भवानी प्रसाद मिश्र अपनी कविता में उस क्रांतिकारी भारत को खोजते रहे जो पश्चिमी अंधड़ों में भूल-भटक गया है। याद करें तो यही लड़ाई गांधी, रवींद्रनाथ ठाकुर और कला के मोर्चे पर आनंद कुमार स्वामी भी लड़ रहे थे। धर्म के मोर्चे पर इसे विवेकानंद ने लड़ा था। ये वे स्वदेशी लड़ाइयां थीं, साम्राज्यवादी आधुनिकता जिन्हें आज भी उखाड़ फेंकना चाहती है। मैकाले के वंशजों की विपुल तादाद के बीच इन ठिकानों पर खड़े होना और लड़ना जिन कुछेक के लिए दीवानगी से कुछ कम नहीं था, भवानी प्रसाद मिश्र उनमें सबसे विरल योद्धा थे। उनकी कविता में उनकी यह मुद्रा कभी भी निस्तेज नहीं होती बल्कि रोज-रोज उसकी तेजस्विता का सौंदर्य बढ़ता ही जाता है। न उसके घुटने मुड़ते हैं, न रीढ़ झुकती है। न चित्त भयभीत होता है और न आंखें मुंदतीं या झपकती हैं।
आश्चर्य नहीं कि इसीलिए एक कवि के रूप में श्रोता-समाजों के बीच पहले लोकप्रिय हुए, कवियों और आलोचकों तक तो उनका नाम लगभग बीस-इक्कीस साल बाद पहुंचा। बहुत कुछ कबीर की तरह जो जनता से होकर साहित्यिक दुनिया के बीच कदाचित कुछ देर से पहुंचे।
आज स्थिति उलटी है। अव्वल तो कवि अपने जन-समाज के बीच पहुंचना ही नहीं चाहता और जो पहुंच गए हैं उन कवियों को संदेह की निगाह से देखता है, उनकी रेटिंग भी घटा देता है। हिंदी कविता और कवियों की इस मानसिकता ने दोनों के बीच दुर्गम खाइयां खोद दी हैं।
भवानी प्रसाद मिश्र की कविता ने खुद अपने लिए जो चारित्रिक शील तय किया वह जमाने के सारे कवियों से कुछ भिन्न था- यह कि तेरी भर न हो तो कह/और सादे ढंग से बहते बने तो बह/जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख/और इसके बाद भी/हमसे बड़ा तू दिख।
-विजय बहादुर सिंह (जनसत्ता 20 फरवरी, 2013)
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