अब अगर लाल बंगाल ने कभी बीमारू राज्यों के हिंदी लेखकों को किसी काबिल नहीं समझा तो ऐसे में पुरस्कार देने वाले यूपी से कैसा विरोध ! आखिर इस बात से तो कोई साहित्यिक पत्रिका वाला इंकार नहीं करेगा कि एक तरफ तो दिल्ली सरकार है जिसने पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु से लेकर राजस्थान तक की पत्रिकाओं को गले से लगाया है । वही बंगाली रतौंदी से ग्रसित पश्चिम बंगाल के कामरेड़ो को सीपीआई की हिंदी भाषा में निकलने वाली मुख-पत्रिका से आगे हिंदी की कोई पत्रिका शायद ही नज़र आई ।
मजेदार बात यह है कि हिंदी पट्टी में से निकलने वाली अधिकतर पत्रिकाए 'मार्क्सवाद' की माला जपती है पर उन्हें लाल बंगाल की अपने साथ होने वाली यह नाइंसाफी कभी भी नागवार नहीं लगी । शायद ये पत्रिकाए भी उसी रतौंदी रोग का शिकार लगती हैं ।
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