कुछ दिन पहले प्रेस क्लब में एक परिचित पर अब अपरिचित महिला पत्रकार, जो अब एक माँ भी बन चुकी है, को सिगरेट के छल्लो को हवा में उड़ाते देखा तो मानो आँखो को यकीं ही नहीं हुआ।
पत्रकारिता के अपने आरंभिक दिनों में इस लड़की को देखकर मुझे हमेशा फ़िल्म हीरोइन नंदा, अब दिवंगत, का अनायास स्मरण हो आता था। लगता था कि अब भी हिंदी पत्रकारिता में सक्रिय महिलाओं में 'स्त्री' अंश शेष है।
फिर राजधानी में २०-२३ साल की पत्रकारिता को करीब से देखने पर ध्यान आया कि पता नहीं क्यों एक राज्य विशेष की लड़कियों को दिल्ली के पत्रकारिता संसार में आकर अपना पेशेवर कैरियर संवारते- संवारते घर परिवार के संस्कार छोड़ देती है। अब आप इसे मध्यम वर्गीय चेतना भी कह सकते हो और कामरेडों के ख्याल से मध्यम वर्गीय स्त्री विरोधी नजरिया भी।
शायद ऐसी लड़कियां जिन्होंने अपने जिले से बाहर कदम नही रखा, वे देश की राजधानी की चकाचौंध में खो गयी, विलीन हो गया उनका मूल व्यक्तित्व और रह गया महानगर का फोटोकॉपी जीवन, जिसमें घर-गॉव की मीठी की सौंधी खुशबू और देस का रंग गायब था।
साथ ही जीवन के उत्तरार्ध में सभी को इसकी कीमत चुकाते हुए भी देखता हूँ, किसी का परिवार नहीं बसा, किसी का बसा तो वैवाहिक जीवन क्षणभंगुर रहा, कोई निसंतान है तो कोई मानो सबसे अलग रहने को मजबूर।
पता नहीं यह उनकी बदनीयती का परिणाम है या नियति का। आधुनिकता संसार में एकल की दौड़ में छूटा घर-परिवार, न इधर के रहे न उधर कुछ रहा।
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