मेरे साथ कुछ ऐसा होता है कि दिल्ली के बाहर जाते ही, जब मेरा बाकी लिखना छूट जाता है, अर्से से छूटी हुई डायरी शुरू हो जाती है। क्या यह एक तरह की क्षति-पूर्ति है, घर के अभाव को बेघर अनुभवों से भरने की लालसा ?
अगर ये यात्रा हैं, तो वे स्थानों की न होकर ‘मन’ की हैं, अन्त:-प्रक्रियाओं का लेखा-जोखा, जिन्हें मैंने कच्चे माल की तरह ही प्रस्तुत करना चाहा है। जो मेरा अतीत है, वह इन डायरियों का वर्तमान है इसलिए पुरानी पोथियों से उतारकर इन्हें दुबारा से टीपते हुए मेरा काल-बोध बार-बार हिचकोले खाने लगता है हम वर्तमान में अपने को दुबारा से व्यतीत कर रहे हैं, कि वर्तमान के इस क्षण में-जब मैं डायरी टीप रहा हूं-मैं एक दूसरा वर्तमान जी रहा हूँ। कभी-कभी तो मुझे गहरा अचरज होता था कि क्या यह सचमुच मेरे साथ घटा था, जिसे मैं टीप रहा हूं ?
-निर्मल वर्मा (धुंध से उठती धुन)
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