यह कहना अधिक उचित होगा कि मार्क्सवाद नहीं बल्कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और उसकी राजनीति हमें भारतीय जनता की आशाओं, आकांक्षाओं और संघर्षो से दूर, स्टालिन और मोलोतोव की विदेश नीतियों की मानसिक गुलामी लगने लगी थी।1942 में जब सारा देश अंग्रेजों के खिलाफ उठ खड़ा हुआ था उस समय ये लोग अंग्रेजों को रूसियों का साथी मानकर अंग्रेज सरकार को जनान्दोलन दबाने में मदद कर रहे थे। वे जनता की बात करते थे पर किस काल्पनिक जनता की, यह हमारी समझ में नहीं आता था। हमारी गली मुहल्ले की जो जनता थी उसका दर्द हम जानते थे।और शायद इसीलिए हम मार्क्स की मूल स्थापना कि "गरीब अमीर की नाबराबरी मिटनी चाहिए" इससे सहमत थे, पर ये भारतीय कम्युनिस्ट जो बेसिर पैर की जनवादी राजनीति और जनवादी साहित्य नीति बघार रहे थे, वह हमारे लिए अड्डेबाजी में मजाक का विषय बन गयी थी।उन्होंने उसी समय एक ओर सत्ता और प्रतिष्ठान का संरक्षण स्वीकार करने और दूसरी ओर जनसंघर्ष की बातें करने की जो दोमुंही नीति अपनायी थी उसका दुष्प्रभाव अभी तक स्पष्ट लक्षित होता था।-धर्मवीर भारती (धर्मवीर भारती की साहित्य साधना)
Sunday, March 23, 2014
Double standards of Communists-Dharmvir Bharati (धर्मवीर भारती-कम्युनिस्ट दोमुंही नीति)
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