ये लाल रँग कब मुझे छोड़ेगा
आज प्रेस क्लब में चुनावी सरगर्मी में एक साथी टीवी पत्रकार से रोचक टिप्पणी सुनने को मिली,"दिन में लाला की नौकरी रात में दो पैग के बाद सब लाल"
तो अनायस ही कबीर की पंक्तियां याद आ गई,
लाली मेरे लाल की, जित देखों तित लाल ।
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल ॥
आज ऐसे अनेक मुश्किल और ज्वलंत विषय हैं, जिनसे सीधे जूझने की बजाय समाज का कथित बुद्धिजीवी वर्ग बगल से गुजरने में ही वीरता समझता है । सरकारी सुख-सुविधाओं और प्रतिष्ठा हासिल करने के लिए शतरमुर्गी रवैए को अपनाने वाले तथा लाल,हरे और भगवा रंग की रंतौधी के शिकार बुद्धिजीवी तबके की स्थिति पर रघुवीर सहाय की इन पंक्तियों से सटीक कुछ नहीं कि
खंडन लोग चाहते है याकि मंडन
या फिर अनुवाद का लिसलिसाता भक्ति से,
स्वाधीन इस देश में
चौकते हैं लोग एक स्वाधीन व्यक्ति से ।
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