अगर हम भारतीय और हिंदू प्रतीकों का इस्तेमाल नहीं करेंगे तो क्या ईसाई और मुस्लिम प्रतीकों का इस्तेमाल करेंगे ? ये प्रतीक को सहज रूप से हमारे रक्त में प्रवाहित होते हैं ! जब हम यूरोप का साहित्य पढ़ते हैं तो उनमें बाइबल और यूनानी पौराणिक ग्रन्थों से लिए गए रूपक व प्रतीक मिलते हैं । हम उन्हें स्वीकार करते हैं । नस्लीय दृष्टि से हम क्या उसे देख पाएंगे ? आज हम निराला का तुलसीदास या राम की शक्ति पूजा पढ़ते हैं, तो क्या यह कहेंगे कि यह हिन्दूवादी कविता है ? क्या हम उसे साम्प्रदायिक कविता कहकर खारिज कर सकते हैं ? मैं समझता हूं ऐसी बातें करना हमारी आलोचनात्मक विपन्नता का प्रतीक है । इसमें हिंदू-मुस्लिम का सवाल ही नहीं पैदा होता ।
-निर्मल वर्मा, आपातकाल के दौरान अपने अनुभव पर, (संसार में निर्मल वर्मा संपादक गगन गिल)
No comments:
Post a Comment