फ्रांस की सबसे मौलिक अन्तर्दृष्टिसंपन्न चिन्तक सिमोन वेल कहा करती थीं कि आधुनिक जीवन की सबसे भयानक, असहनीय और अक्षम्य देन ‘आत्मा-उन्मूलन’ का बोध है। यह एक ऐसा वेस्टलैंड, आन्तरिक मरुस्थल है, जहाँ मनुष्य के समस्त संरक्षण स्थल-ईश्वर, परंपरा अतीत, प्रकृति-जो एक समय उसके आत्म को गठित और रूपायित करते थे, उससे छूटते जाते हैं। वह स्वयं अपने आत्म से निर्वासित हो जाता है, जो आत्म-उन्मूलन की चरमावस्था है।
अजीब बात है कि यह चरमावस्था, जो अपने में काफी ‘एबनॉर्मल’ है आज हम भारतवासियों की सामान्य अवस्था बन गयी है। आत्म-उन्मूलन का त्रास अब ‘त्रास’ भी नहीं रहा, वह हमारे दैनिक जीवन का अभ्यास बन चुका है। अक्सर वही चीज़ जो सर्वव्यापी है, हमें आँखों से दिखायी नहीं देती।
ऊपर की बीमारियाँ दिखायी देती हैं, किन्तु जो कीड़ा हमारे अस्तित्व की जड़ से चिपका है, जिससे समस्त व्याधियों का जन्म होता है-आत्मशून्यता का अन्धकार उसे शब्द देने के लिए जिस आत्मबोध की जरूरत है, हम आज उससे भी वंचित हो गए हैं।
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