हमें
कोई नहीं पहचानता था।
हमारे चेहरों पर श्रद्धा थी।
हम सब को भीतर बुला लिया गया।
हमारे चेहरों पर श्रद्धा थी
हम सब को भीतर बुला लिया गया।
उस के चेहरे पर कुछ नहीं था।
उस ने हम सब पर एक नज़र डाली।
हमारे चेहरों पर कुछ नहीं था।
उस ने इशारे से कहा इन सब के चेहरे
उतार लो।
हमारे चेहरे उतार लिये गये।
उस ने इशारे से कहा
इन सब को सम्मान बाँटो :
हम सब को सिरोपे दिये गये
जिन के नीचे नये
चेहरे भी टँके थे
उस ने नमस्कार का इशारा किया
हम विदा कर के
बाहर निकाल दिये गये
बाहर हमें सब पहचानते हैं :
जानते हैं हमारे चेहरों पर नये चेहरे हैं।
जिन पर श्रद्धा थी
वे चेहरे भीतर
उतार लिये गये थे : सुना है
उन का निर्यात होगा।
विदेशों में श्रद्धावान् चेहरों की
बड़ी माँग है।
वहाँ पिछले तीन सौ बरस से
उन की पैदावार बन्द है।
और निर्यात बढ़ता है
तो हमारी प्रतिष्ठा बढ़ती है।
एक दफा डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी ने दिलचस्प प्रसंग सुनाया। मैं उनकी विद्वत्ता के बाद साफबयानी का भी कायल हुआ। उन्होंने बताया कि इमरजेंसी में बौद्धिक समुदाय में व्याप्त रोष की खुफिया खबरों से इंदिरा गांधी बेचैन थीं। प्रगतिशील लेखक संघ (तब एक ही संघ था) लेखकों से इमरजेंसी का समर्थन जुटा रहा था। त्रिपाठी जी प्रलेस की दिल्ली इकाई के महासचिव के नाते तीन अन्य लोगों के साथ अज्ञेय का समर्थन हासिल करने उनके घर गए। वे अज्ञेय को प्रधानमंत्री के घर बुलाई गई बौद्धिकों की एक बैठक में भी ले जाना चाहते थे। त्रिपाठी जी कहते हैं, अज्ञेय न सिर्फ बिफर गए बल्कि अपनी सहज शालीन आवभगत भुला कर उन्हें उलटे पांव चलता कर दिया। संभवत: इसी प्रसंग में सितंबर 1976 में अज्ञेय ने ‘बौद्धिक बुलाए गए’ कविता लिखी। उसमें एक तानाशाह ‘श्रद्धा’ प्रकट करने आए बुद्धिजीवियों को ‘सम्मान’ में सिरोपे प्रदान कर उनके चेहरे उतार लेता है और नए चेहरे देता है।
Source: http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/36052-2013-01-06-08-35-05
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