Sunday, August 11, 2013

Book inauguration: Delhi


आजकल दिल्ली से हिंदी में छपने वाली नई पुस्तक का पहला संस्करण ३०० से ज्यादा नहीं होता । वैसे राजधानी के आई आई सी या हैबिटैट सेंटर जैसे अंग्रेजी-दा ठीयों में इन पुस्तको के लोकार्पण/विमोचन के मौके पर मौजूद रहने वाले चेहरे भी घूम-फिरकर एक जैसे ही होते है बस फर्क होता है तो प्रकाशक का और लेखक का ।
लेखक के दुःख के, संघर्ष के साथी गायब होते है क्योंकि अब सुख के दिनों में वे ही सबसे ज्यादा मुकाबले की तपिश झेल रहे होते है सो शहर में सीने की जलन फिर जाया क्यों हो । इनकी कमी पूरी करते है, सुख के साथी । अगर आप टीवी के रिपोर्टर है तो अपने चैनल के एंकर से लेकर जूनियर जुट ही जायेगे, कुछ साथी चैनल के दोस्त, प्रिंट के पुराने यार, लेखक का घर परिवार और दोस्त-रिश्तेदार ।
इसी तरह प्रकाशक के पैनल पर छपने वाले कुछ चेहरे, जिनकी लेखनी से ज्यादा उनके 'फेसवैल्यू' की कीमत होती है, 'अपने-होने' को दर्ज करवाने के हिसाब से नज़र आते है । अगर 'लाल' खेमे की किताब होगी तो कामरेड जोश में होते है कि कब किताब का कार्यक्रम खत्म हो तो बोतल का अपना प्रोग्राम शुरू हो वही अगर 'भगवा' खेमे की किताब हुई तो लालाजी की कचोरी-समोसा-चाय तो तय है और अगर 'समाजवादी-तीसरे मोर्चे' की किताब हुई तो गाँधी शांति प्रतिष्ठान या साहित्य अकादमी में चाय के साथ बिस्कुट भी मिल जाये तो गनीमत।
वैसे इन सब मौजूद लोगो की कुल संख्या भी नयी किताब के पहले संस्करण से ज्यादा नहीं होती । पर फिर भी भगवान के मंदिर में सब जाते है न प्रसाद खाने, वह बात अलग है कि हम बात सब भगवान के दर्शन की करते है । अब आप समझदार बनकर घंटा बजाना चाहते है या मूर्ख बनकर प्रसाद खाना चाहते हो सो तय आपको करना है ।

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