भाषा संबंधी इस नज़रिये को चुनौती देकर राही मासूम रज़ा ने बड़े साहस का काम किया है। रज़ा अपने उपन्यास "आधा गाँव" में इस धारणा का बिना किसी लागलपेट के खण्डन करते हैं कि उर्दू भारत के सारे मुसलमानों की आम भाषा है।उपन्यास में पूरी साफगोई से यह बात स्पष्ट होती है कि आम मुसलमान जहाँ रह गया वहाँ की स्थानीय भाषा ही उसकी भाषा बन गयी, उर्दू केवल अभिजातवर्ग की ही भाषा है।मुस्लिम लीग के कुलीन चरित्र का यहां भण्डाफोड़ होता है। उपन्यास से इसकी कुछ बानगियाँ पेश की जा सकती हैं, जैसे फुन्नन मियाँ और वाहिद मियाँ के बीच का यह संवाद -''ई का भाई, तू हियाँ कइसे बइठ गयो?''''अरे, त कहीं अउर बैठ जाओ।''''क्यों बैठ जाऊँ मैं कहीं और।'' वाजिद दा ठेठ उर्दू में बोलने लगे।''हई ल्यौ, तूं त लग्यो उर्दू बोले।''यहाँ 'तूं त लग्यो उर्दू बोले' में जो तंज है, वह लीग के अभिजातवर्गीय चरित्र की बखिया उधेड़ता है। ऐसा ही तंज तन्नू द्वारा लीग के प्रचारको को दिये गये जवाब में मिलता है - ''आप लोगों ने तो उर्दू को मुसलमान कर दिया है।'' यानि उर्दू अभिजातवर्ग की भाषा है, केवल मुस्लिम अभिजातवर्ग की भाषा नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो उर्दू का आभिजात्य केवल मुसलमानों तक ही सीमित नहीं है। वह भारत के किसी भी धर्म के कुलीनों की भाषा हो सकने का माद्दा रखती है। आगे तन्नू व्यंग्य करता है - ''पाकिस्तान बनने के बाद आप इस उर्दू को यहां छोड़ जायेंगे या अपने साथ ले जायेंगे?'' जब परशुराम एम.एल.ए. बन जाता है और शहर की कुलीनों वाली भाषा बोलने लगता है तो फुन्नन मियाँ फिर व्यंग्य करते हैं - ''तैं त काँग्रेसी होके अपनी जबनियो भुल गया।''
Monday, March 3, 2014
Urdu and Indian Muslim (आधा गाँव-उर्दू)
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