महाभारत और रामायण के बिना भारतीय संस्कृति के मूल चरित्र के संबंध में कुछ भी कहना सारहीन होगा। किसी जाति की एपिक-गाथाएँ और महाकाव्य अपनी प्रभाव शक्ति में उसके ‘धर्मग्रंथों’ से कम महत्वपूर्ण नहीं होते। भारतीय परंपरा में तो एक को दूसरे से अलग करना ही असंभव होगा। रामायण और महाभारत की काव्यात्मकता उतनी ही प्रखर और ओजपूर्ण है, जितनी उनकी आध्यात्मिक गहनता (यह आकस्मिक नहीं है, कि गीता का प्रवचन युद्ध की छाया तले दिया गया था, किसी तपोवन के मनोरम परिवेश में नहीं)।
भारतीय संस्कृति की ये महान् काव्य रचनाएँ न तो ओल्ड टेस्टामेंट और कुरान की तरह निरी धर्म-पुस्तकें और आचार-संहिताएँ हैं, न ग्रीक महाकाव्यों-ईलियड और ओडिसी- की तरह ‘सेक्यूलर’ साहित्यिक कृतियाँ हैं। वे दोनों हैं और दोनों में से एक भी नहीं हैं।
वे मनुष्य को उसकी समग्रता में, उसके उदात्त और पाशविक, गौरवपूर्ण और घृणास्पद, उजले और गँदले- उसके समस्त पक्षों को अपने प्रवाह में समेटकर बहती हैं। कला में सौंदर्य का आस्वादन और सत्य की बीहड़ खोज कोई अलग-अलग अनुभूतियाँ न होकर एक अखंडित और विराट अनुभव का साक्ष्य बन जाती है।
-निर्मल वर्मा (दूसरे शब्दों में)
No comments:
Post a Comment