Wednesday, August 21, 2013

Book Review: Jharkhand-झारखंड आंदोलन का दस्तावेज: शोषण, संघर्ष और शहादत



संघर्ष की तपोभूमि है झारखंड, जिसका रक्तस्नात इतिहास जर्मनी के दमनकाल से थोड़ा भी कम नहीं है। यातना की इस गाथा को मानवीय सभ्यता का दुःखद अध्याय इतिहासकारों द्वारा उर्द्धत किया जाता है। यहूदियों के आखेट और संहार पर ट्रम्फ आफ द विल और डाउनफाल जैसी फिल्में भी बनीं और आज भी लगभग 80 साल बाद यूरोपीय यातना शिविर यूरोपी मुल्कों और शेष विश्व के लिए भी जिज्ञासा का विषय है। मगर झारखंड में मूल वाशिंदों के दमन का दौर थमने का नाम नहीं ले रहा बल्कि उनके शोषण का कोई नामलेवा भी नहीं है। आज एक नहीं कई यूरोपीय यातना की कहानियों से लबालब है इस राज्य का इतिहास।
झारखंड में मूल वाशिंदों की सामूहिक हत्या, उनके दमन और शोषण का आयोजन 1834 से ही चल रहा है। तब से मानवीय त्रासदी का सिलसिला वहाँ गहराता ही चला गया। इसके पहले जब भी आदिवासी भड़के तो उन्हें दबाया जाता रहा। तब आदिवासी महाजनी प्रथा एवं अंग्रेजों के अतिक्रमण के खिलाफ लामबंद होते थे। मगर 19 वी सदी के मध्य से विकास का जो नया स्वरूप उभरा वह आदिवासी विरोधी था। झारखंड में आत्माभिमान और देशज मूल्यों की हिफाजत के लिए जब भी आवाजें उभरीं, उसे बेहद नृंशसता के साथ कुचला गया। 20 वीं सदी के इतिहास के इसी सच को पत्रकार अनुज कुमार सिन्हा ने बेहद संवेदनशीलता के साथ इस किताब में लाने की सफल कोशिश की है।
किताब के शीर्षक से ही यह स्पष्ट है कि शोषण के लिए किये जा रहे संघर्ष का नतीजा है शहादत, जो थमने का नाम नहीं ले रहा। जैसे इस ज़मीन का 20 वी सदी का इतिहास सामूहिक नरमेध का इतिहास है। पुलिस फायरिंग, माफिया-महाजन के शिकार की कहानियाँ, दूसरी आजादी हासिल करने में महिलाओं एवं गैर-आदिवासियों की भूमिका, पुलिसिया जुल्म एवं अपने जज्बा, जोखिम और उसके नतीजे उन तमाम घटनाओं को समेटती हैं जो संविधान की संकल्पनाओं एवं राज-व्यवस्था के प्रावधानों को पंगु एवं असमर्थ साबित करती हैं।
झारखंड आंदोलन का दस्तावेज: शोषण, संघर्ष और शहादत  किताब में लेखक अनुज कुमार सिन्हा सिर्फ तथ्यों को सामने नहीं रखते बल्कि संबंधित तस्वीरें देकर भी उन तथ्यों की पुष्टि करते हैं जिन पर सहज विश्वास नहीं होता। 1948 के खरसवां गोलीकांड में सरकार ने 35 लोगों के मरने की पुष्टि की थी। लेकिन अनुज दस्तावेज जुटाते हैं और यह बताते हैं कि इस गोलीकांड में 2000 लोग मारे गये थे। इसी आधार पर अनुज इसे एक और जालियावाला बाग कांड (पृष्ठ 55) बताते हैं। गोलीकांडों की शिकार लोगों की अलभ्य तस्वीरें और समाचारों की कतरनें झारखंड के खून से सने इतिहास के प्रमाण हैं। किताब पढ़कर ऐसा लगता है कि देश में नस्ली सफाई का दौर चल रहा है जैसा यूरोप में नोरा आदिवासियों के साथ हो रहा है। अनुज की यह किताब इस बात का इशारा है कि अपने संसाधनों के लिए संघर्षरत आदिवासियों की शहादत की कोई कीमत नहीं है। राज्य बनने के बाद अचानक जो चेहरे दिखने लगे, वे बेचैन करनेवाले थे। ‘जान देंगे जमीन नहीं’ की आवाज बुलंद करते आंदोलनरत आदिवासियों को बेदर्दी से मारा जाता है। सिमको कांड से शुरू हुई गोलीकांडों का सिलसिला जारी है। अन्य कई तरीकों से आदिवासियों का उन्मूलन चल रहा है। अभी हाल ही में राज्य की राजधानी के नगड़ी इलाके में पुलिसिया दमन इस बात का प्रमाण है। झारखंड में आदिवासियों की सरकार होने के बावजूद शोषण जारी है, संघर्ष जारी है तो शहादत भी जारी है।
समाज और सत्ता से जुड़े लोगों को यह गहराई से सोचना होगा कि झारखंड का रक्तरंजित इतिहास मानवीय इतिहास की दर्दनाक दास्तां है। लेखक का मानना है कि राज्य बनने के बाद वे सवाल और मुद्दे जस के तस हैं जो आदिवासी स्मिता और देशज मूल्यों से जुड़े हैं। ब्राजील में झारखंड की तर्ज पर बीती सदी 30 लाख आदिवासी मारे गये। झारखंड में 1834 से लेकर अभी तक कितने आदिवासी सरकार के हाथों मारे गए, इसका अनुमान किसी को भी नहीं है।
अनुज की यह किताब अपने आप में एक ऐसा दस्तावेज है जो आदिवासी भारत के इतिहास को नयी दिशा और आयाम देती है।

(शोषण, संघर्ष और शहादत, अनुज कुमार सिन्हा, प्रभात प्रकाशन, आसफ अली रोड, नयी दिल्ली, मूल्य: 200 रूपए) 



                            {कादम्बिनी के अगस्त, 2013 में प्रकाशित पुस्तक समीक्षा}

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