पंद्रहवीं और सोलहवीं सदी के दौरान, असम के संत, विद्वान तथा समाज सुधारक स्वामी श्रीमंत् शंकरदेव के नव-वैष्णव आंदोलन ने जाति बंधनों को तोड़ा तथा एक ऐसे समतावादी सिविल समाज की स्थापना की कोशिश की जिसमें भाईचारे, समानता, मानवीयता तथा लोकतंत्र के मूल्यों को माना जाता हो। शंकर देव का मानना था कि, ‘‘इसलिए, सभी को और हर वस्तु को, ऐसा मानो जैसे वह स्वयं ईश्वर हो। ब्राह्मण अथवा चांडाल की जाति जानने की कोशिश मत करो।’’
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