता है और शहर की कुलीनों वाली भाषा बोलने लगता है तो फुन्नन मियाँ फिर व्यंग्य करते हैं - ''तैं त काँग्रेसी होके अपनी जबनियो भुल गया।''
Sunday, March 2, 2014
Sonam Kapoor-Bikni (सोनम की "बेवकूफियां")
अनिल कपूर को सोनम की बिकनी से कोई परेशानी नहीं!
(फिल्म "बेवकूफियां" में सोनम ने बिकनी पहनी है)
मतबल:-
भला होनी भी क्यों चाहिए! कलयुगी बाप से और क्या उम्मीद रखते हो भाई? वैसे भी अब कपड़ों का काम तन को ढकना कम और उघाड़ना ज्यादा हो गया है।
वैसे भी बाप बड़ा ना भईया, सबसे बड़ा रुपय्या तो कहावत सुनी ही होगी आपने।
यही तो विडंबना है कि सेंसर बोर्ड को बिकनी में 'उघड़ता शरीर' नहीं दिखता तो दिल्ली की निर्भया के बलात्कार पर आंसू बहाने वाले आमिर खान को ऐसी फिल्में नहीं दिखती।
इंडिया गेट पर मोमबत्ती जलाने वाले हो या ३१ दिसंबर की रात को पाँच तारा होटलों में जाम टकराने वाले, सरकार को कटघरे में खड़ा करके कहते हैं, समाज में महिलायों के खिलाफ अपराध बढ़ रहे हैं, कोई कुछ करता नहीं!
......................................................................................................
आज बेटी-बाप दोनों थे, करण के शो में स्टार टीवी पर।
अनिल कपूर को होमोसेक्सुअलिटी के बारे में पता नहीं था और बेटी सोनम इस पर उच्चतम न्यायालय के निर्णय से खफा थी।
और दोनों अंग्रेजी की तान में हिंदी समाज को गरिया रहे थे, उसके पिछड़ेपन पर।
अब यह करण जौहर का असर था या उनके दिल की तंमन्ना, यह तो राम ही जाने।
(06042014)
Saturday, March 1, 2014
Delhi a city (उजड़ते-बसते शहर का नाम है दिल्ली सांध्य टाइम्स, 27.02.2014)
देश की आजादी के बाद दिल्ली में बाहर से आने वाले व्यक्तियों को प्रमुख पर्यटक स्थलों पर बिकने वाले पोस्टकार्ड में लालकिला, कुतुब मीनार और राजपथ पर इंडिया गेट राजधानी के जीवंत प्रतीक थे । मानो इनके बिना किसी का दिल्ली दर्शन पूरा नहीं होता था । पर यह दिल्ली की एक अधूरी तस्वीर थी क्योंकि दुनिया में बहुत कम शहर ऐसे हैं जो दिल्ली की तरह अपने दीर्घकालीन अविच्छिन्न अस्तित्व एवं प्रतिष्ठा को बनाए रखने का दावा कर सकें । दिल्ली का इतिहास, शहर की तरह की रोचक है । ऐसा कहा जाता है कि दिल्ली, दमिशक और वाराणसी के साथ आज की दुनिया के सबसे पुराने शहरों में से एक है । इस शहर के इतिहास का सिरा भारतीय महाकाव्य महाभारत के समय तक जाता है, जिसके अनुसार, पांडवों ने इंद्रप्रस्थ के निर्माण किया था। समय का चक्र घुमा और अनेक राजाओं और सम्राटों ने दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया । दिल्ली का सफर लालकोट, किला राय पिथौरा, सिरी, जहांपनाह, तुगलकाबाद, फिरोजाबाद, दीनपनाह, शाहजहांनाबाद से होकर नई दिल्ली तक जारी है। समय के इस सफर में दिल्ली बदली, बढ़ी और बढ़ती जा रही है और उसका शाही रूतबा आज भी शहर के मिजाज में बरकरार है ।
आज नई दिल्ली की रायसीना की पहाड़ी पर बने राष्ट्रपति भवन के सामने खड़े होकर बारस्ता इंडिया गेट नजर आने वाला पुराना किला, वर्तमान से स्मृति को जोड़ता है । यहां से शहर देखने से दिमाग में कुछ बिम्ब उभरते हैं जैसे महाकाव्य का शहर, दूसरा सुल्तानों का शहर, तीसरा शाहजहांनाबाद और चौथा नई दिल्ली से आज की दिल्ली । इंद्रप्रस्थ की पहचान टीले पर खड़े 16वीं शताब्दी के किले और दीनपनाह से होती है, जिसे अब पुराना किला के नाम से जाना जाता है । दिल्ली में भूरे रंग से चित्रित मिट्टी के विशिष्ट बर्तनों के प्राचीन अवशेष इस बात का संकेत करती है कि यह करीब एक हजार ईसापूर्व समय का प्राचीन स्थल है । दिल्ली में सन् 1966 में कालका जी मन्दिर के पास स्थित बहाईपुर गाँव में मौर्य सम्राट अशोक महान के चट्टानों पर खुदे लघु शिलालेखों के बारे में आज कम लोग ही जानते हैं ।
दूसरे अदृश्य शहर के अवशेष आज की आधुनिक नई दिल्ली के फास्ट ट्रैक और बीआरटी कारिडोर पर चहुंओर बिखरे हुए मिलते हैं । महरौली, चिराग, हौजखास, अधचिनी, कोटला मुबारकपुर और खिरकी शहर के बीते हुए दौर की निशानी है जो कि 1982 में हुए एशियाई खेलों के दौरान खिलाडि़यों के लिए बनाए एशियाड विलेज, जहां अब दूरदर्शन का कार्यालय और सरकारी बाबूओं के घर हैं, फैशन हाउस, कलादीर्घाओं से लेकर साकेत में एक साथ बने अनेक शापिंग माल की चकाचौध में सिमट से गए हैं । दिल्ली में सन् 1982 में आयोजित किए गए एशियाई खेलों से दिल्ली में बसावट की प्रक्रिया में और तेजी आई । इस दौरान दिल्ली में बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य हुआ जिसके चलते इस इलाके में पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार से मजदूरों, राजमिस्त्रियों, दस्तकारों और दूसरी तरह के कामगारों का व्यापक स्तर पर प्रवेश हुआ । आठवें दशक के उस शुरूआती दौर में दिल्ली जैसे लोगो के लिए अवसरों की नगरी थी ।
हर साल लगने वाले प्रसिद्व हस्तशिल्प सूरजकुंड मेले में जाने वाले अधिकतर पर्यटक इस बात से अनजान है कि 10वीं शताब्दी में एक तोमर वंश के राजा ने अनंगपुर गांव में एक बांध का निर्माण किया था और सूरजकुंड उसी जल प्रणाली का एक भाग है । जबकि तोमर राजपूतों के दौर में ही पहली दिल्ली यानी 12 वीं शताब्दी का लालकोट बना जबकि पृथ्वीराज चौहान ने शहर को किले से आगे बढ़ाया । कुतुब मीनार और महरौली के आसपास आज भी इस किले के अवशेष देखे जा सकते हैं । जबकि कुतबुद्दीन ऐबक ने 12वीं सदी के अंतिम वर्ष में कुतुबमीनार की आधारशिला रखी जो भारत का सबसे ऊंचा बुर्ज (72.5 मीटर) है । अलाउद्दीन खिलजी के सीरी शहर के भग्न अवशेष हौजखास के इलाके में आज भी देखे जा सकते हैं जबकि गयासुद्दीन तुगलक ने दिल्ली के तीसरे किले बंद नगर तुगलकाबाद का निर्माण किया जो कि एक महानगर के बजाय एक गढ़ के रूप में बनाया गया था । फिरोजशाह टोपरा और मेरठ से अशोक के दो उत्कीर्ण किए गए स्तम्भ दिल्ली ले आया और उसमें से एक को अपनी राजधानी और दूसरे को रिज में लगवाया । आज तुगलकाबाद किले की जद में ही शहर का सबसे बड़ा शूटिंग रेंज है, जहां एशियाई खेलों से लेकर राष्ट्रमंडल खेलों की तीरदांजी और निशानेबाजी प्रतियोगिताओं का सफल आयोजन हुआ । आज यहां इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय से लेकर सार्क विश्वविद्यालय तक है ।
सैययदों और लोदी राजवंशों ने करीब सन् 1433 से करीब एक शताब्दी तक दिल्ली पर राज किया। उन्होंने कोई नया शहर तो नहीं बसाया पर फिर भी उनके समय में बने अनेक मकबरों और मस्जिदों से मौजूदा शहरी परिदृश्य को बदल दिया । आज की दिल्ली के उत्तरी छोर से दक्षिणी छोर, जहां कि आज कुकुरमुत्ते की तरह असंख्य फार्म हाउस उग आए हैं, तक लोदी वंश की इमारते इस बात की गवाह है । आज के प्रसिद्व लोदी गार्डन में सैययद लोदी कालीन इमारतें को बाग के रखवाली के साथ सहेजा गया है । आज दिल्ली में बौद्विक बहसों के बड़े केंद्र जैसे इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, इंडिया हैबिटैट सेंटर और इंडिया इस्लामिक सेंटर लोदी गार्डन की परिधि में ही है । सन् 1540 में शेरशाह सूरी ने हुमायूं को हराकर भारत से बेदखल कर दिया । शेरशाह ने एक और दिल्ली की स्थापना की । यह शहर शेरगढ़ के नाम से जाना गया, जिसे दीनपनाह के खंडहरों पर बनाया गया था । आज दिल्ली के चिडि़याघर के नजदीक स्थित पुराना किला में शेरगढ़ के अवशेष देखें जा सकते हैं ।
हुमायूं के दोबारा सत्ता पर काबिज होने के बाद उसने निर्माण कार्य पूरा करवाया और शेरगढ़ से शासन किया । हुमायूं के दीनापनाह, दिल्ली का छठा शहर, से लेकर शाहजहां तक तीन शताब्दी के कालखंड में मुगलों ने पूरी दिल्ली की इमारतों को भू परिदृश्य को परिवर्तित कर दिया । बाबर, हुमायूं और अकबर के मुगलिया दौर में निजामुद्दीन क्षेत्र में सर्वाधिक निर्माण कार्य हुआ जहां अनेक सराय, मकबरे वाले बाग और मस्जिदें बनाई गईं । हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह और दीनापनाह के किले पुराना किले के करीब मुगल सम्राट हुमायूं के मकबरे, फारसी वास्तुकला से प्रेरित मुगल शैली का पहला उदाहरण, के अलावा नीला गुम्बद के मकबरे, सब बुर्ज, चौसठ खम्बा, सुन्दरवाला परिसर, बताशेवाला परिसर, अफसारवाला परिसर, खान ए खाना और कई इमारतें बुलंद की गईं । एक तरह से यह इलाका शाहजहांनाबाद से पूर्व मुगल दौर की दिल्ली था ।
Subscribe to:
Posts (Atom)
First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान
कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...