उत्तर भारतीय त्योहार होली की विशिष्ट भंगिमा का मूल स्रोत निषाद स्वभाव ही है। दिन के लिए खाने को हो तो कल की फिक्र करने वाला जोरू का भाई!
'होली' त्योहार के अंदर, जिसे अब भी कुछ लोग चतुर्थ वर्ण का त्योहार कहते हैं। उस दिन चांडाल-स्पर्श पुण्य माना जाता है। ऐसा मानसिक भावात्मक खुलापन वाला त्योहार, निषाद संस्कारों की ही उपज है।
यह आदिम निषाद उनके संस्कारों में जब प्रबल और उन्मत्त हो उठता है तो ये भी दो बीघा बेचकर होली-दीवाली के दिन 'चमर नट' या नर्तकी का नाच कराते हैं, दावतें देते हैं और स्वयं भी छानते-फूँकते-पीते हैं।
-कुबेरनाथ राय (निषाद बाँसुरी)
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