Sunday, March 31, 2013

Indian Muslim:Abdulrahim khankhana

अकबर के नवरत्नों में एक अब्दुर्ररहीम खानखाना अपने जीवन की संझाबेला में वे चित्रकूट आ गए और भगवान राम की भक्ति करने लगे।
चित्रकूट में रमि रहे रहिमन अवधनरेश,
जा पर विपदा परत है, सो आवत एहि देश।
राम और कृष्ण दोनों के प्रति ही रहीम के मन में गहरा अनुराग था। वे मुसलमान थे लेकिन उन्होंने सच्चे अर्थों में भारत की सहिष्णु परंपरा का अवगाहन किया। उनका निर्मल मन सदा ही राजनीति के छल-प्रपंचों से दूर भगवद्दभक्ति में रमता था। यही कारण है कि जो पद, दोहे और रचनाएं वह कर गए वह हमारी महान और समृद्ध विरासत का सुंदर परिचय है।
भारतीय जीवनदर्शन और मूल्यों को रहीम ने व्यक्तिगत जीवन में न सिर्फ जिया वरन् उसे शब्द देकर हमेशा के लिए अमर कर दिया। एक बार किसी ने रहीम से पूछा कि यह हाथी अपने सिर पर धूल क्यों डालता है तो रहीम ने उसे उत्तर दिया- यह उस रजकण को ढूंढता फिरता है जिसका स्पर्श पाकर अहिल्या तर गई थी।
धूर धरत निज सीस पर, कहु रहीम केहि काज।
जेहि रज मुनिपत्नी तरी, सो ढूंढत गजराज।

Life: Rust

"As rust, sprung from iron, eats itself away when arisen, even so his own deeds lead the transgressor to states of woe…."
Buddha, in Dhammapada

Tomb of Tajbibi Sirhind

छैल जो छबीला, सब रंग में रंगीला
बड़ा चित्त का अड़ीला, कहूं देवतों से न्यारा है।
माल गले सोहै, नाक-मोती सेत जो है कान,
कुण्डल मन मोहै, लाल मुकुट सिर धारा है।
दुष्टजन मारे, सब संत जो उबारे ताज,
चित्त में निहारे प्रन, प्रीति करन वारा है।
नन्दजू का प्यारा, जिन कंस को पछारा,
वह वृन्दावन वारा, कृष्ण साहेब हमारा है।।
सुनो दिल जानी, मेरे दिल की कहानी तुम,
दस्त ही बिकानी, बदनामी भी सहूंगी मैं।
देवपूजा ठानी मैं, नमाज हूं भुलानी,
तजे कलमा-कुरान साड़े गुननि गहूंगी मैं।।
नन्द के कुमार, कुरबान तेरी सुरत पै,
हूं तो मुगलानी, हिंदुआनी बन रहूंगी मैं।।
(ताज़बीबी का एक प्रसिद्ध पद)
Some towns, especially old towns, carry about them a distinct aura. One may have never lived in them, and yet their mere mention brings swiftly to mind a host of images, associations, slivers of history. Consider Sirhind, the small town that lies in the plains of the Punjab, on the great medieval highway that connected Delhi to Lahore.
Not many might give thought to the origins of its name—it comes probably, as seen through Muslim invaders’ eyes, from ‘sar-i hind’, meaning, roughly, the very ‘gateway to Hindustan’—but most Punjabis know it as the place where the two younger sons of Guru Gobind Singh were martyred.
Little wonder then that a 19th century French traveller, who passed through Sirhind, described the town as "the biggest ruin I have ever seen in India after Delhi`85 ruins which cover the ground for a space of more than 15 square kilometers".
Time was when the town boasted of as many as 360 monuments, they say: mosques, cenotaphs, gardens, caravanserais, wells, and gardens. Very few of them have survived, but whatever have—apparently 37 in number—are documented here.
The names of these are a study in themselves: the tombs of Taj Bibi, Sheikh Ahmed Sirhindi, Haji Muhammad, Subhan, Khwaja Muhammad Naqshband, Ustad and Shagird, Muhammad Isma’il, Shah Zaman, for instance; mosques like Sadna Qasai, Lal Masjid, inside the Rauza Sharif; gardens like Jahazi Mahal, Aam Khas; and so on.
Cities rise and decline. But everything, including ruins, needs to be documented and preserved. The town of Sirhind may no longer be the "envy of China", nor its environs be "like the locks of the cheek of graces", or its dust like "collyrium for the eyes of soul", as an old Persian poets put it. But it remains a place deserving of careful, close study. And it is precisely this that Subhash Parihar has done in his densely researched recent work on the History and Architectural Remains of Sirhind.
And so many of those that have not crumbled to the ground have trees and vines and weeds growing though their cracks. "Ug rahaa hai dar-o deewaar pe sabzaa, Ghalib", as the poet said.
http://www.tribuneindia.com/2007/20070415/spectrum/art.htm

Saturday, March 30, 2013

Thomas Metcalfe House

Thomas Metcalfe's private residence on the banks of the Yamuna River. In this house he stored his books, all of which were destroyed during the Indian Uprising in 1857-8. This building contained an ingenious series of underground rooms called taikhanas that were used during the hot season. A picture of one of the taikhanas, which served as a billiard room, is visible in the top right corner of the enlarged image.
http://www.bl.uk/reshelp/findhelprestype/prdraw/asianprintsdrawings/delhibook/delhihouse/index.html

Delhi Book:Thomas Theophilus Metcalfe

In 1844 the daughters of Thomas Theophilus Metcalfe received a gift from their father. While working in India as the Governor-General's Agent at the Imperial court of the Mughal Emperor, Metcalfe assembled an album containing 120 paintings by Indian artists.
He wrote his own descriptive text alongside these paintings, and sent the precious 'Delhi Book' to his children in England. This cherished possession remained in the family for almost 150 years, and is now in the collections of the British Library, London.
Included in the Delhi Book is a spectacular painting, showing the Mughal Emperor, Bahadur Shah (1838-58), proceeding in state to celebrate the Muslim 'Id festival. Metcalfe accompanied the Emperor on this procession, and can be seen riding atop an elephant.
Most of the Delhi Book's paintings show monuments and houses in Delhi, some of which are no longer standing. Other entries include a portrait of the Mughal Emperor, and an Urdu poem composed by the Emperor and dedicated to Metcalfe.
It is a fascinating document on one man's life in 19th century Delhi, and a wonderful collections of Company drawings.
http://www.bl.uk/reshelp/findhelprestype/prdraw/asianprintsdrawings/delhibook/index.html

Perseverance

Patience and Perseverance is the key as bad times don't last forever.

Friday, March 29, 2013

Delhi:Delhities

ऐतिहासिक भवनों का शहर दिल्ली, किसी जमाने में यहां पर राज करने वाले राजवंशों शासन की कहानी, उनसे जुड़ी घटनाओं और तत्कालीन समय की वास्तुकला की एक जीवंत झांकी हैं जो कि आज देश की राजधानी के नाते भारतीय राष्ट्रीयता का एक प्रतीक बन गई है ।
पर हैरानी कि बात यह है कि इस ऐतिहासिक शहर में पूरी शान शौकत और आराम से रहने वाले अधिकतर नागरिकों की सोच यह है कि इस शहर की ऐतिहासिक धरोहर के संरक्षण का दायित्व उनका न होकर सरकार का है ।
शायद यही कारण है कि इंडिया गेट के दोनों तरफ बने बागों में जुटने वाली लोगों की भीड़ हो या लालकिला के बाहर लगने वाली कतार उनका इस शहर से रिश्ता दिल का नहीं है और यह बात कोई दिल्लगी नहीं, हकीकत है । जिससे शायद ही कोई दिल्ली वाला इंकार कर सकें ।

Khuswant Singh on women

‘मैं कभी भी उस भारतीय आदर्श को मान नहीं पाया कि महिलाओं को मां, बहन या बेटी के तौर पर देखें। उनकी चाहे जो उम्र रही हो, मेरे लिए वे वासना की वस्तु रहीं और हैं।’
-खुशवंत सिंह
अपनी नई किताब में ‘खुशवंतनामा: दी लेसन्स ऑफ माई लाइफ’में

Khuswantnama-Khuswant Singh

हम अपने विचारों एवं आदर्शों के विपरीत विचार पेश करने वाली इतिहास की किताबों को नुक्सान पहुंचाते हैं। हम फिल्मों पर प्रतिबंध लगाते हैं और अपने खिलाफ लिखने वाले पत्रकारों को पीटते हैं। हम इस बढ़ रही असहिष्णुता के जिम्मेदार हैं और इसे रोकने लिए कुछ नहीं करने वाले लोग भी इसमें शामिल हैं।’
खुशवंत सिंह, अपनी नई किताब में ‘खुशवंतनामा: दी लेसन्स ऑफ माई लाइफ’ में

archeological findings of fatehpur sikri:museum

विश्वदाय स्मारक फतेहपुर सीकरी क्षेत्र में वर्ष 1978 में एएसआइ ने उत्खनन कराया था। इस खुदाई में नौवीं और दसवीं सदी के 1200 पुरावशेष निकले थे। जिनमें प्राचीन मूर्तियां, बर्तन आदि शामिल थे। इनको रखने के लिए तब आगरा में उचित व्यवस्था नहीं थी, इसलिए इन्हें दिल्ली के पुराना किला म्यूजियम में रखवा दिया गया था। इसके बाद वर्ष 1999-2000 में एएसआइ ने फिर खुदाई कराई, इसमें प्राचीन काल की दर्जनों मूर्तियां निकली थीं। इनमें भी 10वीं शताब्दी की यक्षिणी की एक अद्वितीय प्रतिमा शामिल थी। कुछ मूर्तियां जैन धर्म की थीं। इनमें से भी ज्यादातर पुरावशेषों को अध्ययन के लिए दिल्ली भेजा गया था।
तब इनके प्रदर्शन के लिए फतेहपुर सीकरी में ही म्यूजियम बनवाया गया था। परंतु पुरावशेषों के दिल्ली से न आने चलते म्यूजियम अब तक शुरू नहीं हो पाया।
अब उत्खनन में जमीन के गर्भ से निकले इतिहास की कहानी बयां करने वाले 1200 से ज्यादा पुरावशेष वापस आगरा लौटेंगे। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (एएसआइ) ने इसकी कागजी कार्रवाई कर ली है। अब इन पुरावशेषों के प्रदर्शन के लिए विभाग फतेहपुर सीकरी के म्यूजियम को अगले माह से शुरू करने की तैयारी कर रहा है।
पुरावशेषों के प्रदर्शन के लिए सीकरी म्यूजियम की कार्यो को अंतिम रूप दिया जा रहा है। योजना के तहत म्यूजियम में चार मुख्य दीर्घाएं बनेंगी। एक दीर्घा में सीकरी क्षेत्र की गुफाओं में अंकित भित्ति चित्रों के फोटोग्राफ प्रदर्शित किए जाएंगे। जबकि एक में मुगल सम्राट अकबर के व्यक्तित्व को दर्शाया जाएगा। इसमें अकबर के पुराने चित्र, सिक्के, अस्त्र-शस्त्र आदि प्रदर्शित होंगे।

Language-Literature: kunwar narayan

साम्राज्य बिखरते हैं, लेकिन साहित्य कभी नहीं बिखरता। किसी भी देश के भौतिक विकास पर नजर डालें तो यह टूटता हुआ सा लग भी सकता है, लेकिन साहित्य में निरंतरता बनी रहती है। बड़े परिवर्तनों या विश्व युद्धों के बाद इतिहास लेखन विशेष जिम्मेदारी के साथ होनी चाहिए।
कुंवर नारायण, प्रसिद्ध हिन्दी कवि-आलोचक, साहित्य अकादमी के स्थापना दिवस पर

Thursday, March 28, 2013

Do you know:River (आपने देखी है क्या कोई ऐसी नदी ? )



जल में समेटे कई रंग
नदी करती है अपने संग
कई बातें 
कुछ दूसरों की
कुछ अपनी
आपने देखी है क्या
कोई ऐसी नदी ?
उसमें डुबकी लगाने वाले 
क्या खुद में ड़ूब पाते हैं 
नाप पाते है क्या अंतस की गहराई
आपने देखी है क्या
कोई ऐसी नदी ?
सब किनारों से ही नमस्कार करके
किनारे हो जाते हैं 
यह जानकर ज्यादा गहराई में जाने पर
अपने डूबने का खतरा है
आपने देखी है क्या
कोई ऐसी नदी ?
नदी तो मिल जाती है
सागर में
पूरी तरह डूबकर
एक हो जाती है
एकाकार हो जाती है
फिर हम ही क्यों झिझककर
किनारे ही अटक जाते है?
आपने देखी है क्या
कोई ऐसी नदी?

Writing of Subhas chandra bose

Jiyo mere:Agehya

जियो, मेरे आज़ाद देश की शानदार इमारतो
जिनकी साहिबी टोपनुमा छतों पर गौरव ध्वज तिरंगा फहरता है
लेकिन जिनके शौचालयों में व्यवस्था नहीं है
कि निवृत्त होकर हाथ धो सकें।
(पुरखे तो हाथ धोते थे न? आज़ादी ही से हाथ धो लेंगे, तो कैसा?)
जियो, मेरे आज़ाद देश के शानदार शासको
जिनकी साहिबी भेजे वाली देशी खोपड़ियों पर
चिट्टी दूधिया टोपियाँ फब दिखाती हैं,
जिनके बाथरूम की संदली, अँगूरी, चंपई, फ़ाख्तई
रंग की बेसिनी, नहानी, चौकी तक की तहज़ीब
सब में दिखता है अँग्रेज़ी रईसी ठाठ
लेकिन सफाई का कागज़ रखने की कंजूस बनिए की तमीज़...
जियो, मेरे आज़ाद देश के सांस्कृतिक प्रतिनिधियो
जो विदेश जाकर विदेशी नंग देखने के लिए पैसे देकर
टिकट खरीदते हो
पर जो घर लौटकर देसी नंग ढकने के लिए
ख़ज़ाने में पैसा नहीं पाते,
और अपनी जेब में-पर जो देश का प्रतिनिधि हो वह
जेब में हाथ डाले भी
तो क्या ज़रूरी है कि जेब अपनी हो?
जियो, मेरे आज़ाद देश के रौशन ज़मीर लोक-नेताओ:
जिनकी मर्यादा वह हाथी का पैर है जिसमें
सबकी मर्यादा समा जाती है-
जैसे धरती में सीता समा गई थी!
एक थे वह राम जिन्हें विभीषण की खोज में जाना पड़ा,
जाकर जलानी पड़ी लंका:
एक है यह राम-राज्य, बजे जहाँ अविराम
विराट् रूप विभीषण का डंका!
राम का क्या काम यहाँ? अजी राम का नाम लो।
चाम, जाम, दाम, ताम-झाम, काम- कितनी
धर्म-निरपेक्ष तुकें अभी बाकी हैं।
जो सधे, साध लो, साधो-
नहीं तो बने रहो मिट्टी के माधो।
जियो मेरे-अज्ञेय

Capital of Seven Cities: Delhi

Through the ages, Delhi, the city of seven capitals, has always provided just such a spectacular and distinctive visual experience to her users and her visitors. Perhaps, nowhere else in the world have the inhabitants of a city gotten so used to living with quite so much built heritage of so much antiquity and so much variety.

work: help

साथी जुटना ही मुश्किल होता है, साधन तो जुट ही जाते हैं ।

CPI-Mohit Sen

मोहित सेन जब अपने कम्युनिस्ट दिनों को याद करते हैं, तो भारतीय मार्क्‍सवादी पंरपरा के बारे में एक बहुत ही मार्मिक टिप्पणी करते हैं, जो बाद के वर्षों में कम्युनिस्ट पार्टी के विकास के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा बन गयी। वह लिखते हैं ”यहाँ यह कह देना जरूरी है कि उन दिनों किसी कम्युनिस्ट नेता ने हमारी युवा मानसिकता को स्वयं भारत की महान परंपराओं और बौद्धिक योगदान की ओर ध्‍यान नहीं दिलाया जो हमारे देश के क्रान्तिकारी आन्दोलन और मार्क्‍सवाद के विकास के लिए इतना उपयोगी सिद्ध हो सकता था…हम कम्युनिस्ट अधिक थे भारतीय कम।”

Kargil:pervez-musharraf

'मुझे करगिल अभियान पर गर्व है।'
-पाकिस्तान के पूर्व सैन्य शासक जनरल परवेज मुशर्रफ,
करीब चार साल तक पाकिस्तान से बाहर रहने के बाद वतन लौटे पूर्व राष्ट्रपति ने कराची में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान करगिल मुद्दे पर उनकी भूमिका की आलोचना के बारे में सवाल पर यह टिप्पणी की।
तो मुशर्रफ अपने देश के सैनिकों के ताबूत लेने से डरे क्यों ? जो हुकुमत अपने मरे हुए सैनिकों को लावारिस बना दे क्या तो उस देश के लिए क्या जीना और क्या मरना ?
पता नही किस बात का गर्व है मुशर्रफ को ? बेगुनाह पाकिस्तानी सैनिकों को भारतीय सेना से मरवाने का या मरने के बाद पाकिस्तानी सैनिकों को पाकिस्तान की मिट्टी भी न नसीब होने का अगर यह गर्व की बात है तो ऐसा गर्व मुशर्रफ को मुबारक़ हो ?
लगता है कि उन्होंने अपनी ही सेना के पूर्व लेफ्टिनेंट जनरल शाहिद अज़ीज़, जो कि करगिल युद्ध के वक्त आईएसआई की एनालिसिस विंग के प्रमुख थे, का पाकिस्तानी अखबार ‘द नेशन डेली’ में 6 जनवरी को लिखा लेख नहीं पढ़ा।
इस लेख में शाहिद अज़ीज़ ने लिखा है कि करगिल में हमला झूठे अनुमानों पर आधारित एक बेकार का प्लान था और बाद में जनरल मुशर्रफ ने इस पूरे मामले को दबा दिया और पाकिस्तानी जवानों को चारे की तरह इस्तेमाल किया गया।
शाहिद अज़ीज़ ने आगे लिखा कि पाकिस्तानी जवानों को कहा गया था कि भारत हमले का जवाब नहीं देगा लेकिन भारत ने जब हमला किया तो न सिर्फ पाकिस्तानी जवान अलग-थलग पड़ गए बल्कि उनकी चौकियों का भी संपर्क कट गया।
अजीज ने लिखा, ‘करगिल की तरह हमने जो भी निरर्थक लड़ाई लड़ी, उससे हमने कोई सबक नहीं सीखा है। हम सबक सीखने से इनकार करते आ रहे हैं। वास्तविकता यह है कि हमारे गलत कामों की कीमत हमारे बच्चे अपने खून से चुका रहे हैं।’
लगता है कि पाकिस्तानी फ़ौज अपने मुल्क में लोकतंत्र को कभी नही पनपने देगी इसीलिये जैसे झूठे और मक्कार मुशर्रफ को दोबारा सामने लाया गया है।
आखिर क्यों न हो, इसी फ़ौज की अय्याशी और बलात्कारी आदत ने 1972 मे बांग्लादेश मे 150000 कुंवारी लड़कियों को गर्भवती बना दिया था।
आखिर भस्मासुर, सिर्फ यहाँ या इस देश की कहानी नही, यह दुनिया की हकीकत है।

delhi in 1920's

With the change of capital from Calcutta to Delhi on December 12,1911, the Haryana region was further isolated.
In 1920, certain changes in Delhi district were suggested. The Muslim League also suggested the extention of the boundaries of Delhi with the inclusion of Agra, Meerut and Ambala Division in it.
A similar demand was made to Sir.J.P. Thomson,the Commissioner of Delhi by the people. In 1928, all parties conference at Delhi again made a demand for extention of the boundaries of Delhi.
http://revenueharyana.gov.in/html/gazeteers/hrygazI/Hr-Gaz-Ch-1.htm

Wednesday, March 27, 2013

Delhi: Purana Kila

"It is significant that the Painted Grey Ware occurs at several places associated with the story of the great epic Mahabharata, and one of these places, Indraprastha, capital of the Pandavas, is traditionally identified with Delhi. Significantly enough, a village by the name of Indarpat, which is obviously derived from the word Indraprastha, lay in the Purana-Qila itself till the beginning of the present century, when it was cleared along with other villages to make way for the capital of New Delhi to be laid out.

hazari prasad dwvedi:bhanbhatt

बाणभट्ट की आत्मकथा हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखित उपन्यास का नाम है। यह प्रथम पुरुष में लिखा गया एतिहासिक उपन्यास है. यह सातवी शताब्दी में राजा हर्ष के दौर के उतर भारत पर लिखा गया है, एक अदभुत और पठनीय किताब।
बाणभट्ट संस्कृत साहित्यकार एवं हर्षवर्धन के राजकवि थे। उनका समय सातवीं शताब्दी ई० है। इस समय संस्कृत साहित्य की बहुत उन्नति हुई। उनके दो प्रमुख ग्रंथ हैं : हर्षचरित तथा कादम्बरी।
बाणभट्ट संस्कृत साहित्य में ही एक ऐसे महाकवि हैं जिनके जीवन चरित के विषय में पर्याप्त जानकारी मिलती है। बाह्य साक्ष्यों के आधार पर बाणभट्ट का समय सप्त शती पूर्वार्ध तथा थोड़ा सा उत्तरार्ध सिद्ध होता है।

Tuesday, March 26, 2013

Life: half full and half empty glass

Life is a strange thing, at a time you struggle for materialistic gains and once you get it, it gives you a empty feeling and hollowness but that is life. It demands balance between material gain and mental peace that is the message of geeta, karam kar phal ki chinta chod.

holi: postal stamp

होली की बहार -नज़ीर अकबराबादी
हिन्द के गुलशन में जब आती है होली की बहार।
जांफिशानी चाही कर जाती है होली की बहार।।
एक तरफ से रंग पड़ता, इक तरफ उड़ता गुलाल।
ज़िन्दगी की लज़्ज़तें लाती हैं,होली की बहार।।
जाफरानी सजके चीरा आ मेरे शाकी शिताब।
मुझको तुम बिन यार तरसाती है होली की बहार।।
तू बगल में हो जो प्यारे, रंग में भीगा हुआ।
तब तो मुझको यार खुश आती है होली की बहार।।
और हो जो दूर या कुछ खफ़ा हो हमसे मियां।
तो काफ़िर हो जिसे भाती है होली की बहार।।
नौ बहारों से तू होली खेल ले इस दम 'नजीर'।
फिर बरस दिन के उपर है होली की बहार।।

Holi: Najir Akhbarabadi

जब खेली होली नंद ललन -नज़ीर अकबराबादी
जब खेली होली नंद ललन हँस हँस नंदगाँव बसैयन में।
नर नारी को आनन्द हुए ख़ुशवक्ती छोरी छैयन में।।
कुछ भीड़ हुई उन गलियों में कुछ लोग ठठ्ठ अटैयन में ।
खुशहाली झमकी चार तरफ कुछ घर-घर कुछ चौप्ययन में।।
डफ बाजे, राग और रंग हुए, होली खेलन की झमकन में।
गुलशोर गुलाल और रंग पड़े हुई धूम कदम की छैयन में।
जब ठहरी लपधप होरी की और चलने लगी पिचकारी भी।
कुछ सुर्खी रंग गुलालों की, कुछ केसर की जरकारी भी।।
होरी खेलें हँस हँस मनमोहन और उनसे राधा प्यारी भी।
यह भीगी सर से पाँव तलक और भीगे किशन मुरारी भी।।
डफ बाजे, राग और रंग हुए, होली खेलन की झमकन में।
गुलशोर गुलाल और रंग पड़े हुई धूम कदम की छैयन में।।

Sunday, March 24, 2013

Brahmos:Press Club election

अच्छे विचारों का स्वागत किया जाना चाहिए नहीं तो यहाँ तो सबको ब्रह्मोस की तरह तोड़ने की तैयारी लगती है।
सुबह लाला की नौकरी और रात में क्रांति!
कौन किसको बेवकूफ बना रहा है या हम खुद ही भ्रम मे है। गले मे सबके पट्टा है,पटसन का है या सोने का क्या फर्क पड़ता है आखिर सच को कौन झुठला सकता है ।
लाख पते का सवाल है कि क्या अब ब्रह्मोस से प्रेस क्लब को मिला पैसा भी वापस करेगे, ब्रह्मोस का मॉडल तोड़ने वाले !
(सन्दर्भ: कल देर रात प्रेस क्लब के परिसर में रखी ब्रह्मोस मिसाइल के यह कहते हुए दो टुकड़े कर दिये कि यह मिसाइल जनद्रोही है)
(फोटो: प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तिरुअनंतपुरम स्थित ब्रह्मोस परिसर में)

University Girls: Poles Apart

Initial British Delhi

On the proclamation of change of the Capital from Calcutta to Delhi in December 1911, it became necessary to organise a Public Works Department exclusively for buildings the new capital.
A committee of Experts was appointed by the Secretary of State to advise the Government with regard to the site of the new Capital and its layout. Sir Edvin Lutyens an eminent and world famous Architect, was chosen to be the Architect and Designer of the new capital city. After approval of the plans, the charge of execution of the work was entrusted to imperial Delhi Committee, which has Chief Commissioner of Delhi as President and Chief Engineer as Engineer-Member.
The first estimate of Project as framed by them was for Rs.1050 lakhs. It was taken up for execution in December, 1913. The Works of the Capital Project were, however, held up consequent to First World war in 1914 and the tempo slowed down. From 1914-15 to 1919-20 the expenditure varied between Rs.39 to 54 lakhs per year. The tempo of the works increased in year 1920-21 onwards and the estimate was revised to Rs.1307 lakhs.

History:Agehya

इतिहास! इधर इति, उधर हास!
फिर क्यों उसे ले कर इतना त्रास?
क्या दास ही बिकते हैं,
इतिहास नहीं बिकता
(दास-व्यापारी:अज्ञेय)
(फोटो: भीमपेटिका प्रस्तर चित्र)

Delhi: Jat, 1868

Ethnographic photograph of Jats in the vicinity of Delhi, India, 1868
Jats ruled Delhi for about 445 years.Raja Jiwan and his descendents were Pandav vansi. The rule of Delhi went to other people after 27 generations of Yudhidthira. After them Jogi, Kayastha, Pahadi and Vairagi people ruled Delhi. Vikramaditya was also a ruler of Delhi during this period.
http://www.jatworldonline.com/delhi.php

Reality of Indian Vote

हिन्दू समाज, जाति के नाम पर और अल्पसंख्यक-समुदाय तथा संप्रदाय के नाम पर वोट देते है. वही वोट भी तो इन्ही चीजो की दुहाई देते हुए मांगे जाते है, इस सचाई से कौन इंकार कर सकता है !
हर भारतीय नागरिक वोट करते समय अपनी जात, बिरादरी और समुदाय का होता है |

O V Vijayan: Expression of Freedom

केरल के मलप्पुरम जिले में कोट्टक्कल स्थित राजा उच्च एवं माध्यमिक विद्यालय के परिसर में मलयालम के जाने-माने लेखक और कार्टूनिस्ट ओवी विजयन की प्रतिमा के चेहरे को कट्टरपंथी और असामाजिक तत्त्वों ने तोड़ दिया।
ओवी विजयन की मूर्ति का अनावरण पिछली छब्बीस फरवरी को होना था।
लेकिन आइयूएमएल यानी इंडियन यूनियन मुसलिम लीग के बहुमत वाले कोट्टक्कल नगरपालिका इसके विरोध में थी, जिसके चलते कार्यक्रम रद्द कर दिया गया ।
क्या यही है देश के सर्वधिक्र साक्षर और सहिष्णु समझे जाने वाले कथित उदारवादी केरल की असली तस्वीर ?
इस मामले को लेकर बात बात में खुला पत्र लिखने वाले हिंदी के वीर साहित्यिक चारणों की चुप्पी सही में हैरतअंगेज़ है इस पर न कोई बोला और न ही किसी को कोई खतरा लगा क्यों न हो आखिर मौन भी तो एक तरह की स्वीकृति ही है ।
लाख टके का सवाल है कि आखिर हम विचारों की अभिव्यक्ति, कला-साहित्य के प्रति सम्मान, और स्वतंत्रता किसी भी तरह की सम्भावना से रहित कैसा प्रगतिशील समाज गढ़ रहे है ?

Saturday, March 23, 2013

Bharat Mata: Lohia

ऐ भारतमाता, हमें शिव का मस्तिष्‍क दो, कृष्‍ण का ह्रदय दो तथा राम का कर्म और वचन दो। हमें असीम मस्तिष्‍क और उन्‍मुक्‍त ह्रदय के साथ-साथ जीवन की मर्यादा से रचो ।
डॉ. राममनोहर लोहिया (राम, कृष्ण और शिव)

Wednesday, March 20, 2013

Mirza Ghalib: Oppurtunistic personality

गालिब से बड़ा अवसरवादी और पैरासाइट कम मिलेंगे लेकिन उसकी कविता उससे क्षरित नहीं होती। आत्मभोज वहां भी है लेकिन वह एशिया के सबसे बड़े कवि के रूप में उभर कर आता है। अत: कला की कोई शर्त नहीं है कि कैसा जीवन जियो। बड़ी कला और लेखक के जीवन का कोई अन्तर्सामंजस्य जरूरी नहीं है।
-दूधनाथ सिंह
http://wangmaya.blogspot.in/2007/09/blog-post_14.html

Emergency:rat ka reporter-nirmal verma

निर्मल वर्मा के 'रात का रिपोर्टर', जो पहाड़ और मृत्यु की नास्टैल्जिया से अलग है, में भय और आतंक का अद्भुत चित्रण किया गया हैं। उसमें भय और आतंक के अमूर्तन द्वारा आपातकाल का अमूर्तन है।

life: leftover

हमें तो जिंदगी में घिस घिस कर, खुरच-खुरच कर,बस खुरचन ही हाथ आई है । मलाई तो बस भाप बनकर उड़ गई ।

Tuesday, March 19, 2013

Ideology blindness

विचार-रतौंधी
हम सब रंग-दारी में ही अपना रंग ही बद-रंग कर रहे है ।

Self Introspection

लोटे को रोज मांझना जरूरी है, नहीं तो हम में जंग नहीं लगेगा ये कहा नहीं जा सकता है................

Press Club: Colour blindness

ये लाल रँग कब मुझे छोड़ेगा
आज प्रेस क्लब में चुनावी सरगर्मी में एक साथी टीवी पत्रकार से रोचक टिप्पणी सुनने को मिली,"दिन में लाला की नौकरी रात में दो पैग के बाद सब लाल"
तो अनायस ही कबीर की पंक्तियां याद आ गई,
लाली मेरे लाल की, जित देखों तित लाल ।
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल ॥
आज ऐसे अनेक मुश्किल और ज्वलंत विषय हैं, जिनसे सीधे जूझने की बजाय समाज का कथित बुद्धिजीवी वर्ग बगल से गुजरने में ही वीरता समझता है । सरकारी सुख-सुविधाओं और प्रतिष्ठा हासिल करने के लिए शतरमुर्गी रवैए को अपनाने वाले तथा लाल,हरे और भगवा रंग की रंतौधी के शिकार बुद्धिजीवी तबके की स्थिति पर रघुवीर सहाय की इन पंक्तियों से सटीक कुछ नहीं कि
खंडन लोग चाहते है याकि मंडन
या फिर अनुवाद का लिसलिसाता भक्ति से,
स्वाधीन इस देश में
चौकते हैं लोग एक स्वाधीन व्यक्ति से ।

Sunday, March 17, 2013

India Gate:British canopy

महापुरुषों की मूर्तियाँ बनती हैं, पर मूर्तियों से महापुरुष नहीं बनते........

Journey:Life

In the life if you climb step by step, it helps.

dinkar: azadi

आजादी तो मिल गई, मगर, यह गौरव कहाँ जुगाएगा ?
मरभुखे ! इसे घबराहट में तू बेच न तो खा जाएगा ?
आजादी रोटी नहीं, मगर, दोनों में कोई बैर नहीं,
पर कहीं भूख बेताब हुई तो आजादी की खैर नहीं।
हो रहे खड़े आजादी को हर ओर दगा देनेवाले,
पशुओं को रोटी दिखा उन्हें फिर साथ लगा लेनेवाले।
इनके जादू का जोर भला कब तक बुभुक्षु सह सकता है ?
है कौन, पेट की ज्वाला में पड़कर मनुष्य रह सकता है ?
झेलेगा यह बलिदान ? भूख की घनी चोट सह पाएगा ?
आ पड़ी विपद तो क्या प्रताप-सा घास चबा रह पाएगा ?
है बड़ी बात आजादी का पाना ही नहीं, जुगाना भी,
बलि एक बार ही नहीं, उसे पड़ता फिर-फिर दुहराना भी।
दिनकर

Bhavani prasad mishra:Vijay bahadur Singh

भवानी प्रसाद मिश्र अपनी कविता में उस क्रांतिकारी भारत को खोजते रहे जो पश्चिमी अंधड़ों में भूल-भटक गया है। याद करें तो यही लड़ाई गांधी, रवींद्रनाथ ठाकुर और कला के मोर्चे पर आनंद कुमार स्वामी भी लड़ रहे थे। धर्म के मोर्चे पर इसे विवेकानंद ने लड़ा था। ये वे स्वदेशी लड़ाइयां थीं, साम्राज्यवादी आधुनिकता जिन्हें आज भी उखाड़ फेंकना चाहती है। मैकाले के वंशजों की विपुल तादाद के बीच इन ठिकानों पर खड़े होना और लड़ना जिन कुछेक के लिए दीवानगी से कुछ कम नहीं था, भवानी प्रसाद मिश्र उनमें सबसे विरल योद्धा थे। उनकी कविता में उनकी यह मुद्रा कभी भी निस्तेज नहीं होती बल्कि रोज-रोज उसकी तेजस्विता का सौंदर्य बढ़ता ही जाता है। न उसके घुटने मुड़ते हैं, न रीढ़ झुकती है। न चित्त भयभीत होता है और न आंखें मुंदतीं या झपकती हैं।
आश्चर्य नहीं कि इसीलिए एक कवि के रूप में श्रोता-समाजों के बीच पहले लोकप्रिय हुए, कवियों और आलोचकों तक तो उनका नाम लगभग बीस-इक्कीस साल बाद पहुंचा। बहुत कुछ कबीर की तरह जो जनता से होकर साहित्यिक दुनिया के बीच कदाचित कुछ देर से पहुंचे।
आज स्थिति उलटी है। अव्वल तो कवि अपने जन-समाज के बीच पहुंचना ही नहीं चाहता और जो पहुंच गए हैं उन कवियों को संदेह की निगाह से देखता है, उनकी रेटिंग भी घटा देता है। हिंदी कविता और कवियों की इस मानसिकता ने दोनों के बीच दुर्गम खाइयां खोद दी हैं।
भवानी प्रसाद मिश्र की कविता ने खुद अपने लिए जो चारित्रिक शील तय किया वह जमाने के सारे कवियों से कुछ भिन्न था- यह कि तेरी भर न हो तो कह/और सादे ढंग से बहते बने तो बह/जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख/और इसके बाद भी/हमसे बड़ा तू दिख।
-विजय बहादुर सिंह (जनसत्ता 20 फरवरी, 2013)

Saturday, March 16, 2013

ghalib:survival

है अब इस मामूरे में कहत-ऍ-ग़म-ऍ-उल्फ़त असद
हमने ये माना कि दिल्ली में रहें खावेंगे क्या

Ghalib:Literature

In 1857, Ghalib was forced to reassess his great admiration for Western culture when the British rulers of India responded to the Sepoy Rebellion with violence, martial law, and the forced exile of Delhi's Muslim and Hindu populations.
Eighteen months after the start of the fighting, he published Dastanbu, his memoirs of the suffering brought on by the conflict, and sent copies to various British officials, including Queen Victoria, both to plead for moderation in the treatment of Indians and to establish his own innocence in the rebellion.
At this time, motivated by the realization that most of his unpublished manuscripts had been destroyed when the rebels and British alike looted the libraries of Delhi, Ghalib attempted to gather his remaining ghazals into expanded editions of his Divan.
Source: Nineteenth-Century Literary Criticism
http://www.enotes.com/ghalib-essays/ghalib

Premchand:Pushkin:Delhi

भारत की राजधानी दिल्ली में अलेक्सांद्र पुश्किन की प्रतिमा है प्रेमचंद की नहीं....

Wednesday, March 13, 2013

My Daughter and me

आज एक दिवंगत कवि का चित्र देखा,
उनकी बेटी का स्मरण हो आया ।
चेहरों की समानता और हबहू बनावट ने
मेरी नजर को ठिठका दिया ।
जैसे साइकिल से जाता कोई आदमी,
सड़क की दूसरी तरफ किसी चेहरे को देखकर
पल भर के लिए किनारे हो जाता है ।
आपको पता है
दिल्ली में बस और साइकिल दोनों के लिए
दाई ओर की लेन तय है ।
मानो बकरी और शेर
दोनों को एक ही घाट पर रहना है,
फिर कोई जिंदा बचे या जिंदा रहे
उसकी किस्मत ।
मुझे लगा क्या मैं भी बुढ़ापे में
इस कदर अपनी बेटी से एक हो पाऊंगा ।
क्या लोग मेरी तस्वीर देखकर भी,
मुझे मेरी बेटी से पहचान पाएंगे
आखिर देखने वालों का कहना है कि
मेरी बेटी भी कार्बन कापी है,
हूबहू मेरी ।
फिर यकायक लगा
मैं भी क्या बूझने लगा, लकड़बूझने वाले सवाल ?
पर लगा आखिर क्यूं न हो
मेरी दाढ़ी सफेद होने लगी है, भौंहे पकने लगी है ।
अब मेरी बेटी
कालेज के दिनों की तस्वीर देखकर
पूछती है सवाल
पापा, आप पहले से क्यों नहीं दिखते ?
मन ही मन अपने से बात करता हुआ,
उसका यह सवाल
मैं सुनकर भी अनसुना कर देता हूं ।
आखिर बेटी किसकी है ?
मुझे तो कोई संशय नहीं, आपको हो तो रहे
अब मुझे भरोसा है
कोई भी पहचान लेगा मुझे,
मेरी बेटी से
हो न हो यही है, बस यही है ।

Poem:Raghuvir Sahay

वे उसकी इज़्ज़त करते हैं/रघुवीर सहाय
वह बैठा है सुखी आदमी
जब वह हँसता है तो मन ही मन हँसता है
बाहर से लगता है वह मुसकरा रहा है
उसने अपने से घटिया लोगों को मित्र बनाया है
और उन्हें पहले से भी घटिया होने का मंत्र बताया है
वे उसकी इज्ज़त करते हैं
उसको सब विख्यात जनों का कच्चा चिट्ठा मालूम है
उसे सुनता है पर निन्दा नहीं किसी की करता है
इससे सब निर्भय होकर रस लेते हैं
वे उसकी इज्ज़त करते हैं

Tuesday, March 12, 2013

Delhi

दिल्ली । या कहिए, पत्थर का पत्थर सा संवेदनशून्य शहर। वैसे, इसके नामकरण से जुड़ी एक तोमर वंशीय मान्यता यह है कि प्रसिद्ध 'लौह स्तंभ' की नींव ठीक से भरी नहीं गई, कील ढीली रह गई। सो, प्राकृत का 'ढिल्ली' बाद में दिल्ली हो गया। संभवत: दोनों ही बातों में कुछ सच है।

Monday, March 11, 2013

Mother:Media

मदर-मीडिया
मदर टेरेसा की संतई सवालों के घेरे में है और 'मिशनरीज ऑफ चैरिटी' की संस्थापक रोमन कैथोलिक 'संत' की 'संत' पदवी रहेगी या जाएगी, इसको लेकर दुनिया में बहस छिड़ गई है। तीन शोधाथिर्यों के एक अध्ययन ने 'मदर' की 'करुणा' और 'दया' पर सवाल उठाते कुछ चौंकाने वाले तथ्य पेश किए हैं। अगले महीने इस अध्ययन के छपकर आने की उम्मीद है।
शोध करने वाले सर्गे लारिवी और जेनेवीव चेनार्ड मांट्रियल विश्वविद्यालय के मनोशिक्षा विभाग से जुड़े हैं तो एक कैरोल सेनेशल ओटावा विश्वविद्यालय से हैं। तीनों ने 'मदर' पर प्रकाशित सामग्री का अध्ययन करके लिखा कि उनकी छवि गढ़ी गई थी और 'संतई' एक असरदार मीडिया प्रचार ने दिलाई थी।

First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान

कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...